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दिल्‍ली: एक सदी का सफर

देश की हुकूमत चलाने वाली दिल्ली, तकदीरें बनाने और बिगाड़ने वाली दिल्ली, आपकी और हमारी दिल्ली 100 बरस की हो गयी है. नई दिल्ली को बनाया भले ही अंग्रेजों ने लेकिन इसे संवारने और कई बार बिगाड़ने का भी काम हम हिन्दुस्तानियों ने ही किया.

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था ज़ौक पहले दिल्ली में पंजाब का सा हुस्न
पर अब वोह पानी कहते हैं मुल्तान बह गया

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ज़ौक को क्या पता था कि जिस दिल्ली के सूरते हाल पर उनकी आह निकल रही है, सदी का पन्ना पलटते पलटते इसी दिल्ली की खूबसूरती और रसूख पर लोग रश्क करेंगे. देश की हुकूमत चलाने वाली दिल्ली, तकदीरें बनाने और बिगाड़ने वाली दिल्ली, आपकी और हमारी दिल्ली 100 बरस की हो गयी है.

नई दिल्ली को बनाया भले ही अंग्रेजों ने लेकिन इसे संवारने और कई बार बिगाड़ने का भी काम हम हिन्दुस्तानियों ने ही किया. दिल्ली की उम्र के इस सौवें पड़ाव पर आइये मुड़ कर देखते हैं कि दिल्ली कैसे बनी नई दिल्ली.

बात 1910 की है जब इंग्लैंड के नए राजा जॉर्ज पंचम की ताजपोशी हुई. तब तक देश पूरी तरह अंग्रेजी हुकूमत का गुलाम बन चुका था. कलकत्ता के रास्ते हिन्दुस्तान आने वाले अंग्रेज़ वहीं से देश की सत्ता चला रहे थे. एक नयी राजधानी की ज़रूरत अंग्रेजो को कई साल से महसूस हो रही थी लेकिन बंगाल के बंटवारे के फैसले ने इस ज़रूरत को मजबूरी बना दिया. 1905 में हुए बंगाल के बटवारे का विरोध इतना बढ़ चुका था कि अंग्रेजों ने राजधानी वहां से समेटने में ही होशियारी समझी. इसके लिए नए राजा की ताजपोशी से बेहतर मौका क्या हो सकता था.

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12 दिसम्बर 1911, यही वो तारीख थी जब दिल्ली में शाही दरबार लगा. पहली बार खुद राजा और रानी दोनो इस दरबार में मौजूद थे. सौ साल पहले की उस दरबार में ब्रिटिश हुकूमत की शानो शौकत का जलवा हर तरफ बिखरा था. जब दरबार खत्म होने को था तो बड़े ही नाटकीय तरीके से इंग्लैंड के राजा ने खुद खड़े होकर एलान कर दिया कि अब हिंदुस्तान की राजधानी होगी दिल्ली. दिल्ली दरबार ख़तम होने के तीन दिन बाद राजधानी की नींव रखी गयी. किंग और क्वीन ने शिला रखी. नयी राजधानी के एलान के बाद किंग्सवे कैंप के पास एक अस्थायी राजधानी बनाई गयी. फिर शुरू हुई राजधानी के लिए ज़मीन हासिल करने की कवायद.

दिल्ली उस समय अविभाजित पंजाब प्रान्त का हिस्सा थी. नयी दिल्ली बनाने के लिए दिल्ली और वल्लभगढ़ तहसील के 128 गांवों की करीब सवा लाख एकड़ ज़मीन ली गयी. और दिल्ली के शिलान्यास के सिर्फ 9 दिन बाद 21 दिसंबर 1911 को पचास हज़ार किसानों और काश्तकारों को अधिग्रहण का नोटिस थमा दिया गया. नयी राजधानी के लिए अधिग्रहित गांव की ज़मीन में मालचा, रायसीना, मंगलापुरी, जैसिंघ्पुरा, तालकटोरा, बाराखम्बा जैसे गांव शामिल थे.

