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अरुणिमा सिन्हा ने कैसे एवरेस्ट फतह किया...

हिमालय की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने वाली अरुणिमा सिन्हा जुनून को एवरेस्ट से भी बड़ा मनती हैं. उनका जुनून ही है, जिसने बायां पैर न रहते हुए भी उन्हें एवरेस्ट की ऊंचाई छूने में कामयाबी दिलाई. पेश है, उनकी बहादुरी और कामयाबी की दास्तान उन्हीं की जुबानीः

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अरुणिमा सिन्हा
अरुणिमा सिन्हा

हिमालय की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर विजय पताका फहराने वाली अरुणिमा सिन्हा जुनून को एवरेस्ट से भी बड़ा मनती हैं. उनका जुनून ही है, जिसने बायां पैर न रहते हुए भी उन्हें एवरेस्ट की ऊंचाई छूने में कामयाबी दिलाई. पेश है, उनकी बहादुरी और कामयाबी की दास्तान उन्हीं की जुबानीः

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'मैं सफलता के आसमान पर हूं, एवरेस्ट के ऊपर हूं. मैं जो चाहती थी वह मैंने पाया है. मेरे पैरों ने भी मेरा पूरा साथ दिया. क्या हुआ जो मेरे पास मेरा अपना बायां पैर नहीं है. पराए पैर ने पराएपन का अहसास तक नहीं होने दिया. एक पैर क्या, मेरे पास और भी कुछ न होता तब भी मैं यहीं पर होती. ऊंचाई ही मुझे पुकारती है, मेरे बुलंद इरादों को कोई छू भी नहीं सकता, मुझे कोई रोक भी नहीं सकता.

मैं वॉलीबॉल-फुटबॉल खेलना चाहती थी, हॉकी चैंपियन बनना चाहती थी, लेकिन मेरी कटी हुई टांग ने मुझे नियम-कानून से बंधे खेलों में जाने से रोक दिया. लोग कहते हैं कि कानून पैरों में बंधी हुई बेड़ियों के समान होते हैं, मेरे पास तो एक पैर भी नहीं था, लेकिन पर्वत पर चढ़ने से मुझे कौन रोक सकता था.

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जब मैंने पहली बार एवरेस्ट फतह करने की अपने दिल की इच्छा जताई थी तो लोगों ने कैसा मजाक उड़ाया था. आज वे ही लोग देख लें कि मैं कहां पर हूं. अरे, पैरों से चलकर मंजिल मिलती होती तो अरबों लोग अपनी मंजिलों पर पहुंच गए होते, यह तो हौसला होता है जो आपको कहीं भी पंहुचा देता है. जैसे मैं आज यहां पर हूं श्वेत बर्फ से ढकी पहाड़ियों और स्वच्छ नीले आकाश के नीचे, जय बजरंगबली!

नाम मेरा है अरुणिमा सिन्हा. मुझे लोग सोनू भी कहते हैं. मैं बहुत प्रसिद्ध नहीं हूं लेकिन दो साल पहले मेरे साथ जो हादसा हुआ था, उससे मुझे पहचान मिली. वह पहचान कोई नेकनामी वाली नहीं थी और न ही मैंने कोई अच्छा काम किया था. वह बदनामी थी. मगर मेरी क्या गलती थी?

मैं उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर जिले के क्षेत्राना (शाजादपुर) मोहल्ले की हूं. सच तो यह है कि हम लोग मूलत: बिहार के हैं. पिता फौज में थे और हम लोग सुल्तानपुर आ गए थे. लेकिन जब मैं चार साल की थी, तभी मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया. मेरा एक छोटा भाई है और बड़ी बहन लक्ष्मी. आप समझ सकते हैं कि बिना पिता के परिवार की क्या हालत होती है.

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मेरी मां अंबेडकरनगर आ गईं और स्वास्थ्य विभाग में उन्हें नौकरी मिल गई. किसी तरह जीवन की गाड़ी आगे बढ़ने लगी. मुझे भी पढ़ाई के लिए स्कूल भेजा गया लेकिन मुझे खेलने में ज्यादा मन लगता था, हमारे समाज में लड़कियों को घर के काम में निपुण करने की परंपरा है, खेलने वाली लड़कियां कम ही दिखाई पड़ती हैं. लोगों ने मना भी किया लेकिन मैं कहां मानने वाली थी. मेरी मां भी मुझे नहीं टोकती थी और मेरी मां जैसी दीदी लक्ष्मी तो जैसे मेरे पीछे दीवार बनकर खड़ी रहती थीं.

