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इन बदलावों के बाद ओलंपिक में बदल जाएगी भारत की किस्मत!

भारत में खेल और खिलाड़ियों का ख्याल रखने के लिए एक अलग मंत्रालय है. स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया खेलों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है. खेल मंत्रालय को हर साल हजारों करोड़ का बजट आवंटित किया जाता है. सवाल उठता है कि ये पैसे आखिर खर्च कहां हो रहे हैं?

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इन बदलावों से भारत बनेगा ओलंपिक का HERO
इन बदलावों से भारत बनेगा ओलंपिक का HERO

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रियो ओलंपिक समाप्त हो चुका है. यूएस ने 121 मेडल जीतकर खेल के मैदान में भी अपना वर्चस्व बरकरार रखा. ब्रिटेन को कुल 67 और चीन को 70 मेडल प्राप्त हुए. वहीं इन सब के बीच भारत के हिस्से में सिर्फ 2 मेडल आए. इस बात को लेकर देश में जहां एक तरफ संतोष है कि साक्षी मलिक और पीवी सिंधु ने कम से कम भारत की झोली खाली नहीं रहने दी, वहीं इस बात को लेकर असंतोष भी है कि क्या सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश सिर्फ दो ही मेडल डिजर्व करता है? कोई खिलाड़ियों को कोस रहा है तो कुछ मंत्री जी के पीछे पड़े हैं. दरअसल, यह वक्त मंत्री जी या खिलाड़ियों को गाली देने का नहीं, बल्कि अपनी गलतियों को दुरुस्त करने का है. रातों रात ओलंपिक मेडल का सपना पूरा नहीं हो सकता, इसके लिए एक नहीं, कई चीजों को सही करने की आवश्यकता है.

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1. खेल प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने की जरूरत
भारत में खेल और खिलाड़ियों का ख्याल रखने के लिए एक अलग मंत्रालय है. स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया खेलों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है. खेल मंत्रालय को हर साल हजारों करोड़ का बजट आवंटित किया जाता है. सवाल उठता है कि ये पैसे आखिर खर्च कहां हो रहे हैं? क्या वो पैसा सही जगह पर लग भी रहा है? इस ओलंपिक में मेडल्स की संख्या देखकर तो यह लगता नहीं! ऐसा नहीं है कि ये समस्या आज की है. इससे पहले भी जितनी सरकारें रही हैं, किसी ने स्पोर्ट्स को कोई खास तरजीह नहीं दी. तो आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि यह देश क्रिकेट के अलावा कुछ और भी खेले. कई बार अलग-अलग एसोसिएशंस में भ्रष्टाचार की बू आई. क्या हमारे खेल मंत्रालय ने उस पर कार्रवाई की? क्या उससे सबक लिया? क्या खेल मंत्रालय का जिम्मा किसी ऐसे शख्स को सौंपा गया जिन्हें खेलों की जानकारी हो? ज्यादातर सवालों का जवाब शायद ना है.

2. खेल बजट बढ़ाने की जरूरत, ट्रेनिंग, कोचिंग और न्यूट्रीशन का जिम्मा उठाए सरकार
ये बात सच है कि आज भी लगभग आधा भारत कुपोषण का शिकार है. आधी से अधिक जनसंख्या ऐसी है जिसे शुद्ध और न्यूट्रीशियस खाना मयस्सर नहीं है. यूएस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, चीन की तुलना में हमारा फिजिक कमजोर है और हम उनसे कम्पीट नहीं कर पा रहे हैं. इसकी वजह यह है कि हमारे देश में एथलीट्स के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो प्रॉपर डाइट प्लान को फॉलो कर पाएं. ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वो खेल बजट को बढ़ाए, ताकि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के खाने पीने से ट्रेनिंग तक का जिम्मा उठाया जा सके. बजट बढ़ने से खिलाड़ियों की फैसिलिटीज को बेहतर किया जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कोच रखे जा सकते हैं जिनकी निगरानी में हमारे एथलीट्स तैयारी कर सकते हैं.