अंगरेज़ चाहते थे कि उनकी दिल्ली मुग़लिया दिल्ली से बिलकुल अलग दिखे. इसके लिए मशहूर आर्किटेक्ट एडविन लुटियन और उनके साथी हर्बर्ट बेकर को 1912 में दिल्ली बुलाया गया. लुटियन ने आते ही नींव का पत्थर डाली गयी कोरोनेशन पार्क की ज़मीन को तंग और मलेरिया के खतरे से भरी बताते हुए अनफिट करार दे दिया. फिर शुरू हुई नयी ज़मीन की खोज जो रायसीना हिल पर आके रुकी. किंग्सवे कैंप पर जॉर्ज पंचम का लगाया पत्थऱ रातों रात चार मील दूर लगे इस रायसीना हिल पर पंहुचा दिया गया. यह बात मई 1913 की है. जहां ये पत्थर रखे गए आगे चल कर वहीं पर ये नॉर्थ और साउथ ब्लाक बने.

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अब शुरू हुआ रायसिना हिल्स की बंजर और पथरीली पहाड़ियों के आसपास देश की राजधानी की सबसे शानदार इमारतें बनाने का काम. मालचा गांव के पीछे की ज़मीन पथरीली थी, सो वहां पत्थर की खदान बनाई गई और पत्थर ढोने के लिए एक रेलवे लाइन भी बिछाई गयी. और फिर रायसिना हिल्स, जहां आज सत्ता और सियासत का शोर गूंजता है, वहां सौ साल पहले बारूद के धमाको की गूंज सुनाई पड़ रही थी. आज जहां संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सरकारी दफ्तरों और मंत्रियों-सांसदों के बंगले दिखाई पड़ते हैं, उन्हें तैयार करने के लिए रायसिना हिल्स को डायनामाइट से उड़ाया गया.

नई दिल्ली बन रही थी. और उसमें सबसे दिलचस्प और पेचीदा काम था संसद भवन का निर्माण. इसकी शिल्प और शैली को लेकर दोनो आर्किटेक्ट लुटियन और बेकर में ठन गयी. संसद भवन के निर्माण का ज़िम्मा बेकर के पास था जिन्होंने इसका आकार कुछ ऐसा तय किया. लेकिन लुटियन इसे गोलाकार बनाने पर अड़ गए और आखिरकार लुटियन की ही चली. 1921 में संसद भवन का शिलान्यास हुआ और पांच साल बाद 80 लाख रुपये की लागत से ये तैयार हुआ. देश की नौकरशाही के गढ़ नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के डिजाईन का श्रेय बेकर को जाता है. 1930 में तैयार हुई इन दो इमारातो को दुनिया के सबसे भव्य सरकारी दफ्तरों में गिना जाता है.

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गोल गुंबद वाला राष्ट्रपति भवन जब बना तो इसका नाम था वायसराय हाउस. क्योंकि तब इस महल में वायसराय रहते थे. ब्रिटिश हुकूमत की हिंदुस्तान में सबसे बड़ी हस्ती. लुटियन की डिजाइन पर ये राजमहल 17 साल में बन कर तैयार हुआ. लेकिन लुटियन का मास्टर पीस अभी आना बाकी था. उन्हें दिल्ली को नई पहचान देनी थी, जिसके लिए लुटियन के दिमाग में उभरा इंडिया गेट का नक्शा. संसद भवन सिर्फ पांच साल में बन गया था लेकिन इंडिया गेट को बनने में पूरे दस साल लग गये. और इसका शिलान्यास 1921 में उसी ड्यूक ऑफ कनॉट ने किया था, जिनके नाम पर दिल्ली के पहले और सबसे पॉश मार्केट का नाम पड़ा कनॉट प्लेस.

