15 साल पुरानी बात है जब चमोली के रैणी गांव में ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बनने की शुरूआत हुई. ढेर सारे बुलडोजर गांव और नदी के आसपास आ गए. कई खेत खराब कर दिए गए. इस गांव के रहने वाले कुंदन सिंह को सबसे ज्यादा दुख हुआ गांव के खेल का मैदान को खोने का. आइए जानते हैं कुंदन सिंह की जुबानी...कि ऋषिगंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की वजह से उनके गांव में क्या-क्या बदलाव आए? (फोटोःरॉयटर्स)
48 वर्षीय कुंदन सिंह ने कहा कि 15 साल पहले की बात है कि मैं चीड़ के पेड़ों के बीच मौजूद खेल के मैदान में टूर्नामेंट खेल रहा था. तभी ढेर सारे बुलडोजर रैणी गांव में पहुंचे. ये बुलडोजर ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के लिए जगह बनाने के लिए आए थे. इस प्रोजेक्ट की वजह से गांव के कई खेत खत्म हो गए. ग्रामीण आजतक इस प्रोजेक्ट की वजह से हुए नुकसान की शिकायत करते हैं. (फोटोःगेटी)
कुंदन सिंह ने कहा कि प्रोजेक्ट बनाना अच्छी बात है लेकिन उसकी वजह से ग्रामीणों को परेशान करना ठीक नहीं है. यहां पर इतनी तेजी से ढांचागत विकास हुआ जिसकी वजह से गांव के लोग तो परेशान हुए ही. यहां के पहाड़ों पर भी असर हुआ. प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया गया है. यहां हो रहे कंस्ट्रक्शन की वजह से ग्रामीणों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. (फोटोःगेटी)
कुंदन ने बताया कि उनके गांव के दो दर्जन से ज्यादा ग्रामीण कई कानूनी और तकनीकी दस्तावेज, सैटेलाइट इमेज, फोटोग्राफ्स दिखाते हुए कहते हैं कि यहां पर नए कंस्ट्रक्शन की वजह से हमें कितनी दिक्कत हुई है. आप इन तस्वीरों और दस्तावेजों में देखेंगे कि रैणी गांव में कितना बदलाव आया है. इस बदलाव की वजह से ग्रामीणों का अक्सर प्रशासन के साथ विवाद होता रहता है. (फोटोःगेटी)
कुंदन ने बताया कि हम ऐसे विकास के खिलाफ हैं, जिसकी वजह से हमें परेशानी होती है. हम कोर्ट गए, अधिकारियों से मिले, सैकड़ों दफा शिकायतें की लेकिन नतीजा हमेशा सिफर ही रहा. किसी ने नहीं सुना. (फोटोःगेटी)
Growing up in a remote tribal village high in the Indian Himalayas, Kundan Singh loved to play on a field by the sparkling Rishiganga river. https://t.co/OUVXHBH3IC
— Reuters Science News (@ReutersScience) February 22, 2021
कुंदन ने बताया कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भूटिया आदिवासी समुदाय के 150 ग्रामीण तिब्बत से आकर यहां बसे थे. सरकार की तरफ से सुविधाएं मिलने के बाद इन्हें नौकरियों में, पढ़ाई में कोटा मिला. इन लोगों ने मेहनत करके अपने जीवन का स्तर सुधारा. बुनाई की, कंस्ट्रक्शन के काम में लगे. आलू उगाए, दलहन पैदा किए. (फोटोःगेटी)
जब ऋषिगंगा प्रोजेक्ट आया तो गांव वाले खुश हुए क्योंकि उन्हें नौकरी देने की बात कही गई थी. इस बात की पुष्टि 2006 में कोर्ट में दिए गए दस्तावेज में इस बात की जिक्र किया गया था. ये सारी बातें ग्रामीणों, स्थानीय नेताओं और प्रोजेक्ट के अधिकारियों के बीच हुई थी. प्रोजेक्ट तो शुरू हो गया, लेकिन ग्रामीणों को कोई नौकरी नहीं दी गई. इसके अलावा प्रोजेक्ट की आड़ में कंस्ट्रक्शन को लेकर कई नियम तोड़े गए. (फोटोःगेटी)
कुंदन ने कहा कि पंजाब की एक पेंट कंपनी ने बांध बनाने का शुरूआती प्रोजेक्ट अपने हाथ में लिया था. उसने 2015 तक अपना एकाउंट फाइल नहीं किया. उसके अधिकारियों से मिलने की कई कोशिश बेकार चली गई. प्रोजेक्ट बैंकरप्ट हो गया. बाद में 2018 में इसे कुंदन ग्रुप ने टेकओवर किया. उसने पिछले साल इस प्रोजेक्ट पर अपना काम शुरू किया था. इसके अधिकारी भी किसी से बात नहीं करते थे. (फोटोःगेटी)
साउथ एशिया नेटवर्क्स के कॉर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि भारत 2030 तक अपनी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की क्षमता दोगुनी करना चाहता है. इसलिए ऐसी स्थिति में बांध बनाने वाली कंपनियों, अधिकारियों और ग्रामीणों के बीच मतभेद होना जायज है. आमतौर पर ऐसा हर प्रोजेक्ट के साथ होता है. (फोटोःगेटी)