मैंने फुटबॉल, वॉलीबॉल और हॉकी खेली. हॉकी खेलने के लिए स्टिक लेकर जब निकलती थी तो मोहल्ले के लड़के कहां बाज आने वाले. वे मेरी खिल्ली उड़ाते थे. कहते थे, देखो जा रही है झांसी की रानी बनकर खेलने, बड़ी आई स्टिक लेकर चलने वाली. मैं वैसे तो लड़कों की परवाह भी नहीं करती थी, लेकिन जब बात अखरने वाली लगती थी तो मैं घूरकर उनकी तरफ देखती थी, तो वे उड़न छू हो जाते थे.

मुझे याद है कि एक बार जब मैं 14 बरस की रही होऊंगी और साइकिल से हम दोनों बहनें कहीं जा रहे थे तो एक जगह पर लक्ष्मी दीदी रुककर किसी से बात करने लगीं और मैं थोड़ा आगे निकलकर वहां पर उनका इंतजार करने लगी. उस दौरान कुछ लड़के साइकिल से उधर से गुजरे तो मुझसे रास्ता छोड़ने को कहा. मैंने मना कर दिया और कहा कि आगे जगह है, उधर से निकल जाओ.

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वे अपनी बात पर अड़े रहे और मैं अपनी बात पर. इस बीच जब लक्ष्मी दीदी आ गईं और हम चलने लगे तो किसी लड़के ने झापड़ मारा जो मेरी दीदी के गाल पर लग गया. भीड़ का लाभ उठाकर लड़के भाग गए. दीदी के गाल पर चांटा देखकर मुझे बहुत क्रोध आया. मैंने दीदी से कहा कि चलो उस लड़के को ढूंढ़कर सबक सिखाते हैं. दीदी ने मना किया लेकिन मेरे ऊपर तो जैसे चंडी सवार थी. हम दोनों उन लड़कों को काफी देर तक तलाशते रहे और घूम-फिर कर उसी जगह आ गए. वहां पर पान की दुकान पर खड़े एक लड़के की शर्ट का कालर देखकर दीदी ने कहा कि यही वह लड़का है. बस फिर क्या था, मैंने दौड़कर उस लड़के को दबोच लिया और दीदी से कहा, 'मार दीदी, छोड़ना नहीं.'

भीड़ लग गई, काफी बवाल हुआ लेकिन मैंने छोड़ा नहीं. अंत में उस लड़के के घर वाले आए और माफी मांगी तब जाकर मैंने उसे छोड़ा. उसके बाद फिर किसी ने मेरी तरफ या मेरी दीदी की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखा. लक्ष्मी दीदी की शादी हो गई लेकिन मेरे प्रति उनका इतना प्यार रहता है कि वह ससुराल से ज्यादा मायके में ही रहती हैं और मेरी और मेरी मां-भाई की मदद करने के लिए हमेशा जान दिए रहती हैं. मेरे जीजा ओम प्रकाश जी भी हमारे लिए देवता की तरह हैं. बजरंगबली ने उन्हें जैसे हमारे लिए ही बनाया था. उन्हीं की छत्रछाया ने मुझे मेरा सपना पूरा करने में मदद की है.

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मैंने इंटर किया, एलएलबी किया लेकिन खेलना मेरे लिए जुनून के समान ही था. मैंने आस-पास के जिलों में वॉलीबॉल-फुटबॉल खेला, कई पुरस्कार जीते, लेकिन मेरा जुनून बढ़ता ही गया. मैंने राष्ट्रीय स्तर पर भी खेलों में भाग लिया लेकिन मुझे मेरा हक नहीं मिला. मेरे पास हाथ-पैर थे, जुनून था लेकिन कोई सीढ़ी नहीं थी, कोई छत नहीं थी जो मुझे आगे बढ़ने देती, मुझे महफूज रखती.

मैंने सोचा कि कहीं पर नौकरी कर लूं ताकि उसी के साथ आगे बढ़ती जाऊं. कई जगह फार्म डाले. सीआईएसएफ में भी कोशिश की और एक दिन नोएडा में सीआईएसएफ के दफ्तर में जाने के लिए घर से निकल पड़ी, अकेली.

वह दिन था 11 अप्रैल 2011 का। मुझे नहीं मालूम था कि मेरी दुनिया बदलने जा रही है. पद्मावती एक्सप्रेस ट्रेन के चालू डिब्बे में खिड़की के किनारे एक सीट पर बैठी रात के अंधेरे में जुगनू जैसी किसी रोशनी की तलाश कर रही थी कि तभी कुछ 'लोफर टाइप' के लड़के आए और उन्होंने मेरे गले में पड़ी चेन पर झपट्टा मारा. मुझे हंसी आ गई. इन लड़कों की क्या औकात कि मुझसे मेरी चीज छीन लें? मैंने लड़के का हाथ पकड़कर मरोड़ दिया. लेकिन तभी दूसरे लड़के ने मेरे गले में हाथ डाला तो मेरे गरदन हटा लेने पर उसके हाथ में चेन की जगह मेरी शर्ट का कालर आ गया. उसने कालर पकड़कर घसीटा और दो-तीन लड़कों ने मुझे पकड़कर दरवाजे के पास खींच लिया.