शहर बसना शुरू हो गया, सात समंदर पार वाले बाशिंदे आने लगे तो उन्हें अपने मनमाफिक बाजार की तलब पूरी हुई कनॉट प्लेस से. आज आलीशान शोरूम्स और जगमग लोगों की रौनक से गुलज़ार राजीव चौक तब कीकर के जंगलों से घिरा गांव था- माधोगंज गाव. 1920 में क्नॉट प्लेस का काम शुरू हुआ. घोड़े की नाल के आकार में बना ये बाज़ार उस वक़्त यूरोप के बाज़ारों को खूबसूरती और शानो शौकत में पूरी टक्कर देता था. क्नॉट प्लेस की चमक-दमक में माधोगंज का भुतहा जंगल तो खत्म हो गया, लेकिन दिल्ली का दिल बनाने में लुटियन साहब से उस वक्त एक ऐसा फॉल्ट हो गया था, जो आजतक दुरुस्त नहीं हुआ. उस ज़माने में भी बरसात के दिनों में क्नॉट प्लेस का वही हाल हो जाता था जो आज एक फुहार पड़ते ही हो जाता है. वही कीचड़ और सड़कों पर वही गंदा पानी. लेकिन एक मजेदार बात और भी है. सेंट्रल पार्क की सूरत भले ही तब थोड़ी अलग थी लेकिन तब भी वहां वही होता था जो आज होता है. बस आराम फरमाना और गप्पें लड़ाना.

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पूरे 20 साल की तैयारी के बाद दिल्ली सही मायने में देश की राजधानी बनकर उभरी. 15 फ़रवरी 1931 को औपचारिक तौर पर नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ. लेकिन तब कोई नहीं जानता था कि आने वाले दिनों में कैसी उभरने वाली है दिल्ली की एक और सूरत. अंग्रेजों ने देश पर राज करने के लिए दिल्ली में डेरा डाल लिया था. अपने लिए नई दिल्ली बना ली थी. दिल्ली का वर्तमान चमक रहा था लेकिन भविष्य धुंधलाया हुआ था. इसी धूंध को मिटाने के लिए अंग्रेजों के सिपहसालारों ने उन्हें भविष्य की तस्वीरें दिखानी शुरू कीं. हालांकि अंग्रेजों ने 1881 में ही सेंट स्टीफंस कॉलेज बना दिया और 1899 में हिंदू कॉलेज बनकर तैयार हो गया. 1917 में रामजस कॉलेज भी बन चुका था. इसलिए अंग्रेज यूनिवर्सिटी के नाम पर अनमने थे. लेकिन दबाव बना तो 1922 में तीनों कॉलेजों को मिलाकर बनी दिल्ली यूनिवर्सिटी.

अंग्रेज शायद यूनिवर्सिटी के लिए कभी तैयार नही होते. लेकिन नई दिल्ली में आकर उन्हें अपनी दरियादिली का दिखावा भी करना था और उस दिखावे की जेब से निकले महज 40 हजार रुपये-दिल्ली यूनिवर्सिटी के लिए. अंग्रेज साहब बहादुरों ने यूनिवर्सिटी बना दी तो देसी रायबहादुर क्या स्कूल भी नहीं बनवा सकते थे. शायद इसीलिए यूनिवर्सिटी के लिए नई पौध तैयार करने के मकसद से लाला रघुवीर सिंह और सर शोभा सिंह ने दिल्ली में खोला मॉडर्न स्कूल. 1920 में खुला ये स्कूल 1932 तक बड़ी शक्ल ले चुका था. नई दिल्ली में नए जमाने की तालीम का यहीं से श्रीगणेश हुआ. एक तरफ ज्ञान की बड़ी-बड़ी पाठशालाएं खुलीं तो दूसरी तरफ धर्म के बड़े-बड़े मंदिर भी बनने लगे. उस दौर में ज्यादातर मंदिरों पर जातियों का ताला लटका रहता था. तभी नई दिल्ली में एक ऐसा मंदिर बना, जहां छुआछूत के लिए नो एंट्री का बोर्ड टांग दिया गया.

