बीते साल कोरोना वायरस से पीड़ित होने के बाद जिन लोगों को सांस लेने में दिक्कत की वजह से आईसीयू में भर्ती कराया गया था उन्हें आमतौर पर दूसरे संक्रमित मरीजों की तुलना में ज्यादा दिक्कत हो रही है. यह खुलासा एक रिसर्च में हुआ है. द लैंसेट रेस्पिरेटरी मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित इस शोध में 14 देशों के 69 वयस्क मरीजों का अध्ययन किया गया है. कोरोना से संक्रमित होने के बाद गहन चिकित्सा इकाइयों (आईसीयू) में 28 अप्रैल, 2020 से पहले भर्ती हुए 2,000 से अधिक रोगियों को सांस लेने में हो रही दिक्कत और कोमा में जाने की घटनाओं पर नज़र रखी गई.
वैज्ञानिकों के अनुसार अमेरिका में वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर में भर्ती ऐसे मरीजों में देखा गया कि उनकी पसंद और परिवारिक यात्रा पर प्रतिबंध इन रोगियों की दिमागी समस्या बढ़ाने में अहम कारण बने.
उन्होंने कहा कि आईसीयू में इलाज कराने की महंगी व्यवस्था और फिर मौत के खौफ ने आईसीयू से संबंधित लोगों के मन में उपजे सवालों ने ऐसे लोगों में जोखिम को और बढ़ा दिया. अध्ययन में लगभग 82 प्रतिशत रोगियों को 10 दिन के लिए बेहोश किया गया था, और 55 प्रतिशत को तीन दिन के लिए अचेत किया गया था. वैज्ञानिकों ने बताया कि तीव्र मस्तिष्क शिथिलता औसतन 12 दिन तक इनमें बनी रही. वीयूएमसी के सह-लेखक ब्रेंडा पुन ने कहा, कोरोना वायरस के मामले में "यह आईसीयू में दूसरे वजहों से रखे गए मरीजों की तुलना में दोगुणा है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि कोरोना वायरस रोगियों को तीव्र मस्तिष्क शिथिलता की तरफ ले जाता है जहां या तो शख्स कोमा में चला जाता है या फिर उसका दिमाग शिथिल हो जाता है. COVID-19 के संबंध में, वैज्ञानिकों का मानना है कि नए प्रोटोकॉल तीव्र मस्तिष्क आघात को दूर करने में मददगार साबित होते हैं जो आमतौर पर कई गंभीर रूप से बीमार रोगियों को प्रभावित करते हैं.
पुण ने कहा, "हमारे निष्कर्षों में यह साफ है कि कई आईसीयू में जिस तरह से कोरोना मरीजों का इलाज किया जाता है वो आईसीयू में इलाज के सर्वोत्तम गाइडलाइन के अनुरूप नहीं है. उन्होंने कहा, कोविड -19 की प्रारंभिक रिपोर्टों में बताया गया है कि फेफड़े की शिथिलता से गहरी बेहोशी जैसी हालत में इलाज के उच्चतम प्रबंधन तकनीकों की आवश्यकता होती है.
इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड से रोगी की समस्याओं, देखभाल की व्यवस्थाओं का मूल्यांकन के बाद निष्कर्षों का विश्लेषण करते हुए, वैज्ञानिकों ने पाया कि अध्ययन में ट्रैक किए गए लगभग 90 प्रतिशत रोगियों को अस्पताल में भर्ती के दौरान कुछ बिंदु पर उस तरह का उपचार नहीं मिला जैसा उनके शरीर को मिलना चाहिए था. वैज्ञानिकों ने कहा कि बेंजोडायजेपाइन के संक्रमण वाले मरीजों में बेहोशी या कोमा में जाने का खतरा 59 फीसदी अधिक था.