लगभग दो दशक तक राष्ट्रीय कोच रहने के बाद गुरबक्श सिंह संधू लंदन ओलंपिक खेलों के बाद पद छोड़ देंगे और वह चाहते हैं कि विदाई तोहफे के रूप में उनका शिष्य विजेंदर सिंह उन्हें चार साल पहले बीजिंग में जीते कांस्य पदक से बेहतर पदक लाकर दे.
संधू के कार्यकाल के दौरान ही भारत को विजेंदर के रूप में पहला ओलंपिक पदक विजेता मुक्केबाज मिला था.
वर्ष 1993 में सीनियर राष्ट्रीय कोच नियुक्त हुए संधू ने कहा कि इस बार ओलंपिक में हिस्सा ले रही सात मुक्केबाजों की भारतीय टीम अगर बीजिंग के एक कांस्य पदक के अपने प्रदर्शन में सुधार करती है तो वह संतुष्ट होकर अपने पद को अलविदा कहेंगे.
संधू ने कहा, ‘मैं वैसे भी अगले साल एनआईएस कोच के पद से सेवानिवृत्त हो जाता क्योंकि मेरी उम्र 60 बरस हो जाएगी. लेकिन वैसे भी मैं लंदन से आगे अपने पद पर नहीं बना रहना चाहता था. उम्मीद है कि इस बार प्रदर्शन पिछली बार से बेहतर रहेगा. मैंने अपने करियर का पूरा लुत्फ उठाया और मैं काफी संतुष्ट इंसान हूं.’
उन्होंने कहा, ‘इस साल भारतीय मुक्केबाजी महासंघ के भी चुनाव होने हैं और यह उनका फैसला होगा कि मैं राष्ट्रीय कोच बना रहूं या नहीं लेकिन निजी तौर पर मैं लंदन खेलों के बाद अपना पद छोड़ना चाहता हूं.'
वर्ष 1978 में पहली बार कोचिंग की जिम्मेदारी संभालने वाले संधू ने भारतीय मुक्केबाजी में काफी उतार चढ़ाव देखे और देश में इस खेल ने जिस तरह तरक्की की उससे वह भी कभी कभी हैरान हो जाते हैं.
संधू ने कहा, ‘एक समय ऐसा था जब लड़कों के पास साइकिल भी नहीं होती थी लेकिन आज वे विदेशी कारों में घूमते हैं. इस बदलाव को देखकर मुझे काफी खुशी होती है. ये लड़के पदक ही नहीं जीत रहे बल्कि वित्तीय तौर पर अपने भविष्य को भी सुरक्षित कर रहे हैं जिसका मतलब है कि यह खेल यहां से आगे ही बढ़ेगा.’
संधू ने कहा कि मुक्केबाजी में हाल में मिली सफलता उनके और सहायक कोचों जयदेव बिष्ट, सी कुटप्पा और रामानंद तथा क्यूबा के कोच बी आई फर्नांडिज और सहायक स्टाफ के सामूहिक प्रयासों का नतीजा है.