नागपुर से 130 किमी. दूर जालका जाने वाली सड़क ऊबड़-खाबड़ है. सड़क के दोनों ओर मीलों तक कपास के झुलसे खेत नजर आते हैं. टिन की छत वाली झोपड़ी में 55 साल की कलावती बांदुरबर अपने छह पोते-पोतियों से घिरी बैठी है. बीच-बीच में वह बच्चों को शरारत न करने के लिए डांटती है, फिर प्यार से उनके बालों को सहलाती है. वह साल भर के अपने नाती नमन को गोद में उठाती है. हाल में नमन की मां का देहांत हो गया.
9 नवंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
2 नवंबर 201: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
आठ लोगों के परिवार में एक और भूखा पेट बढ़ गया है. ''आप किसी एक पर, किसी चीज के भरोसे नहीं रह सकते हैं. न ही बारिश, न सरकार.'' यह कहते हुए कलावती के माथे पर गुस्से से शिकन पड़ जाती है. शायद 28 साल की बेटी सविता पर भी नहीं, जिसने अपने बेटे नमन को उसकी किस्मत के भरोसे छोड़कर पिछले महीने खुद को आग के हवाले कर दिया.
19 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
12 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
5 अक्टूबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
वह कहती है, ''नमन को जन्म देने के बाद से सविता को लगातार खून बहता रहता था. मैं कई बार उसे डॉक्टर के पास ले गई.'' पर पैसों की तंगी से सविता ने खुदकुशी का आसान रास्ता अपनाया. कलावती के घर में गरीबी और दुख का साया दिखता है.
कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने 21 जुलाई, 2008 को लोकसभा में अपने भाषण में कलावती का उदाहरण देते हुए कहा था, ''मैं आपको नौ बच्चों की मां कलावती के घर ले चलूंगा, जिसके पति ने खुदकुशी कर ली थी. मैं आपसे विनती करता हूं कि आप उसका सम्मान करें.''
वे भाषण में बता रहे थे कि कलावती ने कई तरीकों से अपनी आमदनी बढ़ाई. तभी से वह ग्रामीण पुनरुत्थान का प्रतीक बन गई. लेकिन राहुल दोबारा उसकी दशा देखने के लिए नहीं गए. 2010 में कलावती के दामाद, जो बुरी तरह कर्ज के तले दब गया था, ने आत्महत्या कर ली. पिछले छह वर्षों में सविता परिवार की चौथी सदस्य थी, जिसने खुदकुशी की राह अपनाई.
महाराष्ट्र में 'किसानों के कब्रिस्तान' विदर्भ के हर गांव में कम-से-कम एक कलावती मिल जाएगी. न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ के सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ऐंड ग्लोबल जस्टिस (सीएचआरजीजे) के मुताबिक, पूरे इतिहास में विदर्भ में सर्वाधिक आत्महत्या हुई हैं. और प्रभावित होने वाले ज्यादातर लोग कपास उत्पादक हैं. मद्रास विकास अध्ययन संस्थान के के. नागराज के आधिकारिक आंकड़ों के अध्ययन के मुताबिक, महाराष्ट्र में 1997 और 2005 के बीच भयानक गरीबी के कारण करीब 29,000 किसानों ने आत्महत्या की. विदर्भ में 2004 और 22 अक्तूबर, 2011 के बीच यह संख्या 8,652 है. विदर्भ जन आंदोलन समिति (वीजेएएस) के मुताबिक, इस साल यहां अब तक 647 लोग खुदकुशी कर चुके हैं.
लेकिन इस बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि इन आत्महत्याओं के कारण कितनी जिंदगियां तबाह हुईं. एक अंदाज के मुताबिक, आत्महत्या की वजह से संबंधित परिवारों के करीब 15 लाख सदस्य प्रभावित हुए हैं. इन बेसहारा हो जाने वाले परिवार के सदस्यों की कहानियां कम मार्मिक नहीं हैं.
