उत्तरी सिक्किम में आया विनाशकारी भूकंप, जो दिल्ली में आए भूकंप के हल्के झटके के 11 दिन बाद आया और जिसमें 116 लोगों की जान चली गई, भारत के कमजोर हिमालय आधार क्षेत्र में विनाशक उथलपुथल की शुरुआत हो सकता है.
भूकंप वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि हिमालय के साथ वाले क्षेत्र में पश्चिम में हिमाचल प्रदेश, गढ़वाल, कुमाऊं, नेपाल से सिक्किम से लेकर आगे के पूर्वी इलाके में अत्यधिक दबाव बन रहा है. धरती पर एक मिलीमीटर तक की हरकत को नापने में सक्षम ग्लोबल पोजिशनिंग टेक्नोलॉजी (वैश्विक स्थापन प्रौद्योगिकी) से मिली नई जानकारी से पता चलता है कि जमीन के नीचे चट्टानों के ढांचे में काफी दबाव बन रहा है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप, जिसके बारे में माना जाता है कि यह उत्तर की तरफ बढ़ रहा है, इस क्षेत्र से जुड़ गया है.
इसके कारण बड़े भूकंपों के अंतराल में छोटे-छोटे भूकंप आ जाते हैं क्योंकि चट्टानें दबाव को कम करने के लिए खिसकती हैं. अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं, सिक्किम में मंगन कस्बे के 100 किमी के दायरे में पिछले 35 साल में 18 भूकंप आए. मंगन 18 सितंबर को आए भूकंप का केंद्र था.
बंगलुरू में जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च के जाने माने भूवैज्ञानिक के.एस.वल्दिया का कहना है कि इस तरह के भूभाग बढ़ी हुई भूगर्भीय गतिविधियों के ''जियोडायनेमिक हॉटस्पॉट'' हैं जहां भविष्य में विनाशकारी भूकंप आ सकते हैं. इस तरह के नाजुक केंद्र गंगा के मैदानी भाग, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के तटवर्ती इलाकों के साथ-साथ समुद्र तट से दूर के इलाकों में मौजूद हैं. लेकिन देश में जहां 45 नए परमाणु बिजलीघर बनाने की तैयारी चल रही है, वहीं भूकंप के बारे में पूर्व चेतावनी को लेकर इस तरह की खतरे वाली जगहों का कोई विस्तृत अध्ययन नहीं किया गया है.
खतरे वाले स्थानों के बारे में स्पष्ट संकव्त हर जगह दिखाई देते हैं. सिक्किम की तीस्ता नदी ने ब्रह्मपुत्र से मिलने के लिए 1787 में अपना बहाव गंगा की तरफ से मोड़कर पूर्व की तरफ कर लिया. बिहार में 2008 कोसी नदी ने अपना बहाव एक खाली मार्ग की तरफ बदल लिया और इसके कारण वहां बाढ़ ने भारी तबाही मचाई.
भूवैज्ञानिकों का कहना है कि भूमि के डूबने या उभरने की वजह से नदियों की गति धीमी हो जाती है या वे अपनी राह बदल लेती हैं. यह इस बात का संकव्त है कि जमीन के नीचे चट्टानों की परतों में दरार आने से हलचल शुरू हो गई है जो आखिरकार भूकंप आने का सबब बन सकती है. पहाड़ों में कई झ्रनों के सूखने के बाद मार्च, 1999 में चमोली में भूकंप आया जिसमें 103 लोग मारे गए. इस इलाके में सूखे मौसम में कई बार भूस्खलन हुए जिसकी वजह अक्सर आने वाले भूकंप थे जिनके बारे में आसानी से पता नहीं चलता. वल्दिया का कहना है कि ये दोनों ही बातें जमीन के भीतर उथलपुथल का संकव्त देती है जिसके कारण बड़ा भूकंप आता है.
पेलेइयो सीस्मिक फीचर (प्राचीनकाल में आए भूकंप के प्रभाव जो चट्टानों में सुरक्षित है) हमेशा नाजुक जगहों से जुड़े होते हैं. बिहार में जनवरी, 1934 में आए 8.4 की तीव्रता वाले विनाशकारी भूकंप से पहले वहां 1,700 और 25,000 साल पहले कम-से-कम तीन बड़े भूकंप आए. इसी तरह 2,800 से 6,000 साल पहले भूकंप संबंधी कई प्राचीन घ्ाटनाओं के अक्स पश्चिमी भारत में वडोदरा और दादर घाटी के आसपास चट्टानों के ढांचे में देखे जा सकते हैं जिनके बाद जनवरी, 2001 में भुज में विनाशकारी भूकंप आया जिसमें करीब 20,000 लोग मारे गए. अंदमान द्वीप के आसपास के क्षेत्र में महासागर के तल के डूबने से दिसंबर, 2004 में भयंकर सूनामी आई जिसने भारत, श्रीलंका और इंडोनेशिया के तटवर्ती इलाकों में भयानक तबाही मचाई.
