वित्त सलाहकार (रक्षा सेवाएं) ए.के. चोपड़ा ने बुधवार को स्वीकार किया कि रक्षा खरीद प्रणाली अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई है और उसमें सुधार जारी है.
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन द्वारा आयोजित 'स्ट्रीमलिंग द इंडियन डिफेंस प्रोक्योरमेंट सिस्टम' विषय पर दिनभर की एक कार्यशाला का उद्घाटन करते हुए कहा, 'कोई भले ही कहे कि भारतीय रक्षा खरीद प्रणाली बिल्कुल ठीक है, लेकिन मैं समझता हूं कि यह अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं है. यह अभी भी विकसित हो रही है.'
चोपड़ा ने कहा कि 1992 तक रक्षा खरीद की देखरेख की जिम्मेदारी एक संयुक्त सचिव के पास थी, उसके बाद पहला रक्षा अधिग्रहण नियम बना. उन्होंने कहा कि 1999 के कारगिल युद्ध के परिणामस्वरूप एक समिति द्वारा समीक्षा की गई और एक मंत्री समूह का गठन किया गया, जिससे मौजूदा प्रणाली विकसित हुई है.
चोपड़ा ने कहा कि 1992 के नियम एक आंतरिक दस्तावेज थे और उसके बारे में मंत्रालय के बाहर कोई नहीं जानता था. पहली रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) 2002 में सामने आई, जो कि एक सार्वजनिक दस्तावेज था. उसके बाद से डीपीपी में कई बार सुधार हो चुका है और इसे काफी विस्तृत किया जा चुका है.
चोपड़ा ने कहा, 'रक्षा खरीद प्रणाली को जिस तरीके से आकार दिया गया है, यह निर्दिष्ट तीन लक्ष्यों में संतुलन बनाने की कोशिश करती है, जो कि आपस में एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं. ये तीनों लक्ष्य हैं- सेना की जरूरतों की तत्परता के साथ पूर्ति, भारतीय उद्योग का विकास, और पारदर्शिता व ईमानदारी के उच्च मानकों की पुष्टि करने वाली प्रक्रियाएं.'
चोपड़ा ने कहा कि रक्षा खरीद चक्र में उपस्थित विभिन्न घटकों के अपने हित टकराते हैं. उन्होंने कहा, 'सेना चाहती है कि पूरी खरीददारी कल पूरी हो जाए. भारतीय उद्योग का जोर इस बात पर होता है कि पूरी खरीददारी में उन्हें अधिक से अधिक हिस्सेदारी मिले और उनकी अधिक भूमिका हो. और निगरानी एजेंसियां पारदर्शिता और ईमानदारी पर नजर रखती हैं.'