हमारे देश की कुछ महिला खिलाड़ियों को हालात और मजबूरी ने खेल से दूर कर दिया है. अब वे खेल छोड़कर अलग-अलग तरह के काम करने को मजबूर हैं. जानिए, भारत की ऐसी महिला खिलाड़ियों के बारे में-
1. मीनाक्षी रानी-
उत्तर प्रदेश की मीनाक्षी रानी ने 1996 और 1998 में राष्ट्रीय वैटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मैडल जीतकर सुर्खियों में आई. एशियन जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप में उन्होंने कांस्य पदक हासिल किए. सबकुछ ठीक चल रहा था लेकिन 2011 में एक दुर्घटना ने मीनाक्षी के पति की जान ले ली. वो खुद भी गंभीर रूप से घायल हो गईं थी. आज यह महिला खिलाड़ी गरीबी से जूझ रही है. सरकार ने नौकरी का आश्वासन तो कई बार दिया लेकिन आज तक उन्हें नौकरी नहीं मिली.
2. निशा रानी-
झारखंड के पथमड़ा गांव की रहने वाली निशा ने जो मुकाम हासिल किया वह हर किसी को नहीं मिलता. तीरंदाजी में महारत रखने वाली 23 साल की निशा ने ताइवान में सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज का खिताब अपने नाम किया था. साउथ एशियन चैम्पियनशिप में उन्होंने सिल्वर मैडल हासिल किया और सिक्किम में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में बेस्ट प्लेयर का अवार्ड भी जीता. लेकिन किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली निशा को फसल बर्बाद होने का खामियाजा भुगतना पड़ा. परिवार के पास बीच खरीदने तक पैसे नहीं थे. बैंकॉक में 2008 में कांस्य पदक जीतने वाली निशा ने अपनी 4 लाख से ज्यादा की तीरंदाजी किट केवल पचास हजार में बेच दी. अब वो दो साल से परिवार की आर्थिक मदद करने की कोशिश में लगी है. कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भी कर रखा है.
3. शांति देवी-
अस्सी के दशक में कबड्डी की तीन राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेलने वाली शांति ने शानदार प्रदर्शन किया. उन्होंने नेशनल कबड्डी लीग में सिल्वर मैडल जीता. घर परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर खेलती रहीं लेकिन सरकार की तरफ से कुछ नहीं मिला. 40 साल से ज्यादा उम्र की शांति को परिवार के तंग हालात ने सड़क पर ला दिया. पति का साया भी सिर से उठ गया. कोई मदद के लिए आगे नहीं आया. अब वे अपने चार बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए जमशेदपुर के बाजार में सब्जियां बेच रही हैं.
4. सीता साहु-
मध्य प्रदेश के रीवा जिले की रहने वाली सीता साहु ने एथेंस ओलम्पिक 2011 में दो कांस्य पदक हासिल किए थे. घरेलू प्रतियोगिताओं में भी धावक सीता का प्रदर्शन शानदार रहा. सरकार ने मदद के बड़े-बड़े दावे तो किए लेकिन हकीकत में कुछ नहीं हुआ. परिवार पहले से गरीब था. अब सीता और उसके 6 सदस्यों वाले परिवार के सामने खाने के लाले पड़ गए हैं. गोल-गप्पे बेचकर अपना पेट पाल रहे हैं. सबलोग मिलकर भी एक दिन में 180 रूपये से ज्यादा नहीं कमा पाते. सीता अब यही कहती हैं कि केवल मैडल से जीवन नहीं चलता.
5. एस. संथी-
तमिलनाडु के कत्थाकुची गांव में रहने वाली संथी ने दोहा एशियन गेम्स में भारत के लिए सिल्वर मैडल हासिल किया था. करुणानिधि सरकार ने उसे 15 लाख रूपए की भूमि इनाम में देने का एलान किया था. लेकिन 800 मीटर की एक दौड़ के बाद वे जेंडर टेस्ट में फेल हो गईं. सबकुछ बदल गया. उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया. पहले ही परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था. अब यह खिलाड़ी काम की तलाश में इधर-उधर भटकने को मजबूर है. स्पोर्टस ऑथोरिटी ऑफ इंडिया ने मदद का आश्वासन दिया है. संथी को ईंट के भट्टों पर काम करते भी देखा गया है.
6. नोरी मुंडु-
झारखंड के खूंटी जिले से ताल्लुक रखने वाली नोरी राष्ट्रीय हॉकी टीम का जाना पहचाना नाम थीं. उन्होंने 1996 में नेहरू गर्ल्स हॉकी टूर्नामेंट में कांस्य पदक हासिल किया था. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उन्हें सम्मानित भी किया था. 1997 में नोरी ने नेशनल सीनियर गेम्स चैम्पियनशिप में सिल्वर मैडल जीता और 19 बार वे राष्ट्रीय हॉकी टीम में भारत की ओर से खेलीं. लेकिन इस शानदार हॉकी खिलाड़ी को खेल से पैसा नहीं मिला. जीविका कमाने के लिए उन्हें एक टीचर बनना पड़ा.
7. रश्मिता पात्रा-
ओडिसा की रहने वाली रश्मिता के पिता एक मजदूर थे. लेकिन रश्मिता ने हार नहीं मानी. इस फुटबॉल खिलाड़ी ने 2008 में कुआलालम्पुर में भारत की ओर से एशियन फुटबॉल कन्फेडरेशन में बतौर अंडर-16 टीम सदस्य भागीदारी की थी. अंडर-19 टीम में रहते हुए रश्मिता ने ओडिसा में आयोजित राष्ट्रीय महिला फुटबॉल प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया था. कइ पुरुस्कार जीते. नाम भी कमाया. मगर परिवार कर्ज में डूबा था. खाने की परेशानी थी. परिवार ने उनका विवाह कर दिया. अब वे फुटबॉल छोड़कर सुपारी की दुकान चलाती हैं.
8. आशा रॉय-
पश्चिम बंगाल के सिंगूर की रहने वाली 24 वर्षीय आशा ने 2009 में नेशनल ओपन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में सिल्वर मैडल जीता. इसी साल में उन्होंने इंडो-बांग्ला इंटरनेशनल मीट के दौरान 100 मीटर दौड़ में गोल्ड मैडल हासिल कर देश का मान बढ़ाया था. वे हमेशा भारत की तेज धावकों में शुमार रहीं. लेकिन उनके परिवार पर ऐसी विपदा आई कि उन्हें दो वक्त का खाना भी मुश्किल से मिल पाता है.