एक पुरानी कहावत है- बच्चन का हम छुअत नाहीं, जवनके हमार सग भाई. बुढ़वन का हम छोड़त नाहीं... चाहे ओढ़ै चार रजाई. असल में ये बात सर्दी के लिए कही जाती है. लेकिन इस कहावत का वैज्ञानिक मतलब नहीं है. सर्दियां आ चुकी हैं. ठंड लगनी शुरू हो चुकी है. ठंड लगने पर रोएं खड़े हो जाते हैं. खुले हुए अंग सुन्न पड़ जाते हैं. कान ठंडे हो जाते हैं. यानी हमें ठंड लग रही है. पर ये लगती क्यों है. कभी ज्यादा लगती है... कभी कम. पर क्यों? वजह क्या है इस प्राकृतिक प्रक्रिया की. आइए समझते हैं ठंड लगने के पीछे की साइंस को.
पहले तो यह गलतफहमी मन से निकाल दीजिए कि सबको एक बराबर ठंडी लगती है. किसी को कम लगती है. किसी को ज्यादा. किसी को लगती ही नहीं है. हर इंसान को ठंड उसके शरीर की आंतरिक क्षमता, रहन-सहन और खान-पान के अनुसार लगती है. शरीर के किस हिस्से पर ठंड सबसे पहले पता चलती है. तो जवाब है त्वचा यानी Skin.
जब पारा नीचे गिरता है तब शरीर के सबसे पहले सुरक्षा घेरे यानी त्वचा यह महसूस होता है. हमारी स्किन के ठीक नीचे थर्मो-रिसेप्टर नर्व्स (Thermo-receptors Nerves) होती है. ये दिमाग को तरंगों के रूप में मैसेज भेजती हैं. ये मैसेज यही होता है कि हमें ठंड लग रही है या नहीं. ये बेहद सामान्य सी फीलिंग होती है, जो हर इंसान के शरीर में अलग-अलग स्तर और तीव्रता पर बनती बिगड़ती है.
ठंड लगते ही पूरा शरीर खुद को संभालने में लग जाता है. यानी जब त्वचा से निकलने वाली तरंगें दिमाग के हाइपोथैलेमस में पहुंचती हैं, तब वह शरीर की अंदरूनी गर्मी और पर्यावरण का संतुलन बनाना शुरू करता है. इसी संतुलन बनाने की पहली प्रतिक्रिया होती है रोएं का खड़ा होना. क्योंकि उसके ठीक नीचे की मांसपेशियां सिकुड़ने लगती हैं. आपके शरीर पर मौजूद बाल की परत हमेशा आपको ठंड से बचाने में मदद करती है.
दिमाग में मौजूद हाइपोथैलेमस नर्वस सिस्टम को यह बताता है कि शरीर का पारा गिर रहा है. यह एक महत्वपूर्ण सूचना होती है. दिमाग को पता है कि हमारा शरीर तापमान गिरना बर्दाश्त नहीं कर सकता. अगर पारा नीचे गिरा तो कई अंग काम करना बंद कर देंगे. इससे इंसान की मौत हो सकती है. ज्यादा ठंड लगने से हाइपोथर्मिया हो जाता है. इससे मौत हो सकती है.
भले ही आपकी स्किन पर ठंड महसूस हो रही हो लेकिन दिमाग शरीर का तापमान गिरने से रोकता है. दिमाग पूरे शरीर को निर्देश देता है कि पारा गिर रहा है, इसे संतुलित करो. तब सारे अंग और मांसपेशियां अपने काम की गति को धीमा कर देते हैं. गति धीमी करने से मेटाबॉलिक हीट पैदा होती है. यह गर्मी शरीर के अन्य हिस्सों में न जाकर अपने आसपास के इलाकों को गर्म रखती है.
इसलिए ठंड लगने पर जब आपको कंपकंपी होती है, तो समझ लीजिए शरीर के अंगों ने अपना काम धीमा कर दिया है. ये इतना समझाने में जितना इस कहानी में लिखा गया है. उतना शरीर कुछ सेकेंड्स में कर देता है. कई बार यह कंपकंपी कई लहर में आती है. यानी शरीर बाहर की ठंडी के मुताबिक अंदरूनी गर्मी का संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है.
यहां पर एक प्रक्रिया और होती है. जब आप कांपते हैं तब आपकी खून की नसें सिकुड़ती हैं. सिकुड़ने से खून और उसकी गर्मी का बहाव धीमा हो जाता है. उन्हें ठंडी त्वचा तक जाने से रोकने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. इससे हर अंग की गर्मी उसके आसपास रहती है. इसलिए आप ठंड से सुरक्षित रहते हैं. आपको बाहर ठंड महसूस हो सकती है लेकिन आप अंदर से सुरक्षित रहते हैं. यह शरीर के तापमान का संतुलन बनाने के लिए बहुत जरूरी है.
अगर एकदम विपरीत परिस्थितियों की बात छोड़ दे. यानी आप कम गर्म कपड़ों के साथ किसी ठंडी जगह फंस गए हों. बर्फ में दब गए हों. लेकिन इसके अलावा हमारा शरीर कम तापमान के हिसाब से संतुलन बनाने लगता है. जैसे ही बाहर का तापमान हमारे शरीर के तापमान के आसपास पहुंचता है, हमें ठंड लगनी बंद हो जाती है. फिर हाइपोथैलेमस संदेश भेजता है कि मौसम बदल गया है. फिर दिमाग शरीर को मैसेज देता है कि अब सब कंट्रोल हैं. सही से काम करो.
ऐसे कई शोध पत्र हैं जो ये बताते हैं कि लिंग, उम्र और जीन्स पर भी यह निर्भर करता है कि किसे ज्यादा ठंड लगेगी. किसे कम. जैसे हर इंसान के जूतों का आकार अलग-अलग होता है, वैसे ही शरीर में ठंड लगने की तीव्रता या स्तर भी अलग होता है. उनकी ठंड महसूस करने की क्षमता भी अलग होती है. दावा तो यब भी है कि बुजुर्ग लोग तब तक नहीं कांपते, जब तक ज्यादा ठंडी न हो जाए. जबकि, युवा थोड़ी ही ठंड में कांपने लगते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि युवाओं की तुलना में बुजुर्गों द्वारा सर्दी महसूस करने की क्षमता उम्र के साथ कम होती जाती है.