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Unit-731: दूसरे विश्व युद्ध का खौफनाक टॉर्चर हाउस, यहां जिंदा इंसानों पर होते थे खतरनाक एक्सपेरिमेंट

जब भी धरती पर बुरे वक्त की बात की जाती है तो उसमें दूसरे विश्व युद्ध का नाम जरूर आता है. इस विश्व युद्ध में न जाने कितने बेकसूर लोगों ने बेवजह अपनी जान गंवाई. न जाने कितने ही घरों के चिराग इस विश्व युद्ध ने छीन लिए. इस भयंकर विश्व युद्ध में कुछ तो ऐसे भी लोग थे, जिन्हें मौत मिली भी तो वो भी खतरनाक टॉर्चर के बाद. बच्चों से लेकर महिलाओं तक. किसी को भी नहीं बख्शा गया. क्या था ये टॉर्चर चलिए जानते हैं इस कहानी में...

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दूसरे विश्व युद्ध के समय में चला था ये एक्सपेरिमेंट.
दूसरे विश्व युद्ध के समय में चला था ये एक्सपेरिमेंट.

कहानी है यूनिट- 731 (Unit- 731) की. ये यूनिट जापानी सेना की ही एक यूनिट हुआ करती थी. असल में इस यूनिट का काम था जापान में बनने वाले बायोलॉजिकल और केमिकल हथियारों को टेस्ट करना. लेकिन इस टेस्ट को अंजाम देने के लिए वे लोग उन कैदियों का इस्तेमाल करते थे जो कि जापान की जेलों में बंद होते थे.

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Daily Mail के मुताबिक, 3000 के करीब कैदियों पर यहां खतरनाक एक्सपेरिमेंट किए गए जिनमें से अधिकतर चीन के कैदी थे. लेकिन इसके अलावा रूसी, ब्रिटिश और अमरीकी कैदियों पर भी एक्सपेरिमेंट किए गए. कहा जाता है कि ये तो सिर्फ वे आंकड़े हैं जो सरकार ने जारी किए थे. असल में यह आंकड़ा इससे कहीं अधिक था.

यूनिट का पहला एक्सपेरिमेंट
उल्लेखनीय है कि 1939 में शुरू हुआ दूसरा विश्व युद्ध 1945 तक चला था. इन 6 सालों में इस यूनिट ने भी जमकर अपना काम किया. इस यूनिट ने सबसे पहले ठंड को लेकर अपना एक्सपेरिमेंट किया. दरअसल, यूनिट के लोग जानना चाहते थे कि आखिर इंसान कितनी ठंड बर्दाश्त कर सकता है. इस एक्सपेरिमेंट के लिए उन्होंने जेल से कुछ कैदियों को चुना. फिर उन्हें बिना कपड़ों के उन बर्फीले पहाड़ों पर खड़ा कर दिया गया जहां का तापनाम माइनस 30 से माइनस 40 डिग्री सेल्सियस के बीच था.

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पहले ठंडा फिर खौलता हुआ गर्म पानी डाला जाता
उन कैदियों को बिना कपड़ों के वहां सिर्फ खड़ा ही नहीं किया गया. बल्कि, उन पर नजर रखने के लिए हमेशा 2 सैनिकों को भी रखा जाता. जिनका काम था उन पर बाल्टियों में ठंडा पानी भरकर समय-समय पर डालना. उन कैदियों पर तब तक पानी डाला जाता जब तक कि उनका शरीर पत्थर की तरह नहीं हो जाता. इसी के साथ वे कैदियों को डंडे से मारते भी थे. वो भी सिर्फ ये चेक करने के लिए कि कैदी का शरीर ठंड से जम गया है या नहीं. फिर जब उन्हें लगता कि कैदी का शरीर पत्थर की तरह हो गया है तो वे उसे डॉक्टर के पास ले जाते. यहां भी डॉक्टर उनका इलाज नहीं करते. बल्कि वे भी उन पर एक्सपेरिमेंट करते. वे कैदी को दोबारा से नॉर्मल करने के लिए उस पर खौलता पानी डाल देते.

शरीर के अंदर वायरस को डालना
इस यूनिट ने दूसरा एक्सपेरिमेंट किया जिसमें कैदियों के शरीर के अंदर जान बूझकर वायरल डाला जाता. ताकि ये पता लगाया जा सके कि आखिर बीमारी अपना काम कैसे करती है. और इससे शरीर के अंदर क्या बदलाव होता है. वायरस के जाते ही जैसे ही कोई कैदी बीमार हो जाता तो वे उसे एक्सपेरिमेंट के लिए टेबल पर लेटा देते. फिर यहां वे बिना एनेस्थीसिया (Anaesthesia) के कैदी के शरीर पर चीर-फाड़ करनी शुरू कर देते. जिन लोगों पर ये एक्सपेरिमेंट किया जाता उन्हें मारूटर्स और लॉग्स के नाम से जाना जाता.

