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रियो ओलंपिक: योगेश्वर दत्त हैं दंगल के दबंग

योगेश्वर दत्त को सुल्तान की रूमानियत के लिए फुर्सत नहीं. वे अखाड़े की विरासत और आधुनिक तौर-तरीके से लैस होकर जा रहे हैं रियो.

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योगेश्वर दत्त
योगेश्वर दत्त

योगेश्वर दत्त
33 वर्ष, कुश्ती
पुरुष फ्रीस्टाइल 65 किलो वर्ग

कैसे क्वालीफाइ कियाः 19 मार्च, 2016, अस्ताना
उपलब्धियाः कॉमनवेल्थ खेलों में 2 स्वर्ण पदक, एशियाई खेलों में 1 स्वर्ण पदक
पिछला ओलंपिकः 2012 के लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक


एक अजीब-सी शख्सियत हैं योगेश्वर दत्तः वे खतरनाक हैं तो कुछ हद तक बेहद संवेदनशील भी. शायद उनके चौड़े कंधे, गठा हुआ सीना और पीठ उनकी पतली कमर से मेल नहीं खाती. महज 5 फुट 7 इंच के योगेश्वर रियो जाने वाले सबसे ऊंचे कद के भारतीय पहलवान हैं जो कुश्ती दल का नेतृत्व करेंगे. कुश्ती अकेली ऐसी व्यक्तिगत स्पर्धा है जिसमें ओलंपिक खेलों में देश की विरासत है.

कुश्ती सदियों से भारत में जीवन का अंग रही है. पुराने जमाने में पहलवान शाही दरबार में अपने हुनर दिखाते थे और प्रतिद्वंद्वियों को धोबी पछाड़ देकर वाहवाही के साथ ही इनाम भी जीतते थे. आज इन दरबारों की जगह ले ली है चंदगी राम और सतपाल सिंह ने जिनके मिट्टी के अखाड़ों ने कुश्ती के पुराने दांव-पेचों को जिंदा रखा है.

चंदगी राम ने 1970 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता और म्यूनिख 1972 में भाग लिया. 2010 में उनकी मृत्यु हो गई. सतपाल अब भी दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में युवा पहलवानों को प्रशिक्षित करते हैं. उन्होंने 1980 के मॉस्को ओलंपिक में हिस्सा लिया था और 1982 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता था. भारत का पहला व्यक्तिगत ओलंपिक मेडल भी कुश्ती में ही आया था जिसे खाशाबा दादा साहेब जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में जीता था. 44 साल बाद अटलांटा ओलंपिक में टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने बरसों से तरसती आंखों को पदक का नूर थमाया.

लिहाजा, आज योगेश्वर के कंधों पर इतिहास की आस पूरी करने और नई उम्मीद भरे इस दौर में भारतीय खेलों में कुश्ती की अहमियत बरकरार रखने का जिम्मा है. योगेश्वर भली-भांति जानते हैं कि अपने अनुशासन और मूल्यों की वजह से ये अखाड़े किस तरह नई प्रतिभाओं के लिए नर्सरी का काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इस बात का भी बखूबी अंदाजा है कि मौजूदा समय में ओलंपिक पदक जीतने के लिए क्या बातें जरूरी हैं और किस तरह का अभ्यास लाजिमी है.

सोनीपत में भारतीय खेल प्राधिकरण के एक प्रशिक्षण शिविर के दौरान वे बेबाकी से पूछते हैं, ''आपने सुल्तान देखी है?...इसमें बहुत बातें एकदम बकवास हैं." एक भारतीय पहलवान की जिंदगी पर बनी सलमान की फिल्म, जो बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ रही है, को खारिज करते हुए योगेश्वर कहते हैं, ''आप बैलों से खेत जोतकर या ईंटों के बोझ के साथ सीढिय़ां चढ़कर आधुनिक ओलंपिक की तैयारी नहीं कर सकते. आपको आज के खेल की जरूरतों और मांग को समझना होगा. 1940 के दशक के ये नुस्खे अब किसी काम के नहीं."

मिसाल के तौर पर योगेश्वर दत्त क्षमता बढ़ाने के लिए अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि से अलग एक हाइपॉक्सिक चैंबर में अभ्यास करते हैं जिसमें 3,200 मीटर तक की ऊंचाई का एहसास पाया जा सकता है और प्रशिक्षण किया जा सकता है. 2013 में योगेश्वर को काफी चोट लगी थी, फिर 2015 में भी उन्हें कई बार चोट लगी. वे अपने प्रशिक्षकों के कार्डियो और भार आधारित प्रशिक्षण को बारी-बारी से करते हुए एक बार फिर शारीरिक रूप से वही दमखम हासिल कर चुके हैं. चोटों के इसी दौर में जब उनकी फिटनेस पर संदेह होने लगा था, उन्होंने 2014 में इंचियॉन एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर ओलंपिक खेलों में पदक जीतने की उक्वमीदों को फिर से पंख लगा दिए हैं.
योगेश्वर कहते हैं, ''जब मैंने लंदन में कांस्य पदक जीता, मेरा मन उचाट था. मानो कुछ नहीं हुआ. कुछ कमी लग रही थी. लोग आए और मुझे बधाइयां दीं और मैंने मेडल दिखाया. लेकिन मेरे लिए सब बेमानी था. कोई नहीं जानता कि रियो में क्या होगा, लेकिन मैं हमेशा सोना ही जीतना चाहता हूं."

योगेश्वर और दो ओलंपिक पदक जीतने वाले सुशील कुमार के नाम पर बने सोनीपत कुश्ती हॉल में प्रशिक्षण के दौरान योगेश्वर के फोन की घंटी बजती है, जिसमें वीर रस वाली कविता की धुन सुनाई देती है. योगेश्वर की गिनाहें बार-बार दीवार पर टंगी उस यादगार तस्वीर की ओर जाती है जिसमें वे लंदन ओलंपिक में पोडियम पर खड़े पदक को चूम रहे हैं. फिलहाल उनकी दाहिनी आंख के ऊपर इतनी सूजन है कि आंख दिख ही नहीं रही है.

योगेश्वर कहते हैं, ''मैट पर जैसे ही आप अपने प्रतिद्वंद्वी की आंखों में आंखें डालते हैं, आपको तुरंत पता चल जाता है कि आप उससे जीत सकते हैं या नहीं." अपने विचारों से बाहर निकलते हुए वे कहते हैं, ''मैं चाहता हूं कि इस बार प्रतिद्वंद्वी मेरी आंखों को देखकर समझ जाए कि मैं जीतने के लिए आया हूं."

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