क्या दिन थे वो जब टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की शान में शौर्य गीत लिखे जाते थे. कोई चालीसा पाठ करता तो कोई 'माही कथा' वाचन. जलवे ही कुछ ऐसे थे कप्तान साहब के. जिस पर हाथ रख दिया वही बन जाए सितारा. जो फैसला कर दिया वह कहलाए मास्टर स्ट्रोक. पर हर क्रिकेटर की जिंदगी उतार-चढ़ाव भरी होती है.
ऊपर लगी तस्वीर को देखा आपने. दरअसल, ये नजारा न्यूजीलैंड के साथ आज ही खत्म हुए वेलिंगटन टेस्ट का है. ब्रेंडन मैकुलम क्रीज पर डटे थे. परेशान धोनी ने पार्ट टाइम ऑफ स्पिनर रोहित शर्मा को गेंदबाजी के लिए बुलाया. उन्होंने स्लिप भी लगाया. पर उसकी पोजीशन देखकर हर कोई दंग हो गया. स्लिप का फील्डर उस जगह खड़ा था जहां सामान्यतः तेज गेंदबाज के लिए स्लिप फील्डर होता है. धोनी ने यह फील्डर मैकुलम के किस शॉट के लिए लगाया था ये शोध का विषय है. पर धोनी की इस रणनीति पर सवाल उठना लाजमी है?
जैसे ही 2011 में टीम इंडिया ने वर्ल्ड कप जीता धोनी देश के महानतम कप्तानों की सूची में आ गए. फिर आया इंग्लैंड दौरा. जहां से सबकुछ बदल गया. हमने हारना सीख लिया. लगातार हारने लगे. इस नशे के आदी हो गए. जून 2011 से अब तक भारत ने विदेशी धरती पर कुल 15 टेस्ट खेले हैं. 10 में हार, 4 ड्रा और सिर्फ एक जीत. वर्ल्ड क्रिकेट में सिर्फ जिम्बाब्वे का रिकॉर्ड इतना बुरा है. शायद माही की महानता को दर्शाने के लिए ये काफी है.
ऐसा नहीं है कि पिछले तीन सालों में भारत को जीत के मौके नहीं मिले. पर कप्तान साहब के रहस्यमयी फैसले और डिफेंसिव सोच ने हर मौके को गंवाया. जून 2011 में लॉर्ड्स टेस्ट में टीम के जीतने की संभावना थी. ट्रेंटब्रिज टेस्ट के पहले दो दिन भारत की पकड़ मजबूत थी. ऑस्ट्रेलिया दौरे में मेलबर्न टेस्ट के पहले दिन हमने अच्छी शुरुआत की. जोहानिसबर्ग और वेलिंगटन टेस्ट तो हमारा जीतना तय था. पर हमने 'जीत के मुंह से ड्रॉ' निकाल लिया. इन सभी मैचों में एक बात समान है, धोनी ने अहम मौके गंवाए.
लॉर्ड्स टेस्ट के चौथे दिन लंच तक इंग्लैंड का स्कोर 72 रन पर 5 विकेट था. गेंद 31 ओवर पुरानी. पर 40 मिनट बाद धोनी सुरेश रैना और हरभजन से गेंदबाजी की शुरुआत करते हैं. ट्रेंटब्रिज टेस्ट में इंग्लैंड का स्कोर 8 विकेट पर 124 रन. पर धोनी स्टुअर्ड ब्रॉड और टिम ब्रेसनन के सामने डिफेंसिव फील्ड लगाते हैं. वेलिंग्टन टेस्ट मैच के चौथे दिन. अगर बढ़त को हटा दिया जाए तो न्यूजीलैंड का स्कोर 5 विकेट पर 6 रन था. दिन का पहला सेशन. गेंद सिर्फ 19 ओवर पुरानी. तेज गेंदबाजों को मिला था पूरी रात का आराम. आक्रामक रणनीति अपनाना यहां मात्र एक उपाय था. लेकिन सिर्फ 7 ओवर, और धोनी पर डिफेंसिव सोच हावी हो गया. टीम रन बचाने की रणनीति पर लौट आई. कभी-कभी लगता है कि धोनी अकसर ये भूल जाते हैं विकेट लेने से रन अपने आप रुक जाते हैं. पर उनकी रणनीति दूसरों से जुदा है. पहले रन रोको, विकेट तो कभी न कभी मिल ही जाएगा. शायद, ये प्लानिंग भारतीय पिचों पर चल जाए पर विदेशी सरजमीं पर तो ये फेल है.
माना धोनी के पास डेल स्टेन और मिशेल जॉनसन नहीं है. पर टीम तो वही चुनते हैं. क्या प्लेइंग इलेवन में पांच गेंदबाज नहीं खेल सकते. सवाल भरोसे का है. क्या माही को अपने बल्लेबाजों पर नहीं गेंदबाजों पर ज्यादा भरोसा है?
रणनीति बनाना कप्तानी का हिस्सा है. अगर आप इस मुद्दे पर फेल हो जाएं तो सवालों के घेरे में आएंगे ही. आज की तारीख में आम सवाल ये है कि क्या धोनी को टेस्ट कप्तानी छोड़नी चाहिए? पर अहम सवाल यह है कि क्या धोनी टेस्ट टीम की कप्तानी करना चाहते हैं? सवाल रवैये का है. जिम्मेदारी को एन्जॉय करने का है. धोनी को देखकर ऐसा नहीं लगता. जनवरी 2012 में धोनी ने इशारा दिया था कि वे 2013 के अंत तक क्रिकेट के किसी एक फॉर्मेट को अलविदा कह देंगे. ये 2014 के फरवरी का महीना है. खैर! टेस्ट क्रिकेट का तो नहीं पता पर कप्तानी तो छोड़ ही देनी चाहिए. इसमें कोई शक नहीं धोनी आज की तारीख में भारत के सबसे बेहतरीन विकेटकीपर बल्लेबाज हैं. पर कप्तान, कैसे हैं, इसका जवाब सिर्फ धोनी दे सकते हैं. रिकॉर्ड सुधार कर. इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया का दौरा इसी साल होना है. या फिर बहुत देर हो चुकी है. आजकल सीजन है न व्यवस्था परिवर्तन का. क्या पता लहर में धोनी राज रहे, न रहे.