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मेरे लिए उनसे निबटना मुश्किल काम नहीं था लेकिन तभी लड़कों ने मेरे ऊपर ऐसी लात मारी कि मैं चलती ट्रेन से बाहर गिट्टियों के बीच लोटती सी नजर आई.. पता नहीं क्या हुआ, मुझे कुछ पता नहीं कि मेरे पैर के ऊपर से ट्रेन के कितने पहिए गुजरते चले गए. वे पहिए पद्मावत एक्सप्रेस के थे या दूसरी पटरी के ऊपर से गुजरने वाली ट्रेनों के? उस समय रात के डेढ़ बजे थे और ट्रेन बरेली के पास थी. लेकिन कुछ सोचने-समझने से पहले दर्द के आवेग ने मुझे बेसुध कर दिया.

बीच-बीच में मेरी तंद्रा टूटती तो देखती कि मैं ट्रेन की पटरियों के किनारे पड़ी हूं, मेरी एक टांग कट गई थी बस कुछ मांस भर ने उसे मेरे शरीर से जोड़े रखा था. बगल की पटरी से रह-रहकर ट्रेनें गुजर रही थीं. पटरी और मेरे बीच मात्र कुछ इंचों का ही फासला था. मैं अपने को पटरी से दूर करना चाहती थी लेकिन मेरे पास इतना दम कहां था, उस पर भीषण दर्द. मैं उस बीहड़ रात में उसी तरह पड़ी रही. जब मुझे होश आता तो बजरंगबली को याद करके यही कहती कि जय बजरंगबली. यह क्या हो रहा है मेरी जिंदगी के साथ, और अब क्या शेष रह गया है होने को? आंखों के सामने कभी मां की तस्वीर आती तो कभी भाई तो कभी लक्ष्मी दीदी की तो कभी जीजा की.

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पौ फटने पर जब लोग शौच के लिए रेलवे की पटरियों की तरफ आए तो मुझे पड़ा पाया. गांव वाले आए. मेरा नाम-पता पूछा. शायद आधी बेहोशी में मैंने घर का टेलीफोन नंबर बता दिया था. जीजा ने उनसे कहा कि इतनी मदद और कर दीजिए कि अरुणिमा को किसी अस्पताल तक पंहुचा दीजिए.

सुबह के सात बजे के करीब मुझे अस्पताल पंहुचाया गया. मेरी बाईं टांग काट दी गई. मीडिया द्वारा शोर मचाने पर मुझे लखनऊ के ट्रॉमा सेंटर में भर्ती कराया गया. वहां से फिर मुझे एम्स ले जाया गया. डाक्टरों ने मुझे बचा लिया. सीआईएसफ ने नौकरी देने की घोषणा की. तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने भी नौकरी देने की घोषणा की. तत्कालीन खेल मंत्री अजय माकन ने काफी राहतें दीं.

समाज को ये बातें हजम नहीं हुईं. इलाज के साथ ही विवाद भी शुरू हो गया कि मैं राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी नहीं हूं. मैंने इंटर भी पास नहीं किया है. मैं किसी के साथ भाग रही थी. मेरी शादी हो चुकी है. मैंने किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया. मैं झूठी हूं, फरेबी हूं. यूपी के एडीजी रेल ए.के. जैन ने तो बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके मुझे झूठा साबित किया और कहा कि मैंने ट्रेन से कूदकर आत्महत्या की कोशिश की थी या फिर मैं उस बीहड़ सुनसान इलाके में अकेले आधी रात को रेलवे लाइन पार कर रही थी, जब यह दुर्घटना घटी.

मैंने गुस्से में ए.के. जैन को फोन लगाकर खूब सुनाया कि क्या आपका कोई सिपाही ट्रेन में मौजूद था जो बताता कि उस दिन ट्रेन में मुझे लूटने की कोशिश नहीं की गई थी? क्या रातभर पटरियों पर पड़े होने के बावजूद जीआरपी ने मेरी कोई मदद की? मन करता था कि मैं ए.के. जैन के पास जाकर उनका मुंह नोच लूं.

एम्स में मेरी मां, मेरी बहन और जीजा ने मुझे समझाया कि और लड़कियों के साथ क्या-क्या नहीं होता, लोग तेजाब तक डाल देते हैं, तुम्हारा तो बस एक पैर ही गया है, अब आगे की योजना बनाओ. बहन की प्रेरणा ने मेरे मन में यह बात ला दी कि कुछ ऐसा करूं जिसे दुनिया देखे. क्यों न एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं? बिना पैर के एवरेस्ट पर चढ़ना ही मुझे सबसे बेहतर विचार लगा. असली चुनौती यही है.

