नवंबर 1991 का महीना था. शरद ऋतु धीरे-धीरे सर्दियों की ओर खिसकती जा रही थी. भारत अपनी जकड़बंदियां तोड़कर उदारीकरण की खुली हवा में सांस लेने लगा था. उधर, दक्षिण अफ्रीका में दो दशकों के रंगभेद विरोधी प्रतिबंध के बाद क्रिकेट फिर से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में प्रवेश कर रहा था. ऐसे में दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट बोर्ड की प्रमुख हस्ती और पूर्व टेस्ट खिलाड़ी अली बाकर ने कोलकाता के मारवाड़ी कारोबारी जगमोहन डालमिया को फोन लगाया.
डालमिया करीब साल भर से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) के सचिव भी थे. दक्षिण अफ्रीकी टीम अगले हफ्ते तीन एकदिवसीय मैचों की सीरीज खेलने के लिए भारत आ रही थी. यह मौका 22 साल बाद उसके पहले अंतरराष्ट्रीय दौरे का गवाह बनने वाला था. बाकर जानना चाह रहे थे कि दक्षिण अफ्रीका में इन मैचों का सीधा प्रसारण कैसे हो सकता है. सवाल कठिन था. तब तक एक मामूली गैर-मुनाफे वाले संगठन बीसीसीआइ को भी पता नहीं था कि प्रसारण के अधिकार किसके पास हैं. बोर्ड के पास या सरकार के?
शुरुआती बातचीत के बाद बीसीसीआइ इस नतीजे पर पहुंची कि सीरीज के प्रसारण का अधिकार शायद 10,000 डॉलर प्रति मैच में बेचा जा सकता है. लेकिन जब बाकर ने इसकी दोगुनी राशि यानी पूरी सीरीज के लिए 60,000 डॉलर की पेशकश की तो डालमिया की बनिया-बुद्धि ठनकने लगी. वे जान गए थे कि दक्षिण अफ्रीका सीरीज के प्रसारण के लिए कितना उतावला है. आखिरकार 1,20,000 डॉलर में सौदा पटा. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में आखिरी मैच के दिन 14 नवंबर को बाकर ने बीसीसीआइ को चेक सौंपा. पहली बार भारतीय बोर्ड को किसी विदेशी प्रसारण के लिए कोई रकम हासिल हुई थी. इसी लेन-देन ने भारतीय क्रिकेट की दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया और डालमिया के लिए एक बिल्डर और शौकिया क्रिकेट प्रशासक से खेल जगत की सबसे प्रभावशाली हस्ती बनने के दरवाजे खोल दिए.
20 सितंबर, 2015 को 75 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए डालमिया में ऐसी तमाम बातें थीं, जो करीब तीन दशक तक क्रिकेट के भले-बुरे पहलू के रूप में सामने आई हैं. उनकी छाया में ही इस देश में क्रिकेट ने अपनी बाहें पसारीं और मैदान के एक खेल से आगे बढ़कर रसूख और दबदबे का केंद्र बन गया. हालांकि उन्हीं के नेतृत्व में बीसीसीआइ एक सामान्य खेल संस्था से विशाल कॉर्पोरेट में भी तब्दील हो गया. अकूत ताकत और हैसियत का केंद्र बन गया.
अपने दबदबे के दौर में डालमिया में भारतीय क्रिकेट में घर बना रही तमाम बुराइयों के साक्षात प्रतीक भी दिखते थे. मसलन, पारदर्शिता का अभाव, पसंदीदा मानद पदाधिकारी और तरह-तरह के लोभ-लालच के जरिए लोगों को अपने पाले में जोड़े रखना. लेकिन अपनी इन कथित चतुर चालों के बावजूद डालमिया को यह भी एहसास था कि क्रिकेट को कैसा होना चाहिए. इसीलिए बतौर बीसीसीआइ सचिव, बतौर आइसीसी के पहले एशियाई अध्यक्ष और बतौर भारतीय बोर्ड के अध्यक्ष डालमिया तमाम दिक्कतों के वक्त भी हमेशा अपने खिलाडिय़ों के पीछे खड़े रहे. जब 2001 में मैच रेफरी माइक डेनिस ने सचिन तेंडुलकर पर गेंद से छेड़छाड़ का आरोप लगाया तो डालमिया के विरोध ने अकेले ही विश्व क्रिकेट को तबाही के मुकाम पर ला खड़ा किया था. ऐसा मंजर बन गया था कि विश्व क्रिकेट दोफाड़ हो जाएगा. उस घटना से साबित हो गया था कि अब भारत क्रिकेट का शहंशाह है, इंग्लैंड या ऑस्ट्रेलिया नहीं.
डालमिया को एहसास था कि अगर दूसरे देशों के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले गए तो क्रिकेट की सांस टूट जाएगी. वैश्वीकरण की उनकी मुहिम दो तरह से कारगर हुई. एक, क्रिकेट को अफ्रीका, एशिया और अमेरिका के अछूते देशों में पैर पसारने का मौका मिला और इससे आइसीसी में वोट का दायरा भी बढ़ गया.
लेकिन सभी नायकों की तरह डालमिया से तभी एक भूल हो गई. बीसीसीआइ के खजाने का दायरा इतना बड़ा हो गया कि क्रिकेट से जरा भी इत्तेफाक न रखने वाले नेताओं, उद्योगपतियों और करियर बनाने वालों की नजरें उस पर गड़ गईं. सभी इस सोने की मुर्गी में हिस्सेदारी चाहने लगे. आखिरकार 2006 में यह सोने की मुर्गी ही अचानक छीन ली गई. डालमिया का खेमा चुनाव हार गया. उन्हें हटा दिया गया, तरह-तरह के आरोप लगे और कथित वित्तीय दुराचार के लिए जेल भी भेज दिए गए. हालांकि जब इस खेमे ने अपने और क्रिकेट के दिवालिएपन को उजागर किया तो 2015 में बतौर अध्यक्ष उनकी शानदार वापसी हुई.
डालमिया की शख्सियत के कई पहलू हो सकते हैं, लेकिन वे क्रिकेट के आखिरी शानदार प्रशासक थे. उन्होंने पैसे बनाने के साथ क्रिकेट का ख्याल रखा. वे खुद को महाराजा पटियाला या फिर बाद के दौर में माधव राव सिंधिया और राज सिंह डूंगरपुर की तरह क्रिकेट का संरक्षक मानते थे. वे उनकी तरह राजाओं के दबदबे वाले नहीं थे. वे सिर्फ जग्गूदा ही थे. कोलकाता के मैदान के पूर्व विकेट कीपर, जिन्होंने भले या बुरे के लिए, लेकिन क्रिकेट को हमेशा के लिए बदल दिया.