यह दुनिया के इतिहास में एक और गांधीवादी मौका है, जिसके नतीजे लगभग उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना गेटवे ऑफ इंडिया पर ब्रिटिश राज का पतन था. अहिंसा की कीमियागीरी से मिस्त्र ने खुद की फिर से खोज कर ली है, उस अहिंसा से, जिसे एक जमाने में उपनिवेशवादी साम्राज्यों के मर्दाना दौर में एक लुंजपुंज सी रूमानियत कह कर खारिज कर दिया गया था.
अहिंसा ने आज तक के सबसे ताकतवर साम्राज्य को उसके सबसे मुख्य अड्डे-भारत से अलग कर दिया था, और एक ऐसी प्रक्रिया शुरू कर दी थी, जिसने 20वीं सदी में अफ्रीका और एशिया को यूरोपीय उपनिवेशवाद से मुक्त करा दिया. हिम्मत से भरपूर पक्के इरादे की अदमनीय शक्ति और शांतिपूर्ण एकजुटता का अजेय संयोग 21वीं सदी में नव-उपनिवेशवाद के विषैले पंजों से नियति को छीन कर निकाल रहा है. इसकी कुंजी मिस्त्र है.
मजाक का पात्र बनने के काफी समय बाद भी स्थानीय सैनिक प्रतिष्ठान और विदेशी शक्तियों के गठजोड़ से पद पर टिकाए रखे गए होस्नी मुबारक जानते हैं कि बमों और गोलियों का क्या करना है. पर वे अपने ही लोगों के शांत दृढ़ विश्वास के सामने एकदम नाकारा हैं. इस दृष्टि से गांधी, गंगा से लेकर नील तक के गोलार्ध में, सम्राट और तानाशाह, दोनों से स्वतंत्रता के दार्शनिक गुरु बन गए हैं.{mospagebreak}
जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि गांधी का सबसे महान योगदान भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाना नहीं, बल्कि भारतीयों को भय से मुक्त करना था. यह दूसरी बात पहली बात से पहले आनी ही है. नेहरू ने कहा था कि ब्रिटिश राज का डर 1919 से फरवरी 1922 के बीच चले जबरदस्त असहयोग या खिलाफत आंदोलन के दौरान खत्म हो गया.
मिस्त्र में डर ने आखिरकार तब अपने कदम वापस खींचने शुरू कर दिए जब एक 26 वर्ष की महिला अस्मा महफूज ने इंटरनेट पर अपना एक वीडियो डाल कर एक साधारण-सा संदेश दिया, ''डरो मत.'' 30 साल पहले जब मुबारक ने सत्ता संभाली थी, तब महफूज का जन्म भी नहीं हुआ था. और काहिरा प्रतिष्ठान में चलने वाली बातचीत के आधार पर आंकें तो मुबारक के निर्धारित उत्तराधिकारी, उनके पुत्र गमाल की मृत्यु होने तक वह बुढ़िया हो चुकी होती.
यह और प्रतिरोध के इसी तरह के दूसरे छोटे-छोटे स्त्रोतों का नतीजा 25 जनवरी को तहरीर चौक पर हुए प्रदर्शन में निकला, जिसने मिस्त्र में और पूरे अरब जगत में सत्ता का संतुलन बदल कर रख दिया. भ्रष्टाचार, वंशवाद, कुशासन, और स्थिरता के नाम पर राष्ट्रीय संपदा को निजी संपदा में बदलने का जमाना खत्म हो रहा है.{mospagebreak}
जिस दिन मिस्त्र की सेना ने घोषणा की कि वह अपने ही लोगों के खिलाफ एक भी गोली नहीं चलाएगी, उसी दिन शक्ति का संतुलन बदल चुका था, भले ही उसके बाद के दिनों में स्थितियां उलटती-पलटती नजर आई हों.