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अंग्रेजी हुकूमत के धमक के बीच ही देश गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व की गर्मी भी महसूस कर रहा था. गांधी की सोच को पूरा देश सलाम कर रहा था. वो एक ऐसा भारत बना रहा था, जो हर तरह की गुलामी से मुक्त हो सके. ऐसे ही एक मंदिर की बुनियाद रखी गयी 1933 में. 1939 में जब बिड़ला का लक्ष्मीनारायण मंदिर बन कर तैयार हुआ तो गांधी जी ने इसका उद्घाटन ही इस शर्त पर किया कि यहां हर जात के लोगों का आने की इजाज़त होगी. आज़ादी से पहले ही आजादी के सिद्धांत दिल्ली वालों की सोच बदल रहे थे. लेकिन नई दिल्ली की सोहबत में रहकर भी नहीं बदल रही थी पुरानी दिल्ली की परंपरा.

कीकर के जंगलों को साफ करके नई दिल्ली तो बन गयी लेकिन दिल्ली की जान चांदनी चौक तब भी अपने ढर्रे पर चल रही थी. जहां कभी मुगलिया सल्तनत के शहजादे-शहजादियां तफरीह के लिए आते थे. हवेलियों के झरोखों से दिल्ली अपने पड़ोस में बसती हुई नई दिल्ली को देख रही थी. लेकिन उसकी जिंदगी परंपरा के पुराने पहियों पर ही चल रही थी. नए दौर ने चांदनी चौक में भी ग्लैमर की चांदनी बिखेर दी, लेकिन पुरानी पहचान आज भी कायम है. चाहे परांठे वाली गली हो या फिर व्यापार का परंपरागत तरीका, थोड़े बहुत बदलाव के साथ वो आज भी जारी है. गुलामी के दौर में सत्ता का पताका बेशक अंग्रेज आर्किटेक्ट लुटियंस की बसाई नई दिल्ली में लहराता रहा, लेकिन आजाद भारत में तिरंगे को सबसे बड़ी सलामी पुरानी दिल्ली की सबसे बड़ी पहचान लालकिले पर ही मिलती है.

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14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को, जब दुनिया सो रही थी, तब आजादी के घड़ियाल से हिंदुस्तान जाग रहा था. उस जागरण का अलख दिल्ली में जगा, जो तब तक मुल्क का मुस्तकबिल लिखने लगा था. नई दिल्ली 36 साल की हो चुकी थी. लेकिन उस रात आजादी की खुशियों में नहाई नई दिल्ली का जन्म हुआ. जहां गोरों का राज नहीं था, बल्कि आम हिन्दुस्तानी नए भारत में अपनी नई हैसियत का सपना देख रहा था. नेहरू के ऐतिहासिक भाषण के साथ दिल्ली ही नहीं देश की तकदीर का भी पन्ना पलटा और आज़ाद भारत के नए अध्याय की शुरुआत हुई. 15 अगस्त 1947 को मानो पूरी दिल्ली संसद भवन पर उमड़ आई. यकीन करेंगे आप कि ये वही संसद भवन है जहां आम आदमी तो छोड़िये, बगैर इजाज़त परिन्दा भी पर नही मार सकता. लेकिन तब का दृश्य देखिए- क्या प्रधान मंत्री और क्या आम आदमी-जश्ने आज़ादी में हर शख्स सिर्फ एक हिन्दुस्तानी की हैसियत से कंधा मिलाए खड़ा था. नई दिल्ली की मुंडेर से नए हिंदुस्तान का नक्शा देखने की दिलचस्पी और आंखों में खुशियों के आंसू लिए.

लेकिन गुलामी की ज़ंजीरें टूटने की खुशी देश के बंटवारे के घाव के साथ आई. अपना सब कुछ लुटा कर आए लाखों शरणार्थियों के लिए नई ज़िन्दगी की नई उम्मीद नई दिल्ली से ही थी. इसी उम्मीद की बुनियाद पर दिल्ली एक अलग सिरे से बसनी शुरू हुई. लाजपतनगर, राजेन्द्रनगर, निज़ामुद्दीन, ईस्ट पंजाबी बाग, ग्रेटर कैलाश, किंग्सवे कैंप जैसे इलाक़ो में शरणार्थियों के लिए नई बस्तियां बसाई गईं. ये इन लोगों का हौसला और दिल्ली की दरियादिली ही थी कि तब के रिफ्यूजी कैंप्स आज की दिल्ली के सबसे पॉश इलाकों में से हैं.

