मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने अपनी किताब ‘प्लेइंग इट माय वे’ में उस समय के क्रिकेट कोच ग्रेग चैपल की आलोचना करते हुए कई बातें लिखी हैं और उन्हें पुस्तक विमोचन के पहले सार्वजनिक भी कर दिया. अब इसके बाद भारतीय क्रिकेट जगत में एक तूफान सा उठ खड़ा हुआ है और उस समय के कई क्रिकेटर चैपल के बारे में अलग-अलग तरह की बातें कह रहे हैं. चाहे वह वीवीएस लक्ष्मण हों या हरभजन या फिर कोई और, सब के सब चैपल की आलोचना पर उतर आए हैं और उन्हें विलेन घोषित करने में लग गए.
सचिन तेंदुलकर की बातों में सच्चाई हो सकती है और चैपल पर लगाए उनके आरोप सही भी हो सकते हैं लेकिन एक साथ इतने सारे खिलाड़ियों का उठ खड़ा होना हैरान कर देता है. ये खिलाड़ी इतने सालों के बाद अब अपनी जुबान पर जड़े ताले को क्यों खोल रहे हैं? वे इतने दिन क्यों चुप रहे? क्या वे सही समय का इंतजार कर रहे थे?
कुल मिलाकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं जिनके जवाब ढूंढ़ने होंगे. जिस वक्त की ये बात है तब इन सभी खिलाड़ियों का प्रदर्शन कैसा चल रहा था? इस बात की भी विवेचना की जानी चाहिए क्योंकि जो खिलाड़ी आज बोल रहे हैं वे शायद उस समय अपनी पोजीशन बचाने के लिए चुप थे या फिर इसे भूल जाना चाहते थे. लेकिन एक रिटायर्ड कोच की आलोचना तो कभी भी की जा सकती थी. उसमें ऐसा क्या था कि ये खिलाड़ी चुप रहे?
क्या 2007 वर्ल्ड कप की शर्मनाक हार के लिए सिर्फ कोच ही जिम्मेदार है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चैपल ढीले-ढाले खिलाड़ियों को फिटनेस की कसौटी पर खरा उतरता न पाकर उन्हें कस रहे हों? उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई अंदाज में भारत के सुकुमार खिलाड़ियों की कोचिंग करनी चाही और सारे खिलाड़ी अपने भविष्य के लिए आशंकित हो गए. यह भी हो सकता है कि एक अच्छे कोच की तरह वह टीम का स्वरूप बदलना चाहते रहे हों. भारतीय क्रिकेट के सीनियर खिलाड़ी हमेशा से अपने को सुपीरियर समझते रहे हैं और किसी तरह के बदलाव, यहां तक कि बैटिंग पोजीशन में भी, के लिए तैयार नहीं होते. खुद तेंदुलकर ही अपनी बैटिंग पोजीशन बदलने को तैयार नहीं होते थे. सच तो यह है कि यह सारा झगड़ा सीनियर प्लेयर्स की अपनी सुविधा का है. चैपल तो परफॉर्म न करने वाले खिलाड़ियों को टीम से बाहर करके नए प्लेयर्स को टीम में जगह देने के पक्ष में रहते थे और यह सही रणनीति थी. इस नीति के कारण ही भारतीय क्रिकेट मजबूत हुआ और उसने वर्ल्ड कप भी जीता.
अगर सीनियर खिलाड़ियों को महज उनके नाम की वजह से ही टीम में लंबे अर्से तक रखा जाता तो 2010 में भारतीय टीम बुलंदियों तक नहीं पहुंच पाती. बहरहाल सचिन की बातों को गलत ठहराने का कोई मतलब नहीं है, बस उसकी टाइमिंग पर प्रश्न चिन्ह उठाया जा सकता है. चैपल के बारे में और भी बहुत सी बातें कही गईं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता और खेल की समझ पर कोई उंगली नहीं उठाई जा सकती. वह एक ठोस पेशेवर खिलाड़ी थे जिसके पास भावनाओं की कोई जगह नहीं है. उनके पेशेवर रवैये ने उस समय के सीनियर खिलाड़ियों को तकलीफ जरूर पहुंचाई होगी, इसमें कोई शक नहीं है.
खैर इन सब के बावजूद अगर चैपल पर आज प्रश्न उठ रहा है तो सवालों के घेरे में वो चयनकर्ता यानी क्रिकेट बोर्ड भी है जो तब आंख मूंदे खड़ा था.