परेशानियों से घिरे राष्ट्रपति के लिए छुट्टी मनाने का मौका मिले, वह भी सप्ताहांत में होने वाली दीपावली के दौरान, तो इससे अच्छी बात क्या होगी. बेशक यह शोर-शराबा भरा मौका होता है. देश में करारी शिकस्त खा चुके अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को छुट्टी की बेहद जरूरत थी. लेकिन दीवाली की रोशनी उनकी दोहरी किस्म की नीति की पोल खोल सकती है. आखिर उनकी एक नजर तो अपने युद्ध के सहयोगी पाकिस्तान पर लगी है, लेकिन दूसरी निगाह से वे शांतिकाल के अपने मित्र भारत को भी देख रहे हैं. ओबामा की भारत यात्रा को अमेरिकी राष्ट्रपति की विदेश नीति की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा सकता है. यह चुनौती पाकिस्तान और अफगानिस्तान के रूप में सामने है.
ओबामा ने दिल्ली आने की तैयारी के क्रम में पाकिस्तान को 2 अरब डॉलर का अनुदान दे दिया, यानी उसके शस्त्रागार में और हथियार पहुंचा दिए. इस्लामाबाद इस पैसे का इस्तेमाल उन्नत एफ-16 लड़ाकू विमान और हेलिकॉप्टर गनशिप खरीदने के लिए कर सकता है. भारत और अमेरिका को स्वाभाविक सहयोगी माना जाता है. ओबामा के पूर्ववर्ती, जो दुनिया को अच्छे और बुरे में बांटने वाले बाइबिल के नजरिए से देखते थे, भारत को विशेष मुल्क का दर्जा देते थे. भारत-अमेरिका परमाणु समझैता उनके वैचारिक निवेश की सामरिक परिणति थी, जिसकी नींव जसवंत सिंह और स्ट्रोब टालबोट की वार्ताओं ने तैयार की थी. ओबामा के कार्यकाल में उस संबंध में स्थिरता आ गई है.
ओबामा जब राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे थे तभी अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने नई दिल्ली को खतरनाक संदेश दिए थे. उन्होंने अमेरिकी पत्रिका टाइम के स्तंभकार जो क्लिन के साथ एक बातचीत में कहा था कि ''अगले प्रशासन (अमेरिकी सरकार) का एक महत्वपूर्ण काम यह भी होगा कि ''कश्मीर संकट को'' पाकिस्तान और भारत के साथ मिलकर गंभीरता से'' हल करे. उसके बाद उन्होंने संकेत दिया था कि इस काम के लिए कश्मीर में एक विशेष दूत नियुक्त किया जाएगा. इसे उन्होंने ''राजनयिक फंदा'' कहा था. शुक्र है कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ओबामा ने जो कहा था, राष्ट्रपति ओबामा ने वह काम नहीं किया.{mospagebreak}
इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि ओबामा अपनी यात्रा के दौरान विवादास्पद कश्मीर मुद्दे का जिक्र करके नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच की सद्भावना को नहीं बिगाड़ेंगे. अमेरिका इस साल भारत के साथ 10 सी-17 ग्लोबमास्टर 111 मालवाहक विमानों का 3 अरब डॉलर का सौदा करके रूस को भारत के सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ता के ओहदे से उतारने के लिए तैयार है. लेकिन पाकिस्तान के उलट भारत को हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है.
भारत अमेरिकी अर्थव्यवस्था का दोहन करने की जगह उसकी मदद करता है. भारत ने 2008 से अब तक अमेरिका के साथ 8.2 अरब डॉलर के हथियारों के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं. भारत और अमेरिका की सेना ने पिछले आठ साल के दौरान 50 संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं, जो अपने आप में रिकॉर्ड है. भले ही दोनों ने भी अभी कोई रक्षा ''समझैता'' न किया हो लेकिन आपसी ''सहयोग'' नई ऊंचाई पर पहुंच गया है. अमेरिकी रणनीतिकारों की दलील है कि दोनों के बीच सैन्य संबंध दीर्घकालिक और सामरिक किस्म का है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सीट के लिए भारत की दावेदारी को अमेरिकी समर्थन की वकालत करते 'ए बुश प्रशासन के पूर्व अधिकारी रिचर्ड एल. आर्मिटेज, निकोलस बर्न्स और रिचर्ड फोंटेन कहते हैं कि ''अमेरिका को यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वह इस संबंध से क्या चाहता है और सामरिक साझेदारी जैसे जुमले का वाकई क्या मतलब है.'' इन अधिकारियों का यह भी कहना है कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप और मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम (एमटीसीआर) में शामिल किया जाना चाहिए. {mospagebreak}
लेकिन ओबामा प्रशासन इन बातों पर ध्यान देगा, इसकी कम ही संभावना है. वैसे, जब इस्लामाबाद तालिबान के खिलाफ अमेरिकी युद्ध के अग्रिम पंक्ति के सहयोगी के रूप में अपनी दिहाड़ी की मांग करता है तब ओबामा उसे ध्यान से सुनते हैं, जैसा कि पिछले महीने अमेरिका-पाकिस्तान के बीच सामरिक वार्ता से स्पष्ट हो गया. ''पाकिस्तान को अपनी रक्षा जरूरतों की योजना बनाने में मदद करने के अपने पुराने वादे के मद्देनजर'' अमेरिका ने अपने युद्ध के सहयोगी को 2 अरब डॉलर देने की मंजूरी दी है. यह रकम नागरिक परियोजनाओं के लिए केरी-लुगर-बरमैन विधेयक के तहत स्वीकृत 7.5 अरब डॉलर के अतिरिक्त है.