पति की मौत के बाद कर्ज का एक नया कुचक्र खड़ा हो जाता हैः कर्ज का बोझ विधवा पर आ जाता है, घर की जरूरतें पूरी करने के साथ उसे कर्ज चुकाने के लिए रात-दिन काम करना पड़ता है, जिंदगी पटरी से उतर जाती है और घर के बच्चों को खेती का काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
हमने कलावती से पूछा कि क्या उसे राहुल की याद है. वह थोड़ा मुस्कराते हुए बताती है, ''कोई आदमी राहुल को जब झेंपड़ी में लाया, तो मैंने पूछा, कौन है यह. लोगों ने कहा, वे इंदिरा गांधी के पोते हैं.'' उसकी कुटिया में राहुल के जाने के बाद दान देने वालों ने कलावती पर पैसों की बौछार कर दी और उसके घर राजनीतिकों का जमावड़ा होने लगा. लेकिन ऊंचे-ऊंचे वादों और समर्थन के साथ ही शर्तें भी लगा दी गईं.
कलावती को 2005 में पति की खुदकुशी के बाद कोई सरकारी मुआवजा नहीं मिला. वह बताती है, ''हम जिस खेत को जोतते थे वह उनके नाम नहीं था.'' लिहाजा, उसके पति की मौत को 'किसान की आत्महत्या' के रूप में दर्ज नहीं किया गया और इस तरह वह मुआवजा पाने से वंचित हो गई.
विदर्भ में यवतमाल जिले के जिलाधीश श्रवण हार्डीकर बताते हैं: मुआवजा पाने की तीन शर्तें हैं-व्यक्ति किसान होना चाहिए, उसके पास खेती की जमीन होनी चाहिए और उसने खेती के लिए कर्ज लिया हो. लेकिन साकारों से लिए गए कर्ज पर गौर नहीं किया जाता. हालांकि ज्यादातर कर्ज उन्हीं से लिया जाता है क्योंकि सरकारी बैंक कपास की प्रति एकड़ खेती के लिए महज 10,000 रु. कर्ज देते हैं.
राहुल के दौरे के कुछ हफ्तों के भीतर ही स्वयंसेवी संगठन सुलभ इंटरनेशनल ने कलावती को 36 लाख रु. दिए-इतना पैसा पाने वाली वह विदर्भ की इकलौती विधवा है. मगर 25,000 रु. के मासिक ब्याज को बेटियों और दामादों में बांटने के बाद उसके पास बहुत कम पैसा बचता है. शर्तों के मुताबिक, वह सावधि खाते में जमा रकम को तब तक हाथ नहीं लगा सकती जब तक उसका सबसे छोटा बेटा, जो फिलहाल आठ साल का है, वयस्क न हो जाए. अगर उसे जमा रकम को खर्च करने की छूट होती तो वह अपनी बेटी की जिंदगी बचा सकती थी.
विदर्भ में कपास के खेतों में जीवन कठिन है और मौत ही जीने की राह है. हैदराबाद-नागपुर राजमार्ग से दूर-दूर तक कपास के लहलहाते खेत नजर आते हैं, जिनके बीच-बीच में छोटे-छोटे मंदिर बने हैं. यहां से सटे टिपेश्वर अभयारण्य के कारण अंधेरा होने के बाद यह जगह असुरक्षित हो जाती है. लेकिन 31 वर्षीया नंदा भंडारे अपनी सास और 15 वर्षीया बेटी के साथ भांडुबरी के अपने गांव में खेत में काम कर रही है. वह एक के बाद दूसरी कतार में जाते हुए कपास की कलियां तोड़ रही है. काफी मेहनत का काम है यहः इसके तने त्वचा को काट सकते हैं और एक किलो कपास के महज 5 रु. मिलते हैं. वह सुबह 8 बजे से शाम 6.30 बजे तक खेत में ही जुटी हुई है. लेकिन इतनी देर बाद भी उसके थैले में महज 10 किलो कपास है. उसकी आंखें भर आई हैं.
राहुल ने उसी दिन दिल्ली में 18 अक्तूबर को राजीव गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपररी स्टडी.ज के अपने भाषण में कहा था, ''वैश्वीकरण जितना समावेशी है, उतना ही वह अलग-थलग भी करता है... विदर्भ में किसान कीटनाशक पी रहे हैं, क्योंकि दुनिया में कपास की कीमतें गिर रही हैं.'' नंदा के पति ने भी 2006 में कीटनाशक का प्याला पी लिया था. को-ऑपरेटिव बैंक को 35,000 रु. और एक साहूकार को 50,000 रु. का कर्ज न चुका पाने के कारण वह बहुत हताश था.