50 और 60 के दशक राष्ट्र निर्माण के दशक थे. देश भर में बांध, सड़क, उघोगों का जाल बिछ रहा था, लेकिन दिल्ली में ज़िन्दगी की रफ्तार में देव साहब सी मस्ती और बेफिक्री थी. हिंदुस्तान का विस्तार हो चुका था और अब दिल्ली को निभानी थी नए हिंदुस्तान की हर ज़रूरत पूरी करने और विकास की नई राह दिखाने की जिम्मेदारी.

नई दिल्ली अब नई राह पर नई मंज़िलों की ओर बढ़ चुकी थी. शहर की पहचान बनने वाले कई अहम संस्थान ज़रूर वजूद में आए, जिनमें सबसे खास था 1956 में बन कर तैयार हुआ ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्सेज़ यानी एम्स, जिसका आज भी देश में कोई सानी नहीं तो 1961 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी का दिल्ली में कैंपस खोलने का 16 साल पुराना सपना भी साकार हो गया. 1969 में शुरू हुई जे एन यू ने दिल्ली वालों शिक्षा के अंतराष्ट्रीय स्तर से वाकिफ कराया. 1962 में दिल्ली हवाई अड्डे को उस जगह पर शिफ्ट कर दिया गया जिसे आज हम इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल-थ्री यानी टी 3 के नाम से जानते हैं.

दिल्ली के विकास ने असली रफ्तार खेल खेल में पकड़ी जब एलान हुआ कि 1982 के एशियन गेम्स की मेज़बानी दिल्ली करेगी. वैसे तो 1951 में पहले एशियन गेम्स दिल्ली में ही हुए थे लेकिन तब इनके बारे में कोई जानता नहीं था. अगले 30 साल में एशियाड की साख काफी बढ़ चुकी थी. सो 82 के एशियाई खेल दिल्ली की साख का सवाल भी बन गए.

हिंदुस्तान की लाज़ अब दिल्ली के हाथों में थी, लिहाज़ा दिल्ली को चमकाने की महापहल शुरू हुई. अंग्रेजों ने विकास को सपाट सड़कों पर दौड़ाया था, लेकिन अब दिल्ली की तरक्की उड़ान भरने की तैयारी में थी. 1979–80 में दिल्ली ने देखा अपना पहला फ्लाईओवर- सफदरजंग और डिफेंस कोलोनी के बीच. इस ऊंचाई से ही खेल के वो मैदान भी दिखने लगे, जिनसे पता कि हिंदुस्तान अब ना सिर्फ अपने पैरों पर खड़ा है बल्कि दुनिया से कदमताल कर रहा है. एशियाड खेलों के लिए जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम बना तो सीरी फोर्ट का खेलगांव भी एशियाई खिलाड़ियों की मेजबानी के लिए तैयार हुआ. सचमुच 1982 के एशियाई खेलों ने दिल्ली की तो सिर्फ सूरत बदली लेकिन साउथ दिल्ली की तकदीर भी बदल गई. साउथ दिल्ली के जो इलाके अंग्रेजों से भी बसाए नहीं बस पा रहे थे एशियाड के बाद उसी साउथ दिल्ली में रहना स्टेटस सिंबल बन गया.

रायसिना हिल्स से शुरू हुआ नई दिल्ली का सफर अब दिल्ली की सरहद में समा नहीं रहा था. दिल्ली देश के साथ दिलों की राजधानी भी बन चुकी थी. 1926 में नई दिल्ली को देश के रेल नेटवर्क से जोड़ने के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन शुरू हो चुका था और आज़ादी के बाद देश के किसी शहर से दिल्ली दूर नहीं रह गई थी. दिल्ली में लोगों की रेलमपेल शुरू हुई, तो एहसास हुआ कि दिल्ली का दिल जितना विशाल है, इसकी सरहदें उतनी ही तंग हैं. तब याद आया 1962 में दिल्ली के पहले मास्टर प्लान में दिया गया एन सी आर बनाने का प्रस्ताव. प्लान बनने के लगभग दो दशक बाद आखिरकार संसद ने बिल पास करके 1985 में नेशनल कैपिटल रीजन को अमली जामा पहना दिया. अब दिल्ली को कोई फिक्र नहीं थी. विस्तार के लिए ना जमीन कम थी, ना ही उड़ने के लिए आसमान. दिल्ली ने अपनी सीमा से सटे यूपी के नोएडा और गाजियाबाद और हरियाणा के गुड़गांव, सोनीपत और फरीदाबाद को बांहे फैलाकर अपना लिया.

