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सौरव गांगुली के पिता चंडीदास गांगुली एक अच्छे क्लब क्रिकेटर थे और इस खेल को लेकर बहुत जुनूनी थे. इसलिए घर पर हमेशा क्रिकेट की बातें होती रहती थीं. सौरव के पिता के तीन भाई थे. इसलिए घर में इतने सारे लोग होते थे कि गार्डन में टीम बनाकर क्रिकेट खेलने लगते थे. घर के सभी 6 भाई क्रिकेट खेलते थे. ज़्यादातर लोग लेफ़्ट हैंड से बैटिंग करते थे. उनकी देखादेखी सौरव ने भी 'उल्टे हाथ' से बल्लेबाज़ी शुरू कर दी. हालांकि बाकी सभी काम वो दाएं हाथ से ही करते थे.
सभी भाइयों में स्नेहाशीष गांगुली सबसे बेहतरीन प्लेयर था. सौरव से पांच साल सीनियर स्नेहाशीष ने बंगाल के लिए 6 फ़र्स्ट क्लास सेंचुरी मारीं. वहीं सौरव गांगुली सेंट ज़ेवियर कोलकाता कॉलेज में थे और क्रिकेट से कहीं ज़्यादा फ़ुटबॉल को तरजीह देते थे. लेकिन 13 साल की उम्र में सौरव को ज़बरदस्ती समर क्रिकेट कैम्प में भेज दिया गया. यहां उनकी इस खेल में थोड़ी रुचि जगी. लेकिन जब उन्हें बंगाल बनाम उड़ीसा के एक फ़्रेंडली अंडर-15 मैच में ईडेन गार्डन में खेलने का मौका मिला तो ये उनके जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. असल में सब कुछ इत्तेफ़ाकन हुआ. बंगाल की टीम में एक प्लेयर की कमी थी और इसी वजह से सौरव को टीम में जगह मिली. उन्होंने मैच में सेंचुरी मारी और उनके जीवन में फ़ुटबॉल की जगह क्रिकेट ने ले ली.
सौरव के ताऊ जी ने अपने लड़के स्नेहाशीष के लिये देबू मितरा को कोच के तौर पर रखा हुआ था. अब मितरा को दो लड़के कोच करने को मिल गए. घर में एक जिम बनवाया गया और घर के ही पास 2 कंक्रीट की पिचें ढलवाई गईं जहां दोनों भाई प्रैक्टिस किया करते थे. स्नेहाशीष बंगाल की रणजी टीम में जगह बना रहा था और दूसरी तरफ सौरव जूनियर क्रिकेट में नाम बना रहा था. जूनियर ग्रुप में राहुल द्रविड़, सचिन तेंदुलकर और अनिल कुंबले नाम के लड़के भी खेल रहे थे. गांगुली 1972 में पैदा हुए, तेंदुलकर 1973 में.
ये दोनों पहली बार 1987 में इंदौर में नेशनल कैम्प में एक साथ आए. एक साल बाद राजस्थान के पूर्व क्रिकेटर कैलाश गट्टानी द्वारा आयोजित एक प्राइवेट क्रिकेट टूर पर दोनों एक साथ इंग्लैंड गए. गांगुली इसके बारे में बताते हैं, “सचिन, राहुल, अनिल और मेरे बीच दोस्ती बहुत ही शुरुआत में शुरू हो गई थी और हम जैसे-जैसे इंटरनेशनल क्रिकेट खेलते गए, हमारी दोस्ती गाढ़ी होती गई.”
उस टूर पर तेंदुलकर और गांगुली ने पहली बार किसी मैच में ओपनिंग की थी. ससेक्स की जूनियर टीम बहुत तगड़ी थी. उन्होंने 270 रन बनाए थे और भारतीय टीम को 30 ओवर में उसका पीछा करना था. सचिन और गांगुली ने ओपनिंग करने के लिए अपने हाथ उठाए. वो गए और ससेक्स की बॉलिंग की धज्जियां उड़ा दीं.
लेकिन तेंडुलकर ने खेल में बहुत तेज़ी से कदम बढ़ाए. गांगुली जूनियर लेवल में खुद को साबित करने की कोशिश में लगे हुए थे और तेंडुलकर 16 साल में टेस्ट डेब्यू कर रहे थे. अगले साल, 1990 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अंडर-19 टीम के लिए गांगुली को चुना गया. पाकिस्तान की साइड में वक़ार यूनिस भी आये हुए थे. उनकी एक गेंद भारतीय खिलाड़ी के मुंह पर लगी और वो रिटायर्ड हर्ट हो गया. गांगुली आये और उन्होंने सेंचुरी मारी.