28 सितंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
21 सितंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
7 सितंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
फिर उसने नंदा पर उसके माता-पिता से पैसे लाने का दबाव डाला. अगले दिन उसने खुदकुशी कर ली. लेकिन उसके लिए पूरा पैसा छोड़ दिया. नंदा को सरकार की ओर से मुआवजे में 1 लाख रु. मिले, जिससे कर्ज से मुक्ति मिल गई. नंदा अपनी सात एकड़ जमीन पर खेती करने लगी और दूसरों के खेतों में भी मेहनत-मजदूरी करने लगी, ताकि जिंदगी की नाव को चलाया जा सके.
कपास भारत में नकदी फसल उगाने के रुझान की मिसाल है. लेकिन इस रुझान से किसानों के खतरे में फंसने का अंदेशा बढ़ गया है. विदर्भ में किसान कार्यकर्ता और महाराष्ट्र शेतकरी संगठन के प्रमुख विजय जावंधिया कहते हैं, ''1990 के दशक में कृषि क्षेत्र को वैश्विक बाजारों के लिए खोलने से लागत बढ़ गई, किसानों से सुरक्षा जाल हट गया, मुनाफा कम हो गया और कई लोग कर्ज के जाल में ढकेल दिए गए.'' इसमें प्रौद्योगिकी ने बड़ी भूमिका निभाई है.
ज्यादातर किसानों ने अधिक पैदावार की उम्मीद के साथ नए, आनुवंशिक रूप से संवर्धित बीटी कपास के बीज में निवेश किया. लेकिन सीएचआरजीजे की रिपोर्ट के मुताबिक, ''लेकिन बीटी कपास के बीज दो ऐसे संसाधनों की और मांग करते हैं जो किसानों के पास पहले से ही कम हैं: पैसा और पानी.'' बीज की कीमत दोगुनी होती है, उन्हें दोबारा नहीं उगाया जा सकता और बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है. गुजरात, जहां बीटी कपास की फसल सफल रही है, के उलट विदर्भ में किसान पानी के लिए बारिश पर निर्भर रहते हैं. जोरदार विपणन के बावजूद बहुराष्ट्रीय निगम और उनसे लाइसेंस लेने वाले, जिनका अब भारतीय बाजार पर दबदबा है, किसानों को प्रभावी ढंग से नहीं बताते कि बीटी कपास को ज्यादा पानी की जरूरत होती है.
जावंधिया कहते हैं, ''सरकार मदद करना चाहती है. प्रधानमंत्री ने जुलाई 2006 में यहां का दौरा किया था.'' लेकिन ये उपाय वर्षों की अकर्मण्यता, सांकेतिक कर्ज राहत और छूट के बाद किए जाते हैं. कलावती के मामले से जाहिर है कि ये उपाय अक्सर अल्पकालिक होते हैं और नौकरशाही के अड़ियल रवैए के कारण नजर से ओझ्ल हो जाते हैं.
जालका के किसान कार्यकर्ता नितिन खडसे कहते हैं, ''सरकार ने असली कारकों को दूर करने के लिए कुछ खास नहीं किया है.'' लंबे समय से सिंचाई की सुविधाएं भी न के बराबर रही हैं. विदर्भ में कपास के 14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल का केवल 16 फीसदी हिस्सा ही सिंचित है. वे बताते हैं कि किसान मदद के लिए हमेशा राज्य पर आश्रित रहे हैं लेकिन राज्य ने सब्सिडी खत्म कर दी और बीज, खाद, कीटनाशकों और मजदूरी की लागत बढ़ने के बावजूद न्यूनतम समर्थन मूल्य स्थिर कर दिया.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने स्वीकार किया कि विदर्भ में पैदा होने वाला 75 फीसदी कपास दूसरे राज्यों को चला जाता है, क्योंकि यहां कपास पर आधारित उद्योगों की कमी है. 24 अक्तूबर को यवतमाल जिले के लोहारा में किसानों की एक सभा में चव्हाण ने कहा, ''हम रोजगार पैदा करने के लिए नई कपड़ा नीति तैयार करने की योजना बना रहे हैं.'' उसी दिन कृषि मंत्री शरद पवार ने इंदापुर में वादा किया कि कपास के निर्यात पर लगी पाबंदी दीवाली के बाद हटा ली जाएगी, ताकि किसानों को निर्यात से फायदा मिल सके. जावंधिया कहते हैं, ''हम सरकार से किसी तरह की मदद के बिना दो दुश्मनों-मौसम और नाजुक बाजार से लड़ रहे हैं.''
