हिंदी के मशहूर कवि इब्बार रब्बी कहते हैं, "दिल्ली आने वाले इसे छोड़कर वापस नहीं गए. रघुवीर सहाय ने किताब लिख दी 'दिल्ली मेरा परदेस' और बोले कि मैं तो वापस लखनऊ चला जाऊंगा लेकिन उन्होंने दिल्ली में ही आख़िरी सांस ली. दिनकर ने दिल्ली के ख़िलाफ़ कविता लिखी लेकिन वो भी दिल्ली को कभी छोड़कर नहीं गए."
दिल्ली का इतिहास महाभारत के जितना ही पुराना है. महाभारत काल में इसे इंद्रप्रस्थ के नाम से जाना जाता था. इतिहासकारों का मानना है कि इसके बाद भी दिल्ली शहर 7 बार बसी और हर बार उजड़ी. विदेशी लुटेरे आते गए, शहर को लूटते-खसोटते गए, जमकर कत्लेआम किया लेकिन मिटा नहीं पाए.
देश की राजधानी दिल्ली पिछले कुछ दशकों में तेजी से आधुनिक हुई है. चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवर, भीड़ भरे मार्केट प्लेस, भव्य स्मारक, टूरिस्ट प्लेस, थ्री-डी सिनेमाघर, गगनचुंबी इमारतें और मेट्रो-रैपिड रेल जैसी आधुनिक सुविधाएं ये सब मॉडर्न आज की दिल्ली की पहचान हैं. लेकिन इन सबमें आम इंसान की जिंदगी में भागमभाग और समय की कमी भी शामिल हो गई है. लेकिन दिल्ली शहर की आम जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. कभी ये दिल्ली शांति और सुकून के लिए भी जानी जाती थी.
देश की राजधानी दिल्ली पिछले कुछ दशकों में तेजी से आधुनिक हुई है. चमचमाती सड़कें, फ्लाईओवर, भीड़ भरे मार्केट प्लेस, भव्य स्मारक, टूरिस्ट प्लेस, थ्री-डी सिनेमाघर, गगनचुंबी इमारतें और मेट्रो-रैपिड रेल जैसी आधुनिक सुविधाएं ये सब मॉडर्न आज की दिल्ली की पहचान हैं. लेकिन इन सबमें आम इंसान की जिंदगी में भागमभाग और समय की कमी भी शामिल हो गई है. लेकिन दिल्ली शहर की आम जिंदगी हमेशा से ऐसी नहीं थी. कभी ये दिल्ली शांति और सुकून के लिए भी जानी जाती थी.
आजाद भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ जंग खुद भी झेली है लेकिन उससे पहले का एक दौर ऐसा भी था जब विश्वयुद्ध की आंच भारत पर, खासकर राजधानी दिल्ली पर आ गई थी. कभी भी दिल्ली विश्व युद्ध में शामिल देशों की जंग का अखाड़ा बन सकती थी और इस माहौल में दिल्ली की सड़कों पर अमेरिकी सैनिकों तक की तैनाती हुई थी. आखिर कैसा था वो दौर और दिल्ली को तबाह करने का मंसूबा पालने वाला दुश्मन था कौन?
आजाद भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ जंग खुद भी झेली है लेकिन उससे पहले का एक दौर ऐसा भी था जब विश्वयुद्ध की आंच भारत पर, खासकर राजधानी दिल्ली पर आ गई थी. कभी भी दिल्ली विश्व युद्ध में शामिल देशों की जंग का अखाड़ा बन सकती थी और इस माहौल में दिल्ली की सड़कों पर अमेरिकी सैनिकों तक की तैनाती हुई थी. आखिर कैसा था वो दौर और दिल्ली को तबाह करने का मंसूबा पालने वाला दुश्मन था कौन?
जब गर्मियों में आधी हो जाती थी दिल्ली की आबादी, नई दिल्ली का इलाका इतना सुनसान हुआ करता था कि कोई रहने को तैयार नहीं था. जानिए कहानी 1930 के दशक की…
आज एनसीआर के इलाकों को छोड़ दें तो अकेले दिल्ली शहर की आबादी पौने दो करोड़ के आसपास बनती है. लेकिन हमेशा से दिल्ली शहर इतनी भीड़-भाड़ वाली नहीं थी. दिल्ली की आबादी वक्त के साथ-साथ बढ़ती रही और दिल्ली से एनसीआर जुड़ता गया. 1911 में जब अंग्रेजों ने दिल्ली बसाई तब यहां की आबादी 4 लाख थी.
दिल्ली शहर है ही ऐसा. हिंदुस्तान की सरजमीं या उससे हजारों मील दूर विदेशों में भी रह रहे किसी भी भारतीय के लिए दिल्ली दूर नहीं है. जो यहां है ये उसकी भी साड्डी दिल्ली है और जो हिंदुस्तान के किसी और कोने में है उसकी भी.
जब जंगल में रखी गई नई दिल्ली की नींव, जानिए राजधानी के बसने की कहानी!
दिल्ली में महंगाई का ये आलम हमेशा से नहीं था. कभी दिल्ली सस्ती हुआ करती थी, जहां कौड़ियों के भाव जमीनें मिलती थीं और कुछ रुपयों में बंगले किराये पर मिल जाते थे. हम आपको ले चलते हैं इतिहास के उस दौर में जब दिल्ली इतनी सस्ती हुआ करती थी.
देश के टॉप शहरों में से एक दिल्ली, आज एक महंगे शहर होने के लिए भी जाना जाता है. जमीन से लेकर बंग्लों तक की कीमत लाखों करोड़ों में है. लेकिन दिल्ली हमेशा से महंगी नहीं थी. जानिए उस दौर की कहानी जब 25 रुपये गज जमीन और दूध रुपये का नौ सेर मिलता था.
देश के कोने-कोने से हर साल हजारों लोग सुनहरे भविष्य का सपना लेकर दिल्ली आते हैं. दिल्ली का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही हाईटेक यहां का अंदाज़ भी है. भागदौड़ भरी ज़िंदगी में वो दिल्ली भी पीछे छूट गई है... जो सुकून देती थी. दास्तान-ए-दिल्ली के इस पार्ट में हमने बात की राजधानी के कुछ ऐसे ही बुज़ुर्गों से जिन्होंने दिल्ली को बनते-बिगड़ते देखा है.