इस वार्ता की समाप्ति पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने जो बयान दिया उससे इस्लामाबाद की असली प्राथमिकता स्पष्ट हो गई. उन्होंने कहा; ''इतिहास ने साबित कर दिया है कि कश्मीरी अवाम की जायज आकांक्षाएं हथियारों की ताकत से दबाई नहीं जा सकतीं. दक्षिण एशिया में विवादों को सुलझने, शांति और स्थिरता के लिए काम करना अमेरिका के हित में है. इसकी शुरुआत कश्मीरी अवाम को इंसाफ दिलाने की कोशिश से होनी चाहिए.'' विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने उनकी दलीलों का कोई खंडन नहीं किया.
वाशिंगटन पाकिस्तान की झूठी बातों का साथ देने के लिए तैयार ही नहीं है बल्कि वह उसे बढ़ावा भी दे रहा है हालांकि यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 9/11 के बाद दुनिया भर में हुए आतंकवादी हमलों के साथ पाकिस्तानी विशेषण जुड़ा हुआ है. यह इस्लामी गणराज्य जिहादिस्तान के रूप में अपनी छवि को दूर करने में कभी भी सफल नहीं रहा. बुश प्रशासन के दौरान अफगानिस्तान में अमेरिका के राजदूत रहे जाल्मे खलीलज़ाद लिखते हैं: ''अमेरिका को मांग करनी चाहिए कि पाकिस्तान दहशतगर्दों की पनाहगाहों और उन्हें सैन्य समर्थन देने के अपने कार्यक्रमों को बंद कर दे अन्यथा हम पाकिस्तान की मर्जी या मर्जी के बगैर दहशतगर्दों की उन पनाहगाहों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे. ये दलीलें दी जाती हैं कि इस तरह के दबाव से पाकिस्तान बिखर जाएगा. मगर ये बेमानी हैं.'' {mospagebreak}
ओबामा प्रशासन में इस तरह की सलाह पर कोई ध्यान नहीं देता. उसने पाकिस्तान के साथ काम करना नहीं छोड़ा है, जिसकी वजह से पाकिस्तान ने तालिबान के साथ भी संपर्क नहीं तोड़ा है. पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान पूरी तरह से तालिबान से मुक्त हो. उसका मानना है कि इस तरह का अफगानिस्तान भारत का मित्र और सहयोगी होगा. और तालिबान से लड़ने के लिए हथियारों से लैस किया गया पाकिस्तान यकीनन अपना काम नहीं कर रहा है, क्योंकि उसकी प्रथमिकता कहीं और यानी भारत की सीमाएं हैं. अमेरिका के लिए, डूबने की स्थिति में पहुंच चुके पाकिस्तान के मुकाबले युद्ध में दोगली भूमिका निभाने वाला पाकिस्तान कहीं बेहतर है. और इसकी वजह से अफगानिस्तान में ओबामा के युद्ध से नैतिकता का बचा-खुचा आधार भी खिसक गया है.