यहां किसानों के लिए जीवनयापन सचमुच बहुत मुश्किल है. वर्धा में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर किशोर जगताप कहते हैं, ''विदर्भ की महिलाएं काफी मेहनती हैं.'' वे बताते हैं कि विदर्भ में खेती करने वालों में करीब 70 प्रतिशत महिलाएं हैं और खेती के मामले में उनकी जानकारी पुरुषों से ज्यादा है. ''पुरुषों के न होने से महिलाओं को ही अपने उत्पाद की मार्केटिंग, दलालों, बैंक, कर्जदाताओं से बातचीत और कमाई की रकम से खर्च चलाने का जिम्मा उठाना पड़ता है, जबकि यह सारा काम आत्महत्या से पहले उनके पति किया करते थे.''
यहां औरतें सबसे पहले उठती हैं और रात में सबसे बाद में सोने के लिए बिस्तर पर जाती हैं. वे सारा दिन रसोई में खाना बनाने, बच्चों और जानवरों की देखभाल करने, घर की साफ-सफाई करने और खेती के काम में लगी रहती हैं. उनका दिन सुबह 5 बजे शुरू हो जाता है. खेती का काम सुबह करीब 8 बजे शुरू होता है जो शाम 6-6.30 बजे तक जारी रहता है. नंदा कहती है, ''मैं बहुत थक जाती हूं. मैं रोज 12-14 घंटे काम करती हूं. तब भी पूरा नहीं पड़ता है.''
इस साल एमएसएसआरएफ के एक अध्ययन के मुताबिक, इस इलाके में करीब 95 प्रतिशत महिलाओं की तरह नंदा भी गंभीर रूप से रक्त की कमी का शिकार हो सकती है. सुबह सिर्फ चाय व बिस्कुट और दिन में दो वक्त ज्वार की रोटी व अरहर की दाल पर आश्रित रहने से यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है. जगताप कहते हैं, ''हमने पाया कि लगातार बहुत ज्यादा काम करने से इन महिलाओं में समय से पहले स्त्रीरोग की समस्याएं पैदा हो जाती हैं.''
35 वर्षीया चंद्रकला मेश्राम कभी काफी आकर्षक रूप-रंग वाली हुआ करती थी, जो 140 परिवारों वाले सैखाडा गांव में उसके घर की दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर से साफ पता चलता है. इस गांव में भी सात किसान आत्महत्या कर चुके हैं. वह बताती है कि ये तस्वीरें उनके पति गंगाराम ने अपने कैमरे से खींची थीं. झेंपड़ी की छत पर लगे लट्ठे से लटककर पति के खुदकुशी करने के बाद चंद्रकला को जिंदगी की जंग अकेले ही लड़नी पड़ रही है.
वह कहती है, ''मुझे कोई मुआवजा नहीं मिला. मैं नहीं जानती कि क्यों.'' लेकिन उसके पति अपने पीछे 50,000 रु. का बैंक कर्ज और साहूकारों से लिया गया कुछ कर्ज छोड़ गए. 2006 में पति की खुदकुशी के बाद न सिर्फ उसके सास-ससुर ने उसे और उसकी दो कमसिन बेटियों को घर से निकाल दिया बल्कि उसके तीन भाइयों ने भी उसे बेसहारा छोड़ दिया. चंद्रकला दिन में 12-14 घंटे काम करती है पर अपनी पांच एकड़ जमीन से महीने में सिर्फ 1,500 रु. कमा पाती है. वह कहती है, ''मैं महीने में 15 दिन 100 रु. की दिहाड़ी पर दूसरों के खेतों में काम करती हूं.''