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3. स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया को नींद से जागना होगा
जब-जब ओलंपिक या कोई बड़ा इवेंट आता है तब-तब हमारे एसोसिएशंस की नींद खुलती है. फिर अफरातफरी और आनन-फानन में एथलीट्स की तलाश शुरू हो जाती है. ओलंपिक में खराब प्रदर्शन के बाद दो-चार गालियां सुनकर स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया फिर से कुम्भकर्ण की नींद सो जाता है. दरअसल इस ढिलाई को दूर करने की आवश्यकता है. अगर भारत को खेल जगत में कुछ अच्छा करना है देश में स्पोर्ट्स कल्चर डेवेलप करना आवश्यक है. इसके लिए खेल मंत्रालय को स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया पर कड़ी नजर रखनी होगी कि क्या राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर खिलाड़ियों के लिए माकूल इंतजाम किये जा रहे हैं? क्या निचले स्तर पर खिलाड़ियों तक सुविधाएं पहुंच रही हैं? काम सिर्फ एसी कमरों में बैठकर नहीं होगा, प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए गावों और छोटे शहरों तक पहुंच बनानी होगी.

4. स्कूल और कॉलेज स्तर पर स्पोर्ट्स को तरजीह देनी होगी
आज के समय में खेल भी करियर बनाने का एक बहुत बड़ा मौका बन चुका है. एक समय था जब कॉलेजों से राष्ट्रीय स्तर के बड़े खिलाड़ी निकलते थे लेकिन आज वो परंपरा लगभग ख़त्म होती सी दिखाई दे रही है. स्कूल और कॉलेजों में स्पोर्ट्स के प्रति छात्रों को प्रोत्साहित करना होगा. ज्यादातर स्कूलों में आजकल सिर्फ क्रिकेट को ही स्पोर्ट्स माना जाता है, इस सोच को बदलने की जरूरत है. स्कूल और कॉलेज वो प्लेटफार्म है जहां से अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्टार की तलाश को पूरी की जा सकती है. स्कूल और कॉलेजों में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी और टेनिस के साथ साथ एथलेटिक्स, रेसलिंग, शूटिंग, स्विमिंग, जिमनास्टिक और ट्रैक एंड फील्ड जैसे अन्य इवेंट्स को भी बढ़ावा देना होगा. इसके लिए हर स्कूल में स्पेशलिस्ट स्पोर्ट्स एजुकेशन टीचर के अपॉइंटमेंट की आवश्यकता है.

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5. सब कुछ सरकार पर नहीं छोड़ सकते, स्पोर्ट्स को बनाना होगा जीवन का अहम हिस्सा
हमारे हिंदुस्तान की अजीब विडंबना है कि यहां एक मिडिल क्लास फैमिली भी अपने काम खुद से करने में अपनी तौहीन समझता है. अगर किसी को एक गिलास पानी चाहिए, तो वो उनका नौकर लाकर देगा. वो खुद शारीरिक मेहनत नहीं कर सकता. यह मानसिकता बदलने की आवश्यकता है. यह बात बिलकुल सच है कि हर इंसान भारत के लिए नहीं खेल सकता, लेकिन क्या खुद को फिट रखने में कोई बुराई है? अगर हर शख्स सिर्फ अपनी फिटनेस के लिए ही खेलों को अपने दिनचर्या का हिस्सा बना ले तो आने वाली पीढ़ी खुद मजबूत और स्वस्थ हो जाएगी. खेलों की बदहाल स्थिति को बदलने के लिए स्पोर्ट्स कल्चर डेवेलप करना आज के समय की मांग है. साथ ही साथ स्वयंसेवी संगठन और अन्य सामजिक संगठनों को खेल के प्रति युवाओं की रुची जगाने के लिए निचले स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी. गांवों, कस्बों और शहरों में छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित करनी होगी. फैसिलिटीज और पहचान का आभाव होने के बाद भी रियो ओलंपिक में कई खिलाड़ी गुमनाम गांव या छोटे शहर से आए.

कहते हैं बदलाव रातों रात नहीं आती. इसके लिए सालों साल मेहनत की जरूरत होती है. अगर आज सरकारें, एसोसिएशंस, संस्थाएं और हम मिलकर मेहनत करें तो शायद आने वाले कुछ ही सालों में भारतीय खेलों की किस्मत बदल जाएगी. भारत में एक बड़ी मशहूर कहावत है 'पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे ख़राब', साक्षी मलिक और पीवी सिंधु पर करोड़ों की धन वर्षा ने इस बात को बेतुका साबित कर दिया है.

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