यह दावा, जो संसदीय कार्यमंत्री पवन कुमार बंसल ने किया था, कि तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा के बीच 30 जनवरी, 2008 को हुई महत्वपूर्ण बैठक का कोई लिखित ब्यौरा नहीं रखा गया, अब गलत साबित हो चुका है. जिस दिन राजा ने नौ ऑपरेटरों को आशय पत्र जारी किए, उसके 20 दिन बाद हुई इस बैठक का ब्यौरा इंडिया टुडे के पास उपलब्ध है.
इस बैठक में दूरसंचार विभाग (डीओटी) के पूर्व सचिव सिद्धार्थ बेहुरा, जो इस समय राजा के साथ ही जेल में बंद हैं, पूर्व वायरलेस सलाहकार पी.के. गर्ग, जिन्हें 2जी मामले में गवाहों की सूची में रखा गया है, और तत्कालीन वित्त सचिव तथा इस समय भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बा राव भी मौजूद थे. ब्यौरा लिखने का जिम्मा उनको दिया गया था.
बैठक में, जिसके होने का ही अभी तक सिरे से खंडन किया जाता रहा है, चिदंबरम ने सुझाव दिया था कि ''अनुभव से सीखे गए सबक के मद्देनजर लाइसेंसों के आवंटन और स्पेक्ट्रम के आवंटन मजबूत कानूनी आधार पर होने चाहिए.'' उनके कहने का मतलब क्या यह था कि 10 जनवरी, 2008 को जो कुछ घटित हुआ, वह गैरकानूनी था?
सबसे ज्यादा नुक्सान पहुंचाने वाली समीक्षा और शायद अपराधबोध की संभावित स्वीकार्यता ब्यौरे के अंतिम बिंदु में सामने आती हैः ''नए ऑपरेटरों की खासी बड़ी संख्या होने के मद्देनजर ऐसी संभावना है कि इनमें से कुछ कंपनियों ने लाइसेंस सट्टेबाजी के जरिए हासिल किए हों. इसलिए कुछ समय बाद कुछ विलयों और अधिग्रहणों की संभावना हो सकती है, जिसका दरअसल मतलब होगा स्पेक्ट्रम का कारोबार होना, क्योंकि कंपनी के मूल्यांकन के एक बड़े हिस्से की गणना उनके अधिकार में होने वाले स्पेक्ट्रम के आधार पर की गई हो सकती है.''
दरअसल यह एक तरह से 2जी घोटाले को कबूल करना ही है. यहां एक बार फिर अनुभव से सीख लेते हुए ब्यौरे में कहा गया है, ''स्पेक्ट्रम का यह कारोबार वांछनीय नहीं है और इसे नियंत्रित करने की जरूरत है.''
महत्वपूर्ण बात यह है कि चिदंबरम और राजा के बीच समीक्षा बैठक के दौरान यह पाया गया कि सभी सर्कलों में स्पेक्ट्रम की मांग और आपूर्ति में कोई तालमेल नहीं है. ब्यौरे के साथ नत्थी सुब्बा राव के कवरिंग नोट में कहा गया है कि इस तालमेल को सुधारना नीति से संबंधित दूसरी जरूरत है. और इसके बाद सामने आती है खास बात-तत्कालीन वित्त मंत्री कहते हैं कि वे फिलहाल प्रवेश शुल्क या राजस्व साझा करने के लिए मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा नहीं करना चाहते.
22 नवंबर, 2007 को आशय पत्रों को जारी करने की तैयारी के दौरान सुब्बा राव ने स्पेक्ट्रम आवंटन के उस तरीके का पुरजोर ढंग से विरोध किया था, जिसे बाद में राजा ने अपनाकर पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर अखिल भारतीय स्तर पर 1,658 करोड़ रु. की उगाही की थी.
सुब्बा राव ने कहा था, ''इस पत्र का उद्देश्य यह देखना है कि क्या वित्तीय उद्यम से जुड़ी उचित प्रक्रिया का पालन किया गया है या नहीं. खासकर यह स्पष्ट नहीं है कि किस तरह बिना किसी आर्थिक विनियमन और सिर्फ मौजूदा मूल्यांकन के आधार पर 2001 में निर्धारित की गई 1,600 करोड़ रु. की कीमत को 2007 में जारी किए गए लाइसेंसों पर भी लागू किया गया.
और फिर, वित्तीय निहितार्थों के मद्देनजर मामले में कोई भी अंतिम फैसला लेने से पहले वित्त मंत्रालय से सलाह जरूर ली जानी चाहिए थी. आपसे कृपया अनुरोध किया जाता है कि मामले की समीक्षा करें और इस मामले पर अपने जवाब से जल्द से जल्द अवगत कराएं. इस बीच, उपरोक्त लाइसेंसों के क्रियान्वयन से जुड़ी अगली सभी कार्यवाहियों को कृपा कर स्थगित कर दिया जाए.''
