उत्तर प्रदेश ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की करोड़ों रु. की रकम की लूट में खास मुकाम हासिल कर लिया है. यह रोजगार प्रदान करने के लिए दुनिया की अकेली सबसे बड़ी योजना मानी जाती है. गत तीन वर्ष में राज्य सरकार ने 500 करोड़ रु. से अधिक की हेराफेरी के आरोप में 42 अधिकारियों और 58 ग्राम प्रधानों के खिलाफ आपराधिक मामले दायर किए हैं और अनुशासन की कार्रवाई शुरू की है.
केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित कहते हैं, ''इस योजना में जिस कदर भ्रष्टाचार है, यह उसका छोटा-सा नमूना है. यदि किसी स्वतंत्र एजेंसी से उचित जांच कराई जाए तो इसमें दर्जनों आइएएस, पीसीएस और निचले दर्जे के अधिकारी संलिप्त पाए जाएंगे और उन्हें गंभीर सजा का सामना करना पड़ेगा.''
दीक्षित कांग्रेस के सक्रिय सदस्य हैं, लिहाजा उनके विचारों को मायावती की अगुआई वाली बसपा सरकार के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त माना जा सकता है. पर मनरेगा के राज्य परिवीक्षण प्रकोष्ठ के प्रमुख और अवकाशप्राप्त आइएएस अधिकारी विनोद शंकर चौबे भी इस रोजगार गारंटी योजना में बढ़ते भ्रष्टाचार और बड़े पैमाने पर अनियमितताओं को लेकर 'चिंतित' हैं. अनेक जिलों का दौरा करने के बाद उन्होंने अनेक अधिकारियों और ग्राम सेवकों पर आपराधिक मामले बनाने, उनके वेतन में से कटौती करने और उनकी चरित्र पंजिका में प्रतिकूल प्रविष्ठियां दर्ज करने की सिफारिश की है.
ताजातरीन मामला सुलतानपुर जिले का है, जहां जिला स्तर के अधिकारियों ने मनरेगा नियमों का घोर उल्लंघन करके ग्राम प्रधानों के लिए कैमरे खरीदे, जो उनके किसी काम के नहीं थे. बताते हैं कि इस साल जुलाई में जब पिंकी जोवल ने यहां जिलाधीश के रूप में प्रभार संभाला तो ग्राम प्रधान कोई 130 गांवों वाले दोस्तपुर और कुडे़भर विकास खंडों में कैमरे खरीदने लगे. {mospagebreak}
प्रत्येक प्रधान ने करीब 6,000 रु. की लागत वाला यह कैमरा खरीद लिया. जिले के एक खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ने स्वीकार किया, ''हमें पता था कि इस कैमरे की मनरेगा योजना के तहत अनुमति नहीं है और उसकी केंद्रीकृत खरीद भी अपराध सरीखी है.'' लेकिन बकौल उक्त अधिकारी, जिले के उच्चस्तरीय अधिकारी के दबाव में दो विकास खंडों में यह खरीद कर ली गई.
ग्राम प्रधानों का कैमरे का कोई काम नहीं है और इस संवेदनशील उपकरण की बड़े पैमाने पर खरीद का कोई औचित्य नहीं था. अधिकारिक तौर पर, ये कैमरे मनरेगा के तहत होने वाले कार्यों के चित्र खींचकर उन्हें ऊपर के स्तर पर देने के वास्ते खरीद लिए गए.
पता चलने पर बसपा के एक नेता ने इस मामले की जानकारी मुख्यमंत्री कार्यालय और ग्रामीण विकास के प्रमुख सचिव मनोज कुमार को दी, जिन्होंने सुलतानपुर जिले में मनरेगा नियमों के कथित उल्लंघन की जांच का आदेश दे दिया. जांच रिपोर्ट में कैमरों के गैरकानूनी तौर पर खरीदे जाने, खरीद नियमों के उल्लंघन और इस घोटाले में बड़े अधिकारियों की मिलीभगत की पुष्टि की गई.
अनेक अन्य जिलों में ऐसी शिकायतों को देख रहे और दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे मनोज कुमार बताते हैं, ''हां, इस रिपोर्ट में मुख्य विकास अधिकारी, बीडीओ और जिला विकास अधिकारी को दोषी ठहराकर उनके खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिश की गई है.'' जोवल की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर प्रमुख सचिव का कहना था कि इसकी जांच की जा रही है. सुलतानपुर के जिलाधीश पर ऐसी खरीद की अनुमति देने का आरोप है, जो मनरेगा योजना के नियमों का उल्लंघन है. {mospagebreak}
बताया जाता है कि सभी कैमरे हरियाणा की एक ही कंपनी कुमार जी से खरीदे गए हैं. बकौल प्रमुख सचिव, ''यह खरीद में की गई एक अन्य चूक है क्योंकि उत्तर प्रदेश में कैमरे पर वैट मात्र 4 प्रतिशत है जबकि हरियाणा में यह 14 प्रतिशत है, इसलिए उत्तर प्रदेश से बाहर ऐसा कैमरा खरीदने की कोई तुक नहीं थी, जबकि वह राज्य में सस्ती दर पर उपलब्ध था.''
