अपने संघर्ष को ही जीवन मानने वाले फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह का शुक्रवार रात कोरोना से निधन हो गया. वह कुछ दिन पहले ही कोरोना से ठीक हुए थे. इसी हफ्ते उनकी पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह का कोरोना से देहांत हो गया था. मिल्खा सिंह ने 91वीं साल में अपनी अंतिम सांस ली है. मिल्खा सिंह ने अपने जीवन में अवॉर्ड से ज्यादा अपने संघर्ष को महत्व दिया. उनके जीवन पर आधारित फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' आने के बाद उन्हें एक बार फिर से नई पहचान मिली, जो इससे पहले केवल इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गई थी. इस फिल्म की कामयाबी के बाद मिल्खा को लगने लगा था कि दुनिया ने उनके संघर्ष को अब जाना है.
मित्र, शुभचिंतक और मीडिया वाले उनके दरवाजे पर लाइन लगाए रहते थे. उनसे बात करना चाहते थे. मिल्खा सिंह फिर से अंतरराष्ट्रीय हस्ती बन गए. उन्हें लगातार फोन आते रहे. पूर्व एथलीट मिल्खा ने इस कामयाबी पर ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा था, 'दुनिया भर से इतने फोन आ रहे हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल हो गया है.'
बायोपिक ने दी नई जिंदगी
जीवन के अंतिम दिनों में एक बार फिर से वे देश के नायक बन गए थे. 84 साल की उम्र में भी उनमें नई ऊर्जा आ गई थी, वैसी ही ऊर्जा जो पहले हुआ करती थी. वे किसी संन्यासी की तरह कहते थे कि उन्हें कुछ नहीं चाहिए. मिल्खा सिंह अपनी बेबाकी के लिए मशहूर थे और सरकार की ओर से मिलने वाले सम्मान तक को ठुकरा चुके थे.
उन्होंने फिल्म की सफलता के बाद मीडिया से बात करते हुए कहा था कि आज प्रशंसा, पुरस्कार और सम्मान कोई भी चीज मुझे रोमांचित नहीं करती. मैं संतुष्ट हूं. मुझे अब जिंदगी में कुछ नहीं चाहिए. मुझे किसी चीज की भूख नहीं है. मैं 84 साल का हो चुका हूं. मुझे किसी पद की जरूरत नहीं.
मेडल का नहीं करते थे दिखावा
80 दौड़ों में से 77 में अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने वाले मिल्खा सिंह, मेडल का दिखावा तक नहीं करते थे. उनके घर की दीवारों पर हर जगह परिवार की तस्वीरें ही दिखाई देती हैं, खासकर उनके साढ़े तीन साल के पोते हरजय की फ्रेम की हुई फोटो.
जब उनसे अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा था, 'ये सब दिखाने की चीज नहीं हैं. मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूं उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उसका कोई महत्व नहीं है.'
सरकार की बेरुखी से खासा नाराज
अपनी मांगों को लेकर उनमें बड़ी खटास रही है. उन्होंने 2001 में अर्जुन पुरस्कार ठुकरा दिया था. उनका कहना था कि यह पुरस्कार उन्हें बहुत देर से दिया गया. उन्होंने सरकार की उदासी पर सवाल खड़े करते हुए पूछा था कि 'लंदन में "भाग मिल्खा भाग" के प्रीमियर के बाद मुझे हाउस ऑफ लॉर्ड्स में आमंत्रित किया गया. क्या हमारी सरकार को नहीं मालूम कि मिल्खा सिंह कौन है?'
देश ने भले ही अब तक मिल्खा को पर्याप्त सम्मान न दिया हो लेकिन वे 1960 के रोम ओलंपिक में जीत की पक्की उम्मीद के साथ गए थे. टोक्यो में आयोजित 1958 के एशियाई खेलों में उन्होंने 45.8 सेकेंड का विश्व रिकॉर्ड बनाया था. वे अमेरिका के ओटिस डेविस को छोड़कर लगभग सभी प्रतिद्वंद्वियों को हरा चुके थे.
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ओटिस डेविस से क्यों हारे थे मिल्खा?
मिल्खा रोम के स्टेडियो ओलंपिको में जब दौड़ रहे थे तो वे सबसे आगे चल रहे थे, लेकिन उन्हें लगा कि वे जरूरत से ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं. आखिरी छोर तक पहुंचने से पहले उन्होंने पीछे मुड़कर देखना चाहा कि दूसरे धावक कहां पर हैं. इसी वजह से उनकी रफ्तार और लय टूट गई. उन्होंने उस समय का विश्व रिकॉर्ड तोड़ते हुए 45.6 सेकंड का समय तो निकाला लेकिन एक सेकेंड के दसवें हिस्से से पिछड़कर वे चौथे स्थान पर रहे.
डेविस ने 44.9 सेकेंड के साथ नया विश्व रिकॉर्ड बनाया और स्वर्ण पदक जीत लिया. इसके बाद मिल्खा ने जकार्ता में 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता लेकिन वे समझ गए कि अब वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कभी नहीं कर सकेंगे.
'जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया'
मिल्खा ने देश के बंटवारे के बाद दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने दुखदायी दिनों को याद करते हुए कहा था कि 'जब पेट खाली हो तो देश के बारे में कोई कैसे सोच सकता है? जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया. भूख की वजह से पैदा हुए गुस्से ने उन्हें आखिरकार अपने मुकाम तक पहुंचा दिया.
उन्होंने कहा, 'जब आपके माता-पिता को आपकी आंखों के सामने मार दिया गया हो तो क्या आप कभी भूल पाएंगे, कभी नहीं.' यह बात मशहूर है कि मिल्खा ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था क्योंकि उनके जेहन में नरसंहार की यादें ताजा थीं.
नेहरू के कहने पर गए पाकिस्तान
भारत पाकिस्तान के विभाजन के दौरान मिल्खा सिंह के माता-पिता, भाई और दो बहनों की मौत हो गई थी. आजादी के भारत आने के बाद वो अपनी बहन के साथ रहते थे. साल 1960 में मिल्खा सिंह के पास पाकिस्तान से न्योता आया कि वह भारत-पाकिस्तान एथलेटिक्स प्रतियोगिता में भाग लें, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था.
वे दोनो देशो के बीच के बंटवारे को नहीं भुला पा रहे थे इसलिए उन्होंने पाकिस्तान न जाने का फैसला लिया. उस वक्त प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें वहां जाने के लिए समझाया. पाकिस्तान में मिल्खा ने अब्दुल खालिक को हरा दिया.
मिल्खा, कॉमनवेल्थ गेम्स में एथलेटिक्स में गोल्ड मेडल जीतने वाले एकमात्र खिलाड़ी थे, लेकिन बाद में कृष्णा पूनिया ने 2010 में डिस्कस थ्रो में स्वर्ण पदक हासिल किया था. इसी के साथ ही उन्होंने 1958 और 1962 एशियन गेम्स में भी स्वर्ण पदक जीते थे. मिल्खा कई इंटरनेशनल टूर्नामेंट में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके थे.