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गोली लगने के बाद क्या होता है?
एक और एक्सपेरिमेंट किया गया था जिसमें वे जानना चाहते थे कि आखिर गोली लगने के बाद इंसान के शरीर में होता क्या है. इसके लिए उन्होंने एक कैदी को खंबे से बांध दिया. पहले उसे पास से, फिर थोड़ी दूर से, फिर और थोड़ी दूर से उस पर गोलियां चलाईं जातीं. जब कैदी का शरीर गोलियों से छलनी हो जाता तो उसे एक्सपेरिमेंट टेबल पर रख दिया जाता. फिर उसके शरीर को चीर कर देखा जाता कि आखिर कौन सी गोली ने क्या काम किया है. इसी के साथ कुछ जिंदा कैदियों के पास तो ग्रेनेड भी फेंके जाते. इससे पता लगाने की कोशिश की जाती कि आखिर ग्रेनेड कितना भयंकर है. और अगर कोई शख्स ग्रेनेड को इतनी पास से झेलता है तो उसके शरीर के साथ क्या होता है. एक डॉक्टर ने काफी सालों बाद बताया कि जब वे एक गैस वेपन (Gas Weapon) को टेस्ट कर रहे थे तो उस समय हवा के कारण वह गैस डॉक्टर्स की तरफ ही आ गई. इससे वे लोग बाल-बाल बच गए.

प्रेशर चेंबर एक्सपेरिमेंट
इसके बाद किया गया प्रेशर चेंबर एक्सपेरिमेंट. इसमें वे लोग कैदी को एक कंटेनर के अंदर डालते. फिर उसमें हवा का प्रेशर इतना बढ़ा दिया जाता कि सबसे पहले तो कैदी की आंखें ही फटकर बाहर आ जातीं. बताया जाता है कि इस एक्सपेरिमेंट में कई कैदियों की मौत हुई थी. यहीं नहीं, कुछ कैदियों को स्पिनिंग व्हील के अंदर बैठा कर उस पर 25 से 30 जी का फोर्स टेस्ट किया गया. इसमें भी न जाने कितने ही कैदियों ने अपनी जान गंवा दी.

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जिंदा की काट दिए जाते कैदी
फिर समय आया सबसे घातक एक्सपेरिमेंट्स करने का. दरअसल, जापान की सरकार का उस समय मानना था कि अगर हमारे पास अच्छे डॉक्टर्स होंगे तो हमारा युद्ध में नुकसान कम होगा. और इन डॉक्टर्स को ट्रेंड करने के लिए कैदियों का और ज्यादा इस्तेमाल करना शुरू किया गया. किसी भी कैदी को कभी भी जेल से लाकर लैब में रख दिया जाता. फिर डॉक्टर्स जिंदा ही उस कैदी का कोई भी अंग काट देते. पहले हाथ, फिर पैर फिर गर्दन. इस तरह कैदी का एक एक अंग काटा जाता. एक डॉक्टर ने खुद ये बात बताई कि उन्हें एक कैदी को इस तरह काटने में 90 मिनट का समय लगता था.

कैदियों को यौन संबंध बनाने के लिए किया जाता मजबूर
फिर यहां शुरू हुआ सेक्सुअल इंफेस्टेशन का एक्सपेरिमेंट. इस एक्सपेरिमेंट में कैदियों को महिला कैदियों के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता. अगर कोई भी कैदी यह सब करने से मना करता तो उसे गोली मार दी जाती. इस डर से सभी कैदी ये सब करने के लिए हामी भर देते. लेकिन यहां उन्हें यौन संबंध बनाने से पहले उनके गुप्तांगों में एक वायरस डाला जाता. दरअसल, यूनिट 731 यह जानना चाहती थी कि सिफलिस जैसी सेक्सुअल ट्रांसमिटेड बीमारी आखिर फैलती कैसे है. इसके अलावा कई महिलाओं के शरीर में वायरस डालने के बाद उन्हें गर्भवती भी बनाया जाता था. ताकि यह देखा जा सके कि नवजात पर उस वायरस का क्या असर होता है. इस क्रम में तो कई महिलाओं की मौत भी हो जाती थी.

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बच्चों पर भी किए एक्सपेरिमेंट
आज भी माना जाता है कि कई बच्चे इस एक्सपेरिमेंट के बाद वहां पैदा हुए. लेकिन कोई भी वहां से जिंदा नहीं बाहर आ पाया. क्योंकि उनके साथ भी वहां खतरनाक एक्सपेरिमेंट ही किए गए. एक बहुत ही लंबे समय तक इस यूनिट ने खुफिया तरीके से अपना काम किया और किसी को भनक तक नहीं लगी. लेकिन फिर समय आया 2018 का. जब The Guardian ने इस यूनिट पर एक रिपोर्ट निकाली. दरअसल, जापान ने खुद इस रिपोर्ट को इन्हें दिया था. जब ये बात दुनिया के सामने आई तो इस यूनिट को लेकर कई सवाल उठे. कमाल की बात ये रही कि जो भी लोग इस यूनिट में काम कर चुके थे उन्होंने इन एक्सपेरिमेंट्स को लेकर हामी भरी और कहा कि हां यहां इस तरह के काम किए जाते थे.

कहां-कहां थीं इस यूनिट की ब्रांच
जानकारी के मुताबिक, इस यूनिट की मेन ब्रांच हार्बिन के पिंगफैंग जिले में स्थित थी जो कि अब चीन में है. इसकी और भी कई ब्रांच थीं, जिनमें लिंकोउ, मु़डनजियांग, सुनवु और हैलर शामिल थे. हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन सारी प्रयोगशालाओं में खतरनाक प्रयोग करने का काम रुक गया और ये जगहें वीरान हो गईं. अब इनमें से कई जगहों पर तो लोग घूमने के लिहाज से भी आते हैं.

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