सुलतानपुर में कैमरों की खरीद मनरेगा कोष तक ही सीमित नहीं है. मालूम 'आ है कि राइफल क्लब के कोष से भी ऐसे कैमरे खरीदे गए हैं. यह स्थापित परंपरा है कि किसी हथियार का लाइसेंस जारी करते समय आवेदक से एक मोटी रकम राइफल क्लब को दिलाई जाती है, जिसका नियंत्रण जिला प्रशासन के पास रहता है और इसकी मुख्य भूमिका लाइसेंसधारकों के लिए निशानेबाजी का अभ्यास आयोजित करना है. लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं होता और विभिन्न जिलों में राइफल क्लब की सदस्यता के करोड़ों रु. अधिकारी हड़प लेते हैं और उनका दुरुपयोग करते हैं. सुलतानपुर में भी राइफल क्लब का पैसा गेस्ट हाउस बनाने और अब कैमरों की खरीद की तरफ मोड़ दिया गया है.
विधायक निधि और सांसद निधि की तरह मनरेगा भी सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार और पैसा लूटने का एक और स्त्रोत बन गया है. उत्तर प्रदेश में मनरेगा के तहत चालू वित्त वर्ष 2010-11 के लिए 8,500 करोड़ रु. मंजूर किए गए हैं, लेकिन आठ माह बीत जाने के बाद भी इस रकम का 30 प्रतिशत खर्च नहीं हुआ है. दीक्षित कहते हैं, ''मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि उत्तर प्रदेश में सैकड़ों करोड़ रु. की रकम हड़प ली गई है और कुछेक मामलों में कार्रवाई को छोड़कर मायावती सरकारी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही.'' उन्होंने कई जिलों का दौरा करके पैसे की बड़े पैमाने पर लूट पाई है. इनमें नक्सल प्रभावित जिला सोनभद्र भी है और इसकी रिपोर्ट उन्होंने केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेज दी है. {mospagebreak}{mospagebreak}
अपनी रिपोर्ट में दीक्षित ने स्पष्ट कहा है कि मनरेगा से पैसा बटोरने के लिए जिला प्रशासन ने 300 से अधिक गांवों को नक्सल प्रभावित घोषित किया है जबकि तथ्य यह है कि इसके एक-चौथाई गांवों में भी किसी तरह की नक्सली गतिविधियां देखने को नहीं मिली हैं और घोषणा पैसा पाने के लिए जान-बूझ्कर की गई. उनकी रिपोर्ट के बाद चौबे ने भी खुद कामों का निरीह्नण किया और मनरेगा के पैसे के दुरुपयोग पर चिंता जताई
ग्राम स्तर पर मनरेगा योजना के तहत पैसे की पर्याप्त उपलब्धता एक वजह है कि 2005 के पंचायत चुनावों के मुकाबले इस बार ग्राम प्रधान पद के लिए उम्मीदवारों में 20 प्रतिशत वृद्धि हुई है. गत तीन वर्षों में सोनभद्र जिले को 700 करोड़ रु. से अधिक राशि का आवंटन हुआ जो राज्य में सर्वाधिक था.
जिले के एक गांव में तो ग्राम प्रधान पद के लिए 71 उम्मीदवार भिड़ रहे थे, जो किसी एक गांव में सर्वाधिक थे. इससे स्पष्ट है कि ग्राम प्रधानों ने मनरेगा के पैसे पर अपनी नजरें गड़ा रखी हैं, इसलिए इस पद को हथियाने के लिए कड़ा मुकाबला होता है.
इस बार ग्राम प्रधान पद पर लड़ने वाले उम्मीदवारों ने मतदाताओं को फुसलाने के लिए लाखों रु. खर्च किए. फरवरी, 2006 में शुरू किए गए नरेगा ने, जिसका नाम बदलकर मनरेगा कर दिया गया है, गांव स्तर पर विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और गांवों के गरीबों को न्यूनतम 100 दिन के रोजगार की गारंटी देकर एक करोड़ मानव दिवस सृजित किए. {mospagebreak}
यह योजना ग्रामीणों में इस कदर लोकप्रिय हुई कि 2009 के लोकसभा चुनावों में इसने कांग्रेस की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. इसकी सफलता से प्रोत्साहित होकर यूपीए सरकार ने इस योजना का विस्तार किया और इसके बजट आवंटन में वृद्धि कर दी.
लेकिन जैसे कि जवाहर रोजगार योजना सरीखे अन्य सरकारी कार्यक्रमों के साथ हुआ, राज्य के सरकारी अधिकारी अपने निहित स्वार्थों के लिए इस योजना को भी दुहने लगे हैं. इसकी मिसाल यह है कि कई जगहों पर मनरेगा के पैसे से संकर बीजों के नाम पर लाखों रु. के खिलौने खरीद लिए गए हैं और वह भी कागजों पर. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि यह भ्रष्टाचार ज्यादातर बेलगाम हो गया है, जिसके चलते दीक्षित ने इसको नया नाम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण शोषण गारंटी योजना दे दिया है.