वे लोग जो जवाबों की खोज में, इस बात को ही नहीं देख पा रहे हैं कि सवाल बदल चुके हैं. गीजा पिरामिड के नीचे लगी सिंह के शरीर और स्त्री के मुख वाली स्फिंक्स की प्रतिमा अब अपने चेहरे पर मुस्कराहट लिये हुए मुक्ति के चौक पर है और स्पष्टता की दरकार वाले हर व्यक्तिको बता रही है कि सवाल यह नहीं है कि क्या मुबारक जाएंगे, बल्कि यह कि कब जाएंगे. जो व्यक्ति इस कारण अपने महल में कैद हो, कि दरवाजे पर फांसी के फंदे का बिंब नजर आ रहा है, वह देश का राज नहीं चला सकता.
बेईमानी और गलतफहमी तानाशाहों की स्वाभाविक विशेषताएं होती हैं. मुबारक भूल गए थे कि उनका मालिक मिस्त्र है. वे इस मुगालते में आ गए थे कि मिस्त्र के मालिक वे खुद हैं. जागते हुए चपत खाने के बाद भी वे और वक्त देने के लिए रिरिया चुके हैं, लेकिन अंगड़ाई लेती सड़कों को याद है कि उन्होंने तीन दशक पहले लोकतंत्र का वादा किया था और उसके आगमन की हर उम्मीद को खत्म कर दिया था.
{mospagebreak}यह मूर्खतापूर्ण धारणा कि विपक्ष में ऐसा कोई नहीं है, जो मुबारक का स्थान ले सके, एक और चुका हुआ बहाना है. जब मिस्त्र में कभी लोकतंत्र रहा ही नहीं, तो कोई विपक्ष का नेता कैसे हो सकता है? आमतौर पर तानाशाहों के एजेंडा का पहला विषय जेल या मौत के जरिए किसी भी विपक्ष का सफाया करना होता है. जब वे खुद धांधलीबाजी वाले चुनाव में 98 फीसदी वोट हासिल कर लेते हैं, तो वे खुद को बधाई देने लगते हैं.
वे सार्वजनिक जीवन का एक निर्णायक नियम भूल जाते हैं-यह कि जब कोई विपक्षी दल नहीं होता, तो जनता ही विपक्ष बन जाती है. जब मुबारक जगह खाली करेंगे, तो पक्ष और विपक्ष दोनों काम करने लगेंगे.
वंशवादियों का आखिरी बहाना होता है- मेरे बाद तबाही हो जाएगी! यह बात पहले भी सुनी जा चुकी है और इस बार भी उतनी ही खोखली साबित होगी.
यूरोप की महाशक्तियों के हस्तक्षेप से बूर्बों वंश फ्रांस की क्रांति के बाद भी बचा रह गया, लेकिन क्रांति ने अपना मकसद हासिल कर लिया. उसने फ्रांस को बदल कर रख दिया. गांधी का धन्यवाद कि गिलोटिन गायब हो गया. लेकिन जोश गायब नहीं हुआ. 25 जनवरी को मिस्त्र ऐसे गहरे और विषैले दलदल से बाहर निकला है, जिसने उसकी जीवन शक्ति ही हर ली थी, इस मिस्त्र को गोलियों की बौछार के बूते वापस दलदल में दबाने से अरब जगत का मुख्य अड्डा ध्वस्त हो जाएगा.{mospagebreak}
तानाशाह इस वजह से बने रहते हैं, क्योंकि वे विदेशों में बैठे अपने आकाओं के दास होते हैं और घर पर अपने ही लोगों के लिए तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं. वे लोकतंत्र से इस वजह से इनकार करते हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा होता है कि उनके नागरिक स्वशासन में नाकाम हैं और उन्हें एक ऐसा पितृपुरुष चाहिए जो एक ऐसी खुफिया सेवा से लैस हो, जो असंतोष से नृशंसता से पेश आ सके और सत्ता के ऐसे उपकरण से लैस हो, जो लोगों को छद्म सुख के क्षेत्र में ललचा कर ला सके.
यह कहना निहायत मूर्खतापूर्ण और अपमानजनक है कि अपने गर्वीले इतिहास, संस्कृति और परिष्करण के साथ अरब लोकतंत्र के लायक नहीं हैं. मिस्त्र में चल रहा संघर्ष अभी भी खरतनाक रूप ले सकता है, क्योंकि सत्ता प्रतिष्ठान के पास खोने के लिए बहुत कुछ है. उलटी गिनती खत्म होने में समय लग सकता है, पर यह शुरू हो चुकी है.