झारखंड विधानसभा चुनाव के जो नतीजे अब तक सामने आए हैं, उसके मुताबिक राज्य में बीजेपी को महागठबंधन (जेएमएम, कांग्रेस, आरजेडी) के हाथों करारी शिकस्त मिली है. इस हार की जिम्मेदारी लेते हुए राज्य के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा कि यह बीजेपी की नहीं बल्कि उनकी हार है. बीजेपी के बागी सरयू राय के हाथों रघुवर दास अपनी भी सीट नहीं बचा पाए.
एक कहावत हमारे देश में बहुत प्रचलित है कि इतिहास खुद को दोहराता है.
शायद यही रघुवर दास के साथ भी झारखंड में इस बार के चुनाव में हुआ है. साल
1995 में रघुवर दास जिस नेता को जमशेदपुर से हराकर पहली बार विधायक बने
थे वो दीनानाथ पांडे थे. दीनानाथ पांडे वहां के कद्दावर नेता थे लेकिन
अहंकार और बुरे बर्ताव की वजह से उन्हें बीजेपी ने 1995 में टिकट देने से
इनकार कर दिया और उनकी जगह रघुवर दास को मैदान में उतार दिया. इससे बुरी
तरह नाराज होकर दीनानाथ पांडे बीजेपी उम्मीदवार रघुवार दास के खिलाफ उसी
सीट से मैदान में उतर गए लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस रघुवर दास को साल 2014 के विधानसभा चुनाव
में जीत के बाद मुख्यमंत्री बनाकर मोदी और शाह की जोड़ी ने सबको चौंका दिया
था उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत अटल-आडवाणी के दौर वाली बीजेपी में हुई
थी. वो आडवाणी ही थे जिन्होंने एक मिल मजदूर को विधायक का टिकट देकर साल
1995 में पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचाया था.
70 के दशक में टाटा स्टील प्लांट के रोलिंग मिल में मजदूरी करने वाले सीएम रघुवर दास को जिस वक्त लाल कृष्ण आडवाणी के बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए विधानसभा का टिकट मिला था, उस वक्त वो बीजेपी के जिला महामंत्री के तौर पर काम करते थे.
ठीक 1995 की तरह ही इस बार बीजेपी ने रघुवर सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे सरयू राय को जमशेदपुर पश्चिम से टिकट देने से इनकार कर दिया, जिसके बाद वो बागी हो गए. स्थानीय पत्रकार और राजनीतिक पंडितों का मानना है कि सरयू राय के टिकट कटने में रघुवर दास की अहम भूमिका थी. इसके बाद सरयू राय भी दीनानाथ पांडे की तरह बागी हो गए और उन्होंने अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ चुनावी ताल ठोंक दिया और उन्हें हरा भी दिया.
सत्ता के शिखर पर यानी मुखमंत्री पद मिलने के बाद रघुवर दास पर राज्य बीजेपी ईकाई के कई नेता यह आरोप लगाते थे कि वो अहंकारी हो गए हैं और वो किसी को इज्जत नहीं देते थे. ऐसे आरोप लगाने वालों में अर्जुन मुंडा गुट के ज्यादा लोग शामिल थे. ऐसे में यह भी कयास लगाए जा रहे हैं कि दोस्त से ज्यादा दुश्मन बना लेने की वजह से ही रघुवर दास को इस चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा.