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कॉफी से सिर्फ नींद नहीं खुलेगी... भविष्य में दिमाग के इलाज में मदद मिलेगी

कॉफी बनाते समय जो उसका वेस्ट यानी बचा हुआ हिस्सा होता है, अब उसका उपयोग दिमाग सही करने के लिए होगा. यानी दिमाग में मौजूद संचार प्रणाली सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए. यानी अब कॉफी पीकर नींद से जागिए और उसके वेस्ट से दिमाग को सही रखिए...

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Waste Coffee Grounds: बची हुई कॉफी करेगी दिमागी बीमारियों के इलाज में मदद. (फोटोः अनस्प्लैश)
Waste Coffee Grounds: बची हुई कॉफी करेगी दिमागी बीमारियों के इलाज में मदद. (फोटोः अनस्प्लैश)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • कार्बन इलेक्ट्रोड्स की जगह कॉफी इलेक्ट्रोड्स
  • कॉफी इलेक्ट्रोड्स की सटीकता तीन गुना ज्यादा
  • दिमाग की संचार प्रणाली का पकड़ते हैं आसानी से

सुबह-सुबह एक मग कॉफी पीते ही नींद गायब. तुरंत ही दिमाग दुरुस्त. आलस गायब. अब कॉफी की वजह से लोगों को खुश होने की एक और वजह मिलने वाली है. कॉफी बनाने के बाद जो बचा हुआ हिस्सा निकलता है. उसका उपयोग पर्यावरण को बचाने वाली इलेक्ट्रोड कोटिंग (Electrode Coating) के लिए किया जाएगा. ये कोटिंग दिमाग की रासायनिक विद्युत ऊर्जा को मापने के लिए उपयोग में लाई जाती है. 

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बेकार बची कॉफी से दिमाग की गतिविधियों को मापने वाले यंत्रों में उपयोग किया जा सकता है. इस तरह बची हुई कॉफी के उपयोग से बनाए गए यंत्रों के उपयोग की जानकारी वैज्ञानिकों ने हाल ही में अमेरिकन केमिकल सोसाइटी (ACS) में दी. इससे पहले बची हुई कॉफी का उपयोग पोरस कार्बन सुपरकैपेसिटर्स में ऊर्जा को संरक्षित रखने के लिए किया जाता था. लेकिन अब पीएचडी शोधार्थी और इस शोध की प्रमुख शोधकर्ता एश्ले रॉस ने कहा कि हम कॉफी वेस्ट को रिसाइकिल करके उसका अलग उपयोग करते हैं. 

कॉफी पीने से नींद तो खुलती ही है, इंसान काफी देर के लिए फ्रेश फील करता है. (फोटोः गेटी)
कॉफी पीने से नींद तो खुलती ही है, इंसान काफी देर के लिए फ्रेश फील करता है. (फोटोः गेटी)

एश्ले रॉस और उनकी टीम ने बची हुई कॉफी के पाउडर से कवर किए गए इलेक्ट्रोड दिमाग के अंदर बायोमॉलिक्यूल्स की पहचान कर लेते हैं. पहली बार ऐसा हुआ है कि जब इस तरह का प्रयोग किया गया है. कॉफी की मदद से दिमाग के अंदर होने वाली रासायनिक विद्युत ऊर्जा को मापने की व्यवस्था की गई है. एश्ले ने कहा कि हमने पोरस कार्बन में ऊर्जा संरक्षित रखने के पेपर्स देखे थे. फिर सोचा कि क्यों न इस पदार्थ को न्यूरोकेमिस्ट्री के लिए उपयोग किया जाए. तब यह आइडिया आया. एश्ले ने मजाक में हंसते हुए कहा कि साथ ही लैब के लिए ढेर सारी कॉफी खरीदने का मौका भी मिल जाएगा. 

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आमतौर पर न्यूरोसाइंटिस्ट जो पारंपरिक माइक्रोइलेक्ट्रोड्स का उपयोग करते हैं, वो कार्बन फाइबर से बने होते हैं. जिसमें बारीक, सॉलिड कार्बन के धागे आपस में बंधे होते हैं. इन्हें बनाने में काफी ज्यादा समय और पैसे लगते हैं. इसलिए ये काफी महंगे होते हैं. एश्ले और उनकी टीम ने बची हुई कॉफी के उपयोग से नए इलेक्ट्रोड्स बना दिए. एश्ले की स्टूडेंट काम्या लैप्सली ने कॉफी ग्राउंड्स को सुखाया. ट्यूब फर्नेस में पकाया. उसके बाद उसमें पोटैसियम हाइड्रोऑक्साइड सॉल्यूशन में डाला. इससे कार्बन एक्टीवेट हो गए. 

इसके बाद शोधकर्ताओं ने मिक्सर को दोबारा गर्म किया. वह भी नाइट्रोजन गैस के नीचे ताकि अवांछित तत्व बाहर निकल जाए. इसके बाद इसपर पोरस कार्बन की पतली परत चढ़ाई गई. यह इंसान के बाल के व्यास से 100 गुना ज्यादा पतला इलेक्ट्रोड बनकर तैयार हुआ. इसके जरिए दिमाग में होने वाले इलेक्ट्रोकेमिकल रिएक्शन की जांच करने के लिए इनका उपयोग किया गया. सटीकता का स्तर तीन गुना ज्यादा था. यानी भविष्य में इन इलेक्ट्रोड्स की मदद से इलाज संभव होगा. 

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