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'बेरहम' चीन... क्रूर ट्रेनिंग कैंप लगाकर ऐसे तैयार करता है चैम्पियन एथलीट

खेल जगत में चीन ने ऐसा दबदबा कायम किया कि वह ओलंपिक में सुपर पावर बन गया. उसके लिए खेल का महत्व किसी जंग से कम नहीं.

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ट्रेनिंग की तस्वीर (Reuters)
ट्रेनिंग की तस्वीर (Reuters)

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  • चीन ने तेज रफ्तार से खेल जगत में कायम किया अपना दबदबा
  • 1984 से शुरू कर ओलंपिक में लगा चुका है पदकों का अंबार

खेल जगत में चीन ने ऐसा दबदबा कायम किया कि वह ओलंपिक में सुपर पावर बन गया. उसके लिए खेल का महत्व किसी जंग से कम नहीं. उसकी सफलता के पीछे एक खास मिशन है, जिसके तहत वह लगातार आगे बढ़ता गया और अपनी मेडल टैली को मजबूत बनाता गया. चीन का मानना है कि वह एक मिशन के तहत काम करता है और बहुत जल्दी सफलता हासिल करने के लिए युद्धस्तर पर तैयारी करता है. उसकी ट्रेनिंग इतनी कड़ी होती है, जिसे किसी सजा से कम नहीं माना जा सकता.

चीन ने पहली बार 1952 के हेलसिंकी (फीनलैंड) ओलंपिक में हिस्सा लिया. तब उसे 'द पीपल्स रिपब्लिक और चाइना' कहा जाता था. उस ओलंपिक में उसे कुछ नहीं मिला. तैराकी में उसके एक खिलाड़ी ने भाग लिया था. इसके बाद अगले 32 सालों तक उसने किसी ओलंपिक में हिस्सा नहीं लिया. उसने 1984 के ओलंपिक (अमेरिका) में खुद का आजमाया, तब किसी ने सोचा नहीं होगा कि यह एशियाई देश इतने मेडल जीत सकता है.

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1984 के ओलंपिक में खास बात यह रही कि चीन ने 32 मेडल अपने नाम किए, जिसमें 15 गोल्ड, 8 सिल्वर और 9 ब्रॉन्ज शामिल रहे. उसके बाद उसके पदकों की संख्या लगातार बढ़ती गई, यानी 1984 की बात करें, तो उसके खाते में एक भी मेडल नहीं था और 2016 तक वह 224 स्वर्ण पदकों के साथ कुल 546 मेडल (समर ओलंपिक) जीत चुका है. इस बदलाव के पीछे चीन की दीर्घकालीन योजना का बड़ा हाथ है.

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उसने अपनी अर्थव्यस्था को मजबूत करने के साथ-साथ खेलों की ओर ध्यान लगाया. उसने अपने लोगों को भरोसा दिलाया कि स्पोर्ट्स में भविष्य हो सकता है. छोटे-छोटे समूह बनाकर लोगों को जागरूक किया गया. गावों और कस्बों की ओर फोकस किया गया. क्योंकि वहां रोजगार के अवसर नहीं थे. बच्चों के माता-पिता विश्वास में लिया गया. स्कूलों में खेलों का अनिवार्य कर दिया गया और कहा गया कि खेलों को 'पार्ट टाइम' के तौर पर नहीं लिया जा सकता.

अगली चुनौती बेहतर आधारभूत संरचना की थी, तो उसने शुरू में 10,000 ऐसे सेंटर्स बनाए, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर की ट्रेनिंग की सुविधाएं दिलाई गईं. साथ ही उसने अपने ट्रेनर्स को भी प्रशिक्षण दिलवाना शुरू किया. उसे पता था कि बच्चों को वे ट्रेनिंग देने में तभी कामयाब हो पाएंगे, जब तक ट्रेनर खुद सक्षम न हों. चीन ने बहुत सोच समझकर अपने लिए उन खेलों को चुना जो उसे पदक दिला सकते थे.

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चीन को पता था कि वह टीम गेम्स में ज्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते, ऐसे में व्यक्तिगत स्पर्धा पर ज्यादा ध्यान दिया गया. और सबसे बढ़कर उसने वैसे व्यक्तिगत स्पर्धाओं को चुना, जिसमें उसके खिलाड़ी ज्यादा फिट बैठ सकते थे. उदाहरण के तौर पर चीनियों का शरीर जिम्नास्टिक के लिए अनुकूल था. यानी चीन ने वही खेल चुने, जिसमें प्रतिस्पर्धा कम थी. जिम्नास्टिक के अलावा जूडो, डाइविंग, स्विमिंग, रनिंग जैसे खेलों को प्राथमिकता दी गई. दूसरी तरफ टेबल टेनिस और बैटमिंटन में तो चीन को जवाब नहीं.

दूसरे देशों में पांच साल से किसी बच्चे को ट्रेनिंग दी जाती है. चीन का मानना है कि मेडल जीतने के लिए बच्चों को इससे पहले से ही तैयार किया जाना चाहिए. इसी सोच के तहत चीन में बच्चों के लिए 'क्रूर' ट्रेनिंग कैंप लगाए जाते हैं. यहां तीन साल से ज्यादा की उम्र के बच्चे बेहद कड़ी ट्रेनिंग से गुजरते हैं. इसी तकलीफ को सहकर ही वे चैम्पियन बनने की कला सीखते हैं. बच्चे को घंटों की कड़ी ट्रेनिंग दी जाती है, जिसमें कई बार किसी डंडे से लटके रहना होता है तो कभी घंटों पानी में खड़े रहना पड़ता है, ताकि बच्चे अपनी ताकत और जज्बा बढ़ा सकें.

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इसके अलावा बच्चों को बिना किसी वजह के स्कूल में घंटों सजा भी दी जाती है. इसके पीछे एक ही मकसद होता है- ये बच्चे अपनी ताकत बढ़ा सकें. चीन के नैनिंग प्रांत के नैनिंग जिम का दृश्य किसी को भी भावुक कर सकता है, जहां छोटे-छोटे बच्चे रोते-बिलखते ट्रेनिंग पूरी करते हैं.

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