एक कवि ने कहा है कि कौन करेगा उनसे प्यार, जो रहे जमुना पार. जमुना पार के लोग भी शायद यही सोचते थे कि दिल्ली अब भी उनसे दूर है. लेकिन बदलते वक्त ने जमुनापार के कई इलाकों को दिल्ली के पॉश इलाकों में खड़ा कर दिया. मजदूरों और मजबूरों की बस्तियों के बीच नई दिल्ली का ग्लैमर अब ग्रेटर दिल्ली तक पहुंचने लगा था. जिस यमुना पार इलाके को दिल्ली अपने दिल में नहीं बसा पा रही थी, उसी यमुना पार में 1974 में शुरू हुई मदर डेयरी ऐसा ठिकाना बन गई, जिसके बिना दिल्ली की सुबह अधूरी थी.

नई दिल्ली में श्वेत क्रांति के दस बरस बीत चुके थे. हमेशा बिना किसी भेदभाव के सबको अपने दिल से लगाने वाली दिल्ली में पहली बार नफरत के शोले भड़के. 31 अक्टूबर 1984 यही वो तारीख थी, जब दिल्ली मनहूसियत में डूब गई. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उन्हीं के सुरक्षा कर्मियों ने गोलियों से भून डाला. इस घटना ने दिल्ली की सोच बदल दी. हमेशा तरक्की के बारे में सोचने वाली दिल्ली ने पहली बार बदले की भावना से सोचना शुरू किया, जिसका अंज़ाम था भयानक दंगा. गुनाह चंद सिरफिरों का था, जिसकी सज़ा पूरी कौम को देने की सनक सवार हो गई.

दिल्ली ने वो दर्द भी अपने सीने पर झेल लिया. दंगों की आग बुझी तो एक बार फिर नई दिल्ली निकल पड़ी नए सफर पर, तकनीक के पंख लगाकर दुनिया को नए भारत से रूबरू कराने की उड़ान भरने का दौर इन्हीं दंगों के बाद शुरू हुआ. इंदिरा गांधी के बाद देश की कमान युवा राजीव गांधी के हाथों में थी. दिल्ली की बुनियाद मजबूत हो चुकी थी, ज़रूरत थी रफ्तार की.

अब तक ट्रंक काल और टेलीग्राम के जरिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाने वाली दिल्ली देश के संचार क्रांति की राजधानी बनी 1986 में. महानगर टेलीफोन लिमिटेड यानी एमटीएनएल की शुरुआत छोटी सी थी, सिर्फ दिल्ली और मुंबई के लिए शुरू हुई इस टेलीफोन सेवा ने पूरे देश को आपस में जुड़ने का सीधा, आसान और बेहद स्पीड वाला रास्ता दिखा दिया.

1980 के दशक में दिल्ली ने भांप लिया था कि आने वाला वक्त तेज़ी से बदलने वाला है. इसके लिए हिंदुस्तान को भी बदलना पड़ेगा और हिंदुस्तान को रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी दिल्ली को ही निभानी होगी. इसी सोच के साथ दिल्ली ले आई एक छोटी सी कार. 1980 में जापान के सहयोग से गुड़गांव में मारुति कार कंपनी की बुनियाद पड़ी.