आसान काम तो हर कोई कर लेता है. मेरी मुश्किल को आसान कर दिया अमेरिका निवासी डा. राकेश श्रीवास्तव और उनके भाई शैलेश श्रीवास्तव ने जो इनोवेटिव नाम से एक संस्था चलाते हैं. उन्होंने मेरे लिए एक कृत्रिम पैर बनवाया जिसको पहनकर मैं चलती हूं.

मुझे अजय माकन ने इतनी सहूलियतें दीं और वह भी तब, जब उत्तर प्रदेश की सरकार मुझे मुल्जिम बताने के लिए उतारू थी और मीडिया मेरे पीछे पड़ गया था. खिलाड़ियों का संगठन 'साई' भी मुझे खिलाड़ी नहीं मानता था. मैं चीख-चीख कर कहा करती थी कि 'मैं जिंदा हूं, मुझसे आकर पूछो, मैं झूठी नहीं हूं.'

लेकिन मुसीबतों और परीक्षाओं का अंत अभी नहीं हुआ था. चार महीने एम्स में गुजारने के बाद जब मैं वापस लौटी तो मेरी बदनामी मेरा पीछा कर रही थी. मुझे विकलांगता का प्रमाण पत्र मिल गया था और रेल से पास भी. लेकिन मुझे ट्रेन के सेंकड क्लास की आरक्षित बोगी में चलने के लिए टिकट नहीं मिलता था. मुझे दौड़ाया जाता, शक किया जाता. मेरे लिए विकलांग बोगी में चलना भी अपमान के कड़वे घूंट पीने के समान ही था.

आरपीएफ के सिपाही मेरी टांग खुलवाकर देखते और फिर पास मांगकर उसकी जांच करते. एक बार तो हरिद्वार में जब मुझे टिकट नहीं मिला तो स्टेशन मास्टर ने बहुत मदद की. उन्होंने काउंटर क्लर्क से टिकट देने को कहा लेकिन उसने कहा कि उसे मेरे पास पर उसे शक है. उसमें हस्ताक्षर ठीक नहीं हैं. अंत में स्टेशन मास्टर ने अपने दम पर मुझे जबरदस्ती ट्रेन में बैठाया.

ममता बनर्जी ने नौकरी देने की घोषणा की थी. जब मैं कृत्रिम टांगों से चलकर रेल मंत्रालय पंहुची तो उनके पीए ने मिलाने से मना कर दिया. तीन बार निराश होकर मैं लौट आई. रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष विवेक सहाय से मिलने में मैं किसी तरह कामयाब हो गई तो उनका जवाब सुनकर हैरत हुई. उन्होंने सारे कागजात देखे और फिर कहा कि पहले जीआरपी से बढ़िया सी रिपोर्ट लगवाकर लाओ. ये थी रेलवे के मंत्री और अध्यक्ष की मानवीयता.

मैंने हिम्मत नहीं हारी. कहा कि इन सबको अपनी ताकत दिखाऊंगी, ये सब मुझे पहचानेंगे और खुद चलकर मेरे पास आएंगे. मुझे बछेंद्री पाल ने काफी प्रोत्साहित किया. उन्हीं के प्रशिक्षण की बदौलत मैं आज आसमान के इतने करीब हूं. मैं माउंट एवरेस्ट की चोटी पर हूं जहां पर हर कोई नहीं पंहुच पाता है. ऐसा लगता है कि बस हाथ उठाऊं और छू लूं.

मुझे बुखार आ गया और नीचे भी लौटना था उस दुनिया में जो नहीं चाहती थी कि मैं यहां तक पहुंचूं. लेकिन कुछ लोग थे जिनका मेरे पर विश्वास था और उन्हीं के भरोसे मैं यहां तक पहुंची हूं. मेरी इच्छा अपने जैसे विकलांग लोगों की मदद करने की है, जिन्हें समाज ठुकराता है. मैं चाहती हूं कि उनके लिए कोई खेल अकादमी बनाऊं, उन्नाव में साढ़े सात बीघा जमीन मिल गई है. साढ़े तीन बीघा और खरीदनी है.

इस अकादमी से जब मेरी जैसी ऊंची चाहत रखने वाले निकलेंगे तब मुझे लगेगा कि मेरे साथ जो कुछ हुआ वह सब ठीक था क्योंकि अगर ये सब न होता तो आने वाली पीढ़ी को हौसला कौन दे पाता! अगले महीने की 10 तारीख को मैं 27 वर्ष की हो जाऊंगी. मुझमें अभी बहुत सी ऊंचाइयों को छूने का हौसला बाकी है. बस, मुझे कोई चुनौती दे दीजिए!'

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