पाकिस्तान को 2001 से आतंकवाद के खिलाफ जंग के लिए 3.2 अरब डॉलर की अमेरिकी सैन्य सहायता मिल चुकी है. मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन के पास कोई नौसेना या वायुसेना नहीं है. इसके बावजूद पाकिस्तान की 90 फीसदी रक्षा खरीद में विमान, पोत विध्वंसक मिसाइल, टैंक विध्वंसक हेलिकॉप्टर व मिसाइल और समुद्र के ऊपर लंबी दूरी तक उड़ान भरने वाले विमान शामिल हैं. उनमें से अधिकतर माल पाकिस्तान को प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी की हैसियत से मूल कीमत के चौथाई हिस्से में बेचा गया. अमेरिकी सहायता को धीरे-धीरे भारत की पारंपरिक सैन्य बढ़त कम करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
भारतीय सेना के 2007 के एक गोपनीय अध्ययन, 'इंडिया-पाकिस्तान कंबैट रेशियोज 2002-2012' में दोनों देशों के बीच लड़ाई का अनुपात 1:1.3 माना गया है, जो भारत के पक्ष में है. उसमें माना गया था कि ''टैंक, आर्टिलरी, एअर डिफेंस मिसाइल और अटैक हेलिकॉप्टरों के अधिग्रहण से 2012 तक भारत के कुल कंबैट रेशियो में महत्वपूर्ण इजाफा होगा और यह 1:1.5 हो जाएगा.'' आज केवल टी-90 टैंकों का अधिग्रहण हो पाने की वजह से सेना के अधिकारी मानते हैं कि यह अनुपात स्थिर हो गया और यह अब तक के सबसे निम्नतम स्तर 1:1.1 पर पहुंच सकता है. सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, ''अगर अमेरिका और चीन से हथियार लेने का यह रुझन रहा तो पाकिस्तान के मुकाबले भारत की बढ़त अगले पांच साल में काफी घट जाएगी.'' {mospagebreak}
आज भारत-पाकिस्तान युद्ध हो तो करगिल युद्ध से भी ज्यादा भारतीय जवान मारे जाएंगे. भारतीय सेना की योजना में 34,000 करोड़ रु. के सैन्य उपकरणों-नाइट विजन इक्विपमेंट, बैलिस्टिक हेल्मेट, लाइवेट बुलेटप्रूफ जैकेट और बूट-की खरीदारी फंसी हुई है. इसमें बंदूक पर लगने वाला नाइट विजन उपकरण जेन-3 शामिल है. इज्राएल से ऐसे 30,634 उपकरण खरीदे जाने हैं. इस उपकरण की विशेषताओं पर बहस के कारण ऑर्डर में विलंब हो रहा है. अमेरिकी सेना को मानक सैन्य उपकरण हासिल करने और सेना को देने में दो से तीन साल, और हाइटेक उपकरण खरीदने में पांच साल लगते हैं. सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, ''हमारे मामले में बुनियादी उपकरण हासिल करने में कम से कम चार साल लगते हैं और उसमें विलंब की कोई सीमा नहीं.''
भारत अपने मीडियम मल्टी-रोल कंबैट एअरक्राफ्ट के लिए 12 अरब डॉलर का युद्धक विमान खरीदने वाला है. भारतीय वायु सेना की इस निविदा में अमेरिका की दो कंपनियां शामिल हैं. लेकिन अमेरिकी आपूर्ति की वजह से एफ-16 की दावेदारी पर पानी फिर गया है. अमेरिकी हथियारों की बिक्री पर भारत की निराशा को स्पष्ट करते हुए एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री का कहना है, ''अमेरिका हर बैठक में हमें यही बताता है कि हम सामरिक साझीदार हैं और फिर आगे बढ़कर पाकिस्तान को हथियारों आपूर्ति करता है, जिसका निश्चित रूप से हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल होगा.''
भारत यह उम्मीद नहीं कर सकता कि चीन को साधने के मामले में ओबामा किसी तरह से मदद कर सकते हैं. चीन के विस्तारवादी एजेंडे और पाकिस्तान के साथ गठजोड़ की वजह से नई दिल्ली की चिंताएं बढ़ गई हैं. अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स के ताजा अंक में एलिजाबेथ सी. इकोनॉमी लिखती हैं, ''वैश्विक नियम और संस्थाएं बनाने के चीन के प्रयास के साथ ही यह भी जरूरी हो गया है कि अमेरिका अपने आदर्शों और सामरिक प्राथमिकताओं पर जोर डाले और हमख्याल राष्ट्रों के साथ मिलकर काम करे.'' ओबामा के पास अपने विकल्प हैं. वे भारत को हमख्याल राष्ट्र, वैश्विक साझीदार मान सकते हैं. या भारत को ऐसे सांचे में सीमित कर सकते हैं, जिसका सिर्फ अफगानिस्तान में युद्ध के लिए ही महत्व है. अगर उनमें दूरदृष्टि है तो वे पहले विकल्प को चुनेंगे. अगर वे सिर्फ पाकिस्तान को ही देखना चाहते हैं तो बेतुके दूसरे विकल्प को चुनेंगे.