1984 में छोटी, मगर किफायती मारुति कारों की पहली खेप सड़कों पर उतरी और दिल्ली दौड़ पड़ी पूरी रफ्तार से. बैलगाड़ी और तांगे से शुरू हुआ दिल्ली का सफर तब तक सुहाना था, जब तक ट्राम का जमाना था. आज़ादी के बाद नई दिल्ली की रफ्तार तो बढ़ी, लेकिन तरक्की अब दिल्ली से अपनी कीमत वसूल रही थी. अंग्रेजों के जमाने में साहब बहादुरों की बग्घी और मोटरकार की जगह दौड़ती-भागती गाड़ियों के धुएं में दिल्ली का दम घुटने लगा. 1948 में दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विस के नाम पर दिल्ली में आम लोगों के लिए जब बसें चलनी शुरू हुईं, तो दिल्ली वाले खुश थे.

1958 में संसद ने इसे दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन में बदल दिया, लेकिन नाम बदलने से क्या होता. इन बसों में डीज़ल जलता रहा और ज़हरीले धुएं से दिल्ली का कलेजा. पानी नाक तक आ गया, तो सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद डीज़ल वाली बसों की जगह सीएनजी बसें दिल्ली की धड़कन बन गईं. दिल्ली ने चैन की सांस ली, लेकिन बढ़ती आबादी के बोझ तले दिल्ली का दम अब भी घुट रहा था.

डीटीसी का बोझ घटाने के लिए लोकल ट्रेनें तो थीं, लेकिन उनका नेटवर्क बेहद कमज़ोर था. और तभी दिल्ली का कायाकल्प करने के लिए आ गई मेट्रो. 1995 में जब दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन वजूद में आया, तब दिल्ली ने सोचा भी नहीं था कि अगले सात साल में मेट्रो रेल उसकी लाइफ लाइन बन जाएगी. 2002 में दिल्ली पहली बार मेट्रो रेल पर सवार हुई. दिल्ली मेट्रो का ये पहला सफर था दिलशाद गार्डेन से रिठाला के बीच जो कब नई दिल्ली से पुरानी दिल्ली और फिर एनसीआर की जान बन गई, ये पता ही नहीं चला.

दिल्ली अब वर्ल्ड क्लास सिटी बनने की राह पर एक कदम और बढ़ गई थी. पांच सितारा होटल्स तो पहले से थे, अब दिल्ली में पांच सितारा हॉस्पिटल्स का दौर शुरू हो चुका था. 1951 में चैरिटेबल अस्पताल के तौर पर शुरू हुआ सर गंगाराम अस्पताल को टक्कर देने के लिए बड़े औद्योगिक घरानों के अस्पताल धड़ाधड़ खुलने लगे. दिल्ली अब तैयार थी दुनिया को अपनी चमक-दमक से दंग करने के लिए. 20वीं सदी के अंत तक दिल्ली अंग्रेजों की इमारत में अपनी पहचान ढूंढ़ती थी. लेकिन इक्कीसवीं सदी में कदम रखते ही दिल्ली ने रखी अपनी नई पहचान की नींव. यमुना किनारे अक्षरधाम.

अक्षरधाम से 21वीं सदी के दिल्ली की शुरुआत हुई तो उसका अगला पड़ाव बना कॉमनवेल्थ गेम्स. पहली बार दिल्ली आ रहे थे 71 देशों के खेलदूत और दिल्ली इनकी अगवानी के लिए खुद को सजाने-संवारने में जुट गयी. 1982 के एशियाड खेलों के बाद दिल्ली की चमक में कोई चांद-सितारा नहीं जुड़ा था. अब उन सबकी भरपाई करने का मौका था. दिल्ली में स्टेडियम तो थे लेकिन उन तक पहुंचने के रास्ते तंग हो गये थे. लिहाजा पहली बार बड़े पैमाने पर दिल्ली को ट्रैफिक के लालबत्तियों के जाल से निकालने की मुहिम शुरू हुई. फ्लाईओवर और अंडरपास का जाल बिछ गया. दुनिया ने 3 अक्टूबर 2010 को एक अलग ही नई दिल्ली देखी. चमकती-दमकती दिल्ली. लेकिन इस दमक के पीछे एक बड़ा दाग भी था. दिल्ली का सफर इस असमंजस के साथ जारी है कि दाग छुपाए या चमक-दमक पर इतराए.

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