लेकिन 15 जनवरी, 2008 को राजा के दिल खोलकर स्पेक्ट्रम बांटने के पांच दिन बाद चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, जिसमें यह सुझाव दिया गया कि 10 जनवरी, 2008 की घटनाओं को बीता हुआ अध्याय मान लिया जाना चाहिए. 30 जनवरी को हुई बैठक में शामिल व्यक्तियों ने जो हुआ उससे अपना पल्ला झाड़ते हुए आगे की तरफ ध्यान देने का फैसला लिया.
''अब विचाराधीन मुद्दा स्पेक्ट्रम के आवंटन की व्यवस्था का है. इसके लिए अतिरिक्त स्पेक्ट्रम के आवंटन से संबंधित नियमों के साथ-साथ उनको लेकर शुल्कों को भी ध्यान में रखना होगा. इनमें ऐसे मौजूदा ऑपरेटरों से लिए जाने वाले शुल्क भी हैं, जिनके पास निर्धारित से ज्यादा स्पेक्ट्रम है.'' बैठक में ऐसी स्थिति और उसमें लागू किए जाने वाले नियमों और विनियमनों को लेकर भी चर्चा हुई, जब विलय एवं अधिग्रहण न हो पाएं और स्पेक्ट्रम का कारोबार न हो.
ब्यौरे में यह भी दर्ज है कि बैठक में इस बात को लेकर रजामंदी बनी कि स्पेक्ट्रम का सही बाजार मूल्य पाने के लिए नीलामी सबसे बेहतर उपाय है. ''अन्य सभी विधियां स्पेक्ट्रम का प्रशासनिक मूल्य ही मुहैया कराती हैं, जिनकी हासिल किए जाने वाले अनुभव के आधार पर समय-समय पर समीक्षा की जा सकती है. एक अन्य विधि यह भी हो सकती है कि विभिन्न क्षेत्रों की 2001 की बोलियों की सूची बनाई जाए, जिसमें 2001 के बाद हुई मुद्रास्फीति और 2001 में तथा इस समय दूरसंचार घनत्व को भी शामिल किया जाए.''
मूल्यांकन के लिए जो एक और विधि सुझाई गई वह संबंधित इलाके की जनसंख्या के आधार पर थी, जो दूरसंचार घनत्व के लिए संभावनाओं को दर्शाती है. उसके बाद एक व्यापक योजना का खाका पेश किया गया, लेकिन यह सारी कवायद 10 जनवरी को 122 लाइसेंसधारियों को स्पेक्ट्रम आवंटित किए जाने के बाद की गई.
सुब्बा राव के नोट में कहा गया है कि इस बात पर रजामंदी हुई कि प्रति सर्कल दूरसंचार ऑपरेटरों की अधिकतम संख्या सात रहेगी. अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक, यह संख्या छह है. अगर प्रति सर्कल के हिसाब से अधिक लाइसेंसधारी होते हैं तो यह संभव है कि एकीकरण की प्रक्रिया अमल में आने लगे. और सरकार को यह पक्का करना होगा कि इस तरह के एकीकरण पारदर्शी और बेहतर ढंग से अमल में आ सकें.
दिलचस्प है कि बैठक के ब्यौरे में इस बात का भी खुलासा होता है कि दूरसंचार सचिव को अगले ही दिन यानी 31 जनवरी, 2008 को वित्त मंत्री के साथ होने वाली बैठक में शामिल होना था. उस दिन क्या हुआ, इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं है. पूर्व दूरसंचार मंत्री अरुण शौरी ने इसे ''शासन के सर्वोच्च प्रतिष्ठानों में आपस में जुड़ी जटिलता'' करार दिया है.
कई अन्य मसलों को भी हरी झ्ंडी दिखाई गई-नए ऑपरेटरों को किस तरह से पर्याप्त स्पेक्ट्रम उपलब्ध कराया जा सकता है, अतिरिक्त स्पेक्ट्रम को कैसे वापस लिया जा सकता है और विलयों तथा अधिग्रहणों की स्थिति में स्पेक्ट्रम के प्रीमियम के तौर पर मूल्यांकन में सरकार का कितना हिस्सा रखा जाना चाहिए ताकि स्पेक्ट्रम की जमाखोरी और खरीद-फरोख्त को रोका जा सके. ये सभी नीति संबंधी अहम फैसले हैं. लेकिन सारी प्रक्रिया को उस समय अंजाम दिया गया जब चिड़िया सारे खेत, और वह भी बहुत अच्छे से चुग चुकी थी.
अक्तूबर, 2003 में लिए गए कैबिनेट के एक फैसले के मुताबिक स्पेक्ट्रम से संबंधित मूल्य के निर्धारण में वित्त मंत्रालय को सभी अधिकार हासिल हैं. विवाद का सबसे पहला संकेत मिलते ही चिंदबरम ने कहा था कि वे स्पेक्ट्रम की नीलामी के सबसे बड़े समर्थक हैं. लेकिन बैठक के लिखित ब्यौरे ने उनके दावे की समूची कलई खोल दी है.