नवाबों की नगरी लखनऊ में यूं तो कई स्थानों पर रामलीला का मंचन होता है, लेकिन कुछ रामलीलाएं ऐसी हैं, जहां मुस्लिम परिवार भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं. सचमुच इन रामलीलाओं ने जैसे हिंदू-मुस्लिम का भेद ही मिटा दिया है.
रामलीला समिति से जुड़े परिवारों की आस्था के कारण अवध की रामलीला आज भी अपनी गरिमा बरकरार रखे हुए है. चाहे नौकरी पेशा हो, किसान हो या फिर व्यापारी, सभी लोग रामलीला में हिस्सेदारी को अपना दायित्व समझते हैं. बच्चों में अपनी प्रतिभा दिखाने की होड़ रहती है. स्कूल की छुट्टी के बाद वे अपना संवाद याद करते हैं. शहर के बक्शी का तालाब, महानगर, ऐशबाग और सदर में होने वाली रामलीलाएं इसी भाव की वजह से आज भी टिकी हुई हैं.
मोहम्मद साबिर विश्वामित्र भी बन चुके हैं
बक्शी का तालाब में होने वाली रामलीला के निर्देशक मोहम्मद साबिर खान किसान हैं. उन्होंने कहा कि वह 11 साल से रामलीला में अभिनय करते आ रहे हैं. अब तक वह जटायू, जनक, रावण, कुम्भकर्ण एवं विश्वामित्र की भूमिकाएं अदा कर चुके हैं.
साबिर कहते हैं, "मेरा पुत्र मोहम्मद शेरखान भी रामलीला में अलग-अलग चरित्र निभाता है. स्कूल से लौटने के बाद वह अपने संवाद याद करता है." साबिर ने बताया कि जब उन्होंने एक बार सीता का किरदार निभाया था, तब उन्हें हैरत हुई कि लोगों ने उनके पैर छूकर आशीर्वाद तक लिया.
इसी तरह लोहिया पार्क चौक की 74 वर्ष पुरानी रामलीला में वर्ष 1988 में सरफराज ने रावण, दशरथ, विश्वामित्र की सशक्त भूमिकाएं निभाई थी. सरफराज ने बताया कि रामलीला एक तरह से उनकी प्रतिभा निखारने और प्रभु श्रीराम को प्रणाम करने का एक माध्यम भी है.
सरफराज विष्णु का किरदार करते हैं
रामलीला में काम करने के लिए सरफराज के पुत्र दिल्ली से लखनऊ आते हैं. वह दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में पढ़ाई कर रहे हैं. वह विष्णु का किरदार निभाते हैं.
दूसरी ओर महानगर रामलीला समिति की ओर से आयोजित होने वाली रामलीला के निर्देशक पीयूष पांडे कहते हैं कि वर्ष 1960 से ही वह रामलीला में राम, अंगद और भरत जैसे महत्वपूर्ण किरदार निभाते आ रहे हैं.
उन्होंने बताया कि रंगकर्म के क्षेत्र में उनका रुझान अपने पिता पीताम्बर पांडेय के कारण हुआ. वह लीला में गायन पक्ष सम्भालते थे. पीयूष फिलहाल जयपुरिया संस्थान में वरिष्ठ रंग प्रशिक्षक के तौर पर काम करते हैं.