कुछ ही हफ़्तों में गांगुली बंगाल के लिए अपना पहला फ़र्स्ट क्लास मैच खेल रहे थे. और ये रणजी ट्रॉफ़ी का फ़ाइनल मैच था. बंगाल दूसरी बार रणजी ट्रॉफ़ी जीतने के सपने देख रहा था. इस मैच में उनके भाई स्नेहाशीष को आराम दिया गया और सौरव को उनकी जगह लाया गया. स्नेहाशीष कहते हैं कि फ़ाइनल में जगह न मिलने के चलते उन्हें काफ़ी निराशा हुई और इससे उबरने में उन्हें काफ़ी वक़्त लगा. खैर, फ़ाइनल मैच में सौरव ने दिल्ली की मज़बूत बॉलिंग के ख़िलाफ़ 22 रन बनाए और बिना एक भी विकेट लिए 6 ओवर फेंके. बंगाल ने मैच और ट्रॉफ़ी दोनों जीते.
साल भर बाद ही फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट में सौरव गांगुली ने अपनी पहली सेंचुरी मारी. ईस्ट ज़ोन के लिए खेलते हुए. इसी मैच में सौरव ने अपनी मीडियम पेस से 4 विकेट भी लिए. विल्स ट्रॉफ़ी के एक वन-डे मैच में वेस्ट ज़ोन के ख़िलाफ़ सौरव ने रवि शास्त्री को ऐसा छक्का मारा कि गेंद मुंबई के ब्रेबोर्न स्टेडियम में ऊंचाई पर लगी घड़ी पर जाकर लगी. शास्त्री उसकी बैटिंग से इतने प्रभावित हुए कि टाटा ग्रुप, जहां वो खुद काम करते थे, को जाकर सौरव के बारे में बताया. आने वाले सालों में सौरव गांगुली ने लेफ़्ट आर्म स्पिनर्स को तहस नहस किया. इस बारे में बात करते हुए सबसे पहले 2002 में लीड्स टेस्ट में एश्ले जाइल्स की हालत याद आती है. ये वो एक शय थी जो शास्त्री ने सौरव में बहुत पहले ही देख ली थी.
अब सौरव की इंडियन टीम में आने की बारी थी. 1991-92 में इंडिया के ऑस्ट्रेलिया दौरे के लिए उन्हें टीम में लिया गया. चार महीने का वो टूर एक बुरा सपना था. गांगुली एक रिज़र्व बैट्समैन के तौर पर गए थे. लिहाज़ा उन्हें ज़्यादा क्रिकेट खेलने को ही नहीं मिला. हां, ये अफ़वाह ज़रूर उड़ गयी कि वो बारहवें खिलाड़ी का काम, जैसे ड्रिंक्स ले जाना वगैरह, नहीं कर रहे थे. कहा गया कि उनका रवैया ठीक नहीं था. बताया गया कि वो सुस्त और अहंकारी खिलाड़ी हैं. 1992 की वर्ल्ड कप की टीम से उन्हें ड्रॉप कर दिया गया. वो वापस बंगाल के लिए क्रिकेट खेलने आ गए.
सौरव गांगुली का वनवास लगभग 4 साल तक चला. 1995-96 के बेहतरीन डोमेस्टिक सीज़न के बाद सौरव को दोबारा टीम इंडिया में बुलाया गया. इस बार इंग्लैंड दौरे के लिए. एक बार फिर उनके सेलेक्शन पर कई सवाल खड़े हुए. इस बार कहा जा रहा था कि क्रिकेट बोर्ड के सेक्रेटरी होने के नाते जगमोहन डालमिया ने अपनी ताकत का इस्तेमाल करके सौरव को टीम में घुसाया है.
1991-92 के ऑस्ट्रेलिया टूर की तरह 1996 में भी इंग्लैंड टूर पर सौरव एक रिज़र्व बल्लेबाज की तरह ही पहुंचे थे. अंतर ये था कि इस बार किस्मत उनके साथ थी. संजय मांजरेकर को चोट लग गई और सीनियर बैट्समैन नवजोत सिंह सिद्धू कप्तान अज़हरुद्दीन से लड़ाई कर सीरीज़ शुरू होने से ठीक पहले टीम से खुद ही निकल गए थे. इंडिया पहले टेस्ट में बुरी तरह से हार गई. अब टीम में नई पीढ़ी के बल्लेबाज लाए जा रहे थे. लॉर्ड्स टेस्ट में राहुल द्रविड़ और सौरव गांगुली अपने टेस्ट करियर की शुरुआत करने जा रहे थे. एक बेहद सुहाने सफ़र की शुरुआत होने जा रही थी जिसके पहले ही पड़ाव पर शतक लिखा हुआ था. क्रिकेट को ऑफ़ साइड का शानदार खिलाड़ी मिलने वाला था जिसने आने वाले समय में पूरे देश को आगे बढ़के छक्के मारने का रोमांच जीना सिखाया.