अपर्णा मालीकर ने 2008 में पति की खुदकुशी के बाद जिंदगी में बहुत सारी मुश्किलें झेलीं. लेकिन उसकी हिम्मत बरकरार है और इसी हिम्मत के बल पर उसने सितंबर में टीवी शो कौन बनेगा करोड़पति में 7.4 लाख रु. जीत लिए. उसे 1.5-2 लाख रु. के कर्ज के बोझ, देवर की ओर से उसके चरित्र पर लगाए गए धब्बे का सामना करना पड़ रहा है. यही नहीं उसके पिता पर उसके पति को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप भी लगाने की कोशिश की गई.
उसने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा, पुलिस से आश्वासन मिला और राजनीतिकों ने उसके घर का दौरा किया. वह कहती है, ''मैं किसी पर भरोसा नहीं करती हूं. मैंने अपनी बेटियों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में दाखिला दिला दिया है. मेरे सारे सपने अब उन्हीं पर टिके हैं.''
मगर उन लोगों का क्या होता है, जिन्होंने पहले कभी खेतीबाड़ी नहीं की. उज्ज्वला पेठकर, जिसने कक्षा दस तक की पढ़ाई की है, ऐसी ही एक विधवा है. 2002 में पति ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी, लेकिन उसके बाद पेठकर ने खेती का काम सीखा और आज वह खुद को विशेषज्ञ मानती है.
वह कहती है, ''मैंने मुआवजे की रकम से 50,000 रु. का कर्ज वापस किया और बाकी बचा पैसा अपनी बेटियों की पढ़ाई के लिए रख दिया.'' हालांकि उसके माता-पिता चाहते थे कि वह उनके पास आकर रहे और उसके भाई ने पैसों से उसकी मदद भी की थी, लेकिन वह जल्दी ही अपने पैरों पर खड़ी हो गई. वह कहती है, ''मैं पढ़ाई के बिना ऐसा नहीं कर सकती थी.'' उज्ज्वला के लिए सबसे गर्व भरा क्षण वह था जब उसकी 19 साल की बेटी को नागपुर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज में नर्स की नौकरी के वेतन का पहला चेक मिला.
विदर्भ की ये विधवाएं अपनी खराब किस्मत के लिए ईश्वर को दोष नहीं देतीं. शंकर, गणपति, पार्वती, मारुति जैसे कई देवताओं की पूजा करने वाली कलावती, जो हर सोमवार को 500 साल पुराने पांडव मंदिर में दर्शन के लिए जाती है, भगवान को बिल्कुल भी दोष नहीं देती. ''नहीं, नहीं. मैं ईश्वर को कभी दोष नहीं देती हूं. यह तो इंसान की खड़ी की हुई समस्या है.''
वे अपने पतियों को भी दोष नहीं देती उन सभी के पास बताने के लिए ऐसे कई किस्से हैं, जिनमें पतियों ने खुदकुशी करने से पहले उनकी जिंदगी को सुरक्षित बनाने की कोशिश की थी. उज्ज्वला आह भरते हुए कहती है, ''वे अच्छे आदमी थे. लेकिन उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए था और दबाव के सामने घुटना नहीं टेकना चाहिए था. जो कुछ उन्हें करना चाहिए था, वह सब अब मुझे करना पड़ रहा है.''
क्या भारत इस समस्या को दूर कर सकता है? कलावती को भरोसा नहीं है. वह कहती है, ''हम सभी मामलों में हार रहे हैं. हमारी हालत दिहाड़ी मजदूर से भी बदतर है.'' विदर्भ के किसान देश के 60 लाख भिखारियों, जो दुनिया में सबसे ज्यादा हैं, की तरह हाशिए पर भले न हों लेकिन वे भारत की नई प्रचुरता के बीच परेशानी का सबब हैं. खासकर ऐसे समय में जब 70 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है. कलावती जैसी व्यक्तियों के लिए दीर्घकालिक समाधान ढूंढ़ना देश के लिए सबसे बड़ा बाधक साबित हो सकता है.