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रवि दहिया ने टोक्यो ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन करते हुए 57 किग्रा फ्रीस्टाइल कुश्ती में रजत पदक अपने नाम किया. रवि दहिया ने छत्रसाल स्टेडियम में कुश्ती की ट्रेनिंग ली है, लेकिन उनकी इस कामयाबी के पीछे उनके बचपन के गुरु ब्रह्मचारी हंसराज की भी अहम भूमिका रही है. पहलवान रवि दहिया के घर से करीब तीन किलोमीटर दूर उनके पहले गुरु ब्रह्मचारी हंसराज रहते हैं. वह छह साल की उम्र में उनके अखाड़े में चले गए थे और 12 साल की उम्र तक वहां प्रशिक्षण लिया.
किसी दूसरे कुश्ती कोच के विपरीत हंसराज की जीवन शैली बेहद साधारण है. उन्होंने 1996 में अपना घर छोड़ दिया था और तब से वह गांव के पास संन्यासी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं. हंसराज के अखाड़े में आसपास के गांवों के दर्जनों बच्चे प्रशिक्षण लेते हैं. टोक्यो से रजत पदक जीतकर लौटने के बाद रवि दहिया का दिल्ली में भव्य स्वागत किया गया. छत्रसाल स्टेडियम में 'आजतक' से बात करते हुए रवि ने हरियाणा के सोनीपत जिले के अपने गांव नाहरी से दिल्ली के स्टेडियम तक के सफर को साझा किया.
रवि दहिया ने कहा, 'मैंने बचपन में अपने गांव के अखाड़े में अभ्यास करना शुरू कर दिया था. तब मेरे गुरु हंसराज जी मुझे 12 साल की उम्र में छत्रसाल स्टेडियम ले आए. उन्होंने मुझे कहा था कि सभी अच्छे पहलवान यहीं से निकलते हैं. उन्होंने भी इसी स्टेडियम में अभ्यास किया था. फिर मैं यहां चला आया... मेरे गुरुजी, परिवार जनों और दोस्तों को ओलंपिक में मुझसे काफी उम्मीदें थीं.'
रवि दहिया के बचपन के गुरु ब्रह्मचारी हंसराज ने कहा, 'मैं बहुत अच्छा पहलवान नहीं था. मेरे बड़े सपने थे, लेकिन मैं उन्हें पूरा नहीं कर पा रहा था. भगवान की कृपा है... अब मेरे छात्र पदक ला रहे हैं. मैंने कभी इतना लोकप्रिय होने का सपना नहीं देखा था. मैं हमेशा प्रचार-प्रसार से दूर रहता हूं और बच्चों को प्रशिक्षण देने पर ही मेरा ध्यान रहता है.'
ब्रह्मचारी हंसराज ने रवि दहिया के बारे में कहा, 'रवि को उसके पिता महज 6-7 साल की कम उम्र में मेरे पास लेकर आए थे और फिर मैंने उसे अगले छह साल तक प्रशिक्षित किया. इसके बाद उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोचिंग के लिए छत्रसाल स्टेडियम भेज दिया. जब मैंने पहली बार टीवी पर रवि के ओलंपिक में चुने जाने की खबर देखी, तब मैंने उसे पहचाना. हम उसे अखाड़े में मोनी के नाम से जानते थे. रवि एक होनहार, बहुत शांत और ईमानदार छात्र था. उसका खेल पर पूरा फोकस रहता है और उसमें अपार संभावनाएं हैं. गांव वाले अपने बच्चों को यहां ट्रेनिंग के अलावा अनुशासित होने के लिए भी भेजते हैं, क्योंकि अनुशासन सफलता का पैमाना है.'
हंसराज ने आगे कहा, 'मैंने बच्चों को प्रशिक्षण देना शुरू नहीं किया था, गांव वालों ने अपने बच्चों को मेरे पास ट्रेनिंग के लिए भेजा था. पहले मैंने मना कर दिया, क्योंकि मैं ध्यान करना चाहता था. लेकिन बच्चों के दबाव के चलते मैंने इस विचार को त्याग दिया दिया और फिर मैंने अपने हाथों से एक अखाड़ा बनाया. तब से कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवानों ने यहां प्रशिक्षण लिया है. मैं कभी किसी से कोई फीस नहीं लेता, गांव वाले जो कुछ भी खाने के लिए देते हूं उसी पर निर्भर रहता हूं. यह ऊपरवाले के हाथ में है, मैं अपना काम ईमानदारी से करता हूं.'
हंसराज कहते हैं कि कुश्ती के दौरान उनके घुटने में चोट लग गई थी और उन्हें जमीन पर बैठने और लंबी दूरी तक चलने में कठिनाई होती है. लेकिन पिछले 15-20 सालों में गांव के बच्चों ने जिस तरह का समर्पण दिखाया है, उससे उन्हें बच्चों को कुश्ती के गुर सिखाने के इस मिशन में सफलता मिली है. उन्होंने कहा, ' मुझे जीवन में ज्यादा कुछ नहीं पाना है... मैं जो कुछ भी कर रहा हूं उससे खुश हूं. यहां लोग मेरा सम्मान करते हैं और उन्हें लगता है कि मैं उनके बच्चों को कुश्ती में पारंगत करूंगा, ताकि वे इस खेल में अपना करियर बना सकें. चूंकि मेरे पास इन बच्चों को अंतरराष्ट्रीय लेवल के मैचों के लिए प्रशिक्षित करने की कोई सुविधा नहीं है, इसलिए मैं अपने अखाड़े में शुरुआती 5-6 साल के प्रशिक्षण के बाद उन्हें छत्रसाल स्टेडियम में छोड़ देता हूं.'
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