भारत का भूकंप संबंधी नक्शा पुराना और अविश्वसनीय हो गया है. यह अधूरे रिकॉर्ड पर आधारित है जिसमें सिर्फ बड़े भूकंपों का ही लेखा-जोखा है. वल्दिया चेतावनी देते हैं कि इस तरह के आंकड़ों के आधार पर बड़ी परियोजनाओं खास तौर से परमाणु संयंत्रों और बड़े बांधों की योजना बनाना ''खतरनाक'' है. भारतीय भूवैज्ञानिक भूकंप के बारे में देश के नजरिए में ''ठोस बदलाव'' का आह्वान कर रहे हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि फिजियोग्राफिक बदलावों, भूस्खलन के स्वरूपों, नदियों के बहने के तरीकों, पेलेइयो सीस्मिसिटी से लेकर जमीन के नीचे उच्च दबाव का संकव्त देने वाली रेडोन गैस के उत्सर्जन के बारे में तमाम तरह की उपलब्ध जानकारी का इस्तेमाल किया चाहिए.
विडंबना यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का हवाला देते हुए पुराने कानून सभी तटवर्ती और सीमावर्ती इलाकों के नक्शों तक पहुंच को प्रतिबंधित रखा गया है, जिससे भूवैज्ञानिक अनुसंधान में बाधा आती है. इस बात को ध्यान में रखते हुए कि इंटरनेट पर इस तरह के आंकड़े हासिल करना कितना आसान है, ये प्रतिबंध आज हास्यास्पद लगते हैं.
भूकंप से होने वाले नुक्सान के बारे में जानकारी में सुधार करने के लिए नियमित निगरानी करना महत्वपूर्ण है ताकि योजनाकार बड़ी परियोजनाओं को सूनामी और भूकंपों से बचाने के साथ ही सुरक्षित स्थानों का चयन कर सकें.
हिमाचल प्रदेश में भाखड़ा बांध, जहां से चार राज्यों को बिजली की आपूर्ति और सिंचाई होती है, इसका एक माकूल उदाहरण है, जहां अमेरिकी इंजीनियर हार्वे स्लोकम ने 1950 के दशक के आखिर में इस विशाल ढांचे को स्थिर रखने के लिए भूवैज्ञानिक आकलन किया था. बांध स्थल भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील इलाके में दरार वाली चट्टानों के क्षेत्र में चिकनी मिट्टी की तह पर है. स्लोकम ने यहां कई महीने बिताए और अस्थिर मिट्टी के हरेक इंच की खुदाई की और इसकी जगह मिट्टी की चट्टान के नीचे कई टन ठोस कंक्रीट डलवाकर, ऐसा इंतजाम करवाया ताकि बांध पर भूकंप का कोई असर न हो.
अपने दूसरे साथियों की तरह वल्दिया का भी मानना है कि भूकंप विज्ञान संबंधी निगरानी को एक राष्ट्रीय प्राधिकरण के तहत लाया जाना चाहिए जो नौकरशाही या राजनैतिक दबाव से मुक्त हो. अभी भारतीय मौसम विभाग एक केंद्रीय एजेंसी है जो सूनामी समेत भूकंप संबंधी गतिविधियों को रिकॉर्ड करती है. लेकिन एजेंसी मामूली भूकंपों पर नजर नहीं रखती.
देश में ऐसी कोई प्रणाली नहीं है जो नदियों के बहाव में परिवर्तन, भूस्खलन, अचानक होने वाले उत्सर्जन और इससे जुड़े दूसरे तथ्यों का जायजा ले सके और उनका बाकायदा ब्यौरा रख सके.. वल्दिया का कहना है, ''हम पयार्वरण कानूनों के किसी भी तरह के उल्लंघन पर तो बड़ी आपत्तियां जताते हैं लेकिन हममें से ज्यादातर लोग परियोजनाओं की जगहों को लेकर अजीब तरह से उदासीन हैं जो हमारे पर्यावरण के लिए नुक्सानदेह हो सकते हैं.''