डेनमार्क (Denmark) की ओडेंस यूनिवर्सिटी (University of Odense) में दुनिया के सबसे ज्यादा इंसानी दिमाग का कलेक्शन है. सारे के सारे दिमाग यूनिवर्सिटी की एक बेसमेंट में रखे गए हैं. इन दिमागों को पिछले चार दशकों से जमा किया जा रहा है. यानी पिछले 40 सालों से.
यहां पर कुल मिलाकर 9479 दिमाग रखे हैं, जिन्हें मरे हुए लोगों के शरीर से निकाल लिया गया था. क्या यहां पर कोई सीक्रेट एक्सपेरीमेंट चल रहा है? या फिर किसी तरह खास स्टडी. मकसद क्या है इसके पीछे वो भी बताएंगे. पहले ये जानिए कि ये दिमाग रखे कैसे गए हैं. इन दिमागों को फॉर्मेलीन (Formalin) में डुबोकर रखा गया है.
खास बात ये है कि हर दिमाग पर एक लेबल लगाया गया है, जिसपर कुछ नंबर डाले गए हैं. असल में ये दिमाग उन मृत लोगों के हैं, जो मानसिक रूप से बीमार थे. डेनमार्क के विश्व प्रसिद्ध साइकेट्रिस्ट एरिक स्ट्रोमग्रेन की ये लैब है. जहां पर वो मानसिक रोगियों के दिमाग की स्टडी कर रहे हैं. अलग-अलग मानसिक बीमारियों से परेशान होकर मरने वालों के दिमाग के अंतर को समझने का प्रयास कर रहे हैं.
दिमाग पर रिसर्च 1945 से शुरू हुई थी
मनोविज्ञान के इतिहास के जानकार जेस्पर वैक्जी क्राग ने बताया कि असल में इस तरह के प्रयोग की शुरुआत 1945 में हुई थी. यह एक तरह का प्रायोगिक रिसर्च है. एरिक स्ट्रोमग्रेन और उनके साथियों का मानना है कि वो मानसिक बीमारियों से संबंधित कोई नई जानकारी हासिल कर सकते हैं, जिससे ऐसे लोगों की भलाई के लिए नए मेडिसिन बनाए जा सकें. या फिर उन्हें ठीक करने का कोई रास्ता निकाला जा सके.
दिमाग के रहस्यों का खुलासा है मकसद
एरिक के एक्सपेरीमेंट के पीछे मकसद ये भी है कि वो दिमाग के गूढ़ रहस्यों को समझना चाहते हैं. इन दिमागों को उन लोगों के शरीर से निकाला गया है, जो मानसिक रूप से बीमार थे. दिमाग को पोस्टमॉर्टम के बाद अस्पताल से मांगा गया है. न कि अवैध रूप से चुराया या छीना गया हो. मरने वालों के परिजनों ने भी इस रिसर्च को लेकर कोई बाधा नहीं खड़ी की.
अस्पताल खुद भेजते हैं यूनिवर्सिटी में दिमाग
जेस्पर कहते हैं कि डेनमार्क में कई स्टेट हॉस्पिटल्स हैं, जहां पर ऐसे मरीजों का इलाज होता है. ये लोग मरते हैं तो वो अस्पताल इस संस्थान से संपर्क साधते हैं. पोस्ट मॉर्टम करने के बाद यूनिवर्सिटी को दिमाग दान कर देते हैं. यहां का समाज कहता है कि ऐसे मानसिक बीमार लोगों से समाज को बचाने के लिए उनके दिमाग पर स्टडी जरूरी है.
मानसिक बीमारों की नहीं थी समाज में कीमत
1929 से 1967 तक मानसिक रोगियों को स्टर्लाइज कर दिया जाता था. 1989 तक उन्हें शादी करने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होती थी. डेनमार्क में मानसिक रूप से बीमार लोगों को समाज पर बोझ माना जाता था. उन्हें बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं था. क्योंकि उनसे समस्याएं पैदा होने की आशंका थी. उस समय जितने भी मानसिक रोगी मरते थे, उनका पोस्ट मॉर्टम होता था.
कई तरह की बीमारियों वाले दिमाग रखे हैं यहां
जैसे-जैसे मरीजों के अधिकारों की बात होने लगी. मानसिक बीमारों के दिमागों को कलेक्ट करने की बात शुरू हुई. ये मामला है 1982 का. साल 2018 तक पश्चिमी डेनमार्क के आरहस में ये दिमाग रखे थे. बाद में इन्हें ओडेंस यूनिवर्सिटी में शिफ्ट कर दिया गया. यहां पर जिन मरीजों के दिमाग रखे हैं. वो डिमेंशिया, शिजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिस्ऑर्डर और डिप्रेशन जैसी बीमारियों के शिकार थे.
इस बेसमेंट के डायरेक्टर ने कहा कि पहले लोगों ने चर्चा और विवाद किया था, कि ऐसे मरीजों का दिमाग रखना मानवता के खिलाफ है. उनके अधिकारों के खिलाफ है. लेकिन अब कोई चर्चा नहीं करता. जब लोगों को पता चला कि यहां पर चला रहा एक्सपेरीमेंट समाज की भलाई के लिए है, तो वो शांत हो गए.