लासलगांव में प्याज की खेती करने वाले किसान वसीम शेख कृषि मंत्री शरद पवार के इस आशावाद से सहमत नहीं हैं कि प्याज के दामों में जल्द ही कमी आने वाली है. उत्पादन की वास्तविकता वे जानते हैं. वे कहते हैं, ''मेरी पहली खरीफ की फसल 90 प्रतिशत खराब हो गई थी, और खरीफ की जो दूसरी फसल अब काटी जाने वाली है, वह पहले ही 35-40 प्रतिशत खराब हो चुकी है.''
आम तौर पर भारत के प्याज उगाने वाले सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्र-नाशिक के 50 किमी के दायरे के किसानों की नजर में सरकार जमाखोरी और विक्रेताओं की गिरोहबंदी के आरोप उछालकर सिर्फ 'जनता को बेवकूफ' बना रही है. सीधी-सी बात है-प्याज उतना है ही नहीं, और यह वह सचाई है, जिसे सरकार सितंबर से जानती थी. किसान महेश केंगे जानते हैं कि किसानों, बिलौचियों और उपभोक्ताओं की इस दुर्दशा के लिए दोषी कौन है.
केंगे का जोरदार तर्क है, ''जब सितंबर में बिना मौसम बारिश हुई थी, सरकार को उसी क्षण पता था कि फसल खराब हो जाएगी. अब तीन महीने बाद ताबड़तोड़ ढंग से निर्यात पर रोक लगाने और छापे मारने के बजाए उन्होंने इसके लिए उसी समय कुछ क्यों नहीं किया?'' शेख कहते हैं, ''अच्छी फसल में एक एकड़ जमीन से करीब 100 क्विंटल (100 किलो) प्याज पैदा होता है. इस बार मुझे प्याज की सिर्फ दस क्विंटल पैदावार मिली.''
इस हद तक कमी ने कीमतों को बढ़त पर धकेल दिया. शहरी उपभोक्ता 60 रु. प्रति किलो के आसपास चल रहे दामों को लेकर खीझ रहे हैं, लेकिन किसानों का मानना है कि वे इससे भी ज्यादा कीमत के हकदार हैं. लासलगांव में पिछले 30 साल से प्याज की खेती करने वाले किसान जगन्नाथ पवार कहते हैं, ''आम तौर पर हम करीब 10 रु. किलो का दाम लेते हैं, जिससे एक मौसम में हमें एक लाख रु. की आमदनी हो जाती है. अब हम 40 रु. किलो का दाम ले रहे हैं, फिर भी हमारी आमदनी सिर्फ 40,000 रु. हो रही है.''{mospagebreak}
किसानों की स्थायी लागत ऊंची हैं. प्रकाश कावडे का अनुमान है कि हर मौसम में एक एकड़ पर 25 से 30 हजार रु. खर्च करने होते हैं. वे कहते हैं, ''हमें बिजाई और कटाई के लिए मजदूर लगाने होते हैं, हमें कीटनाशक और उर्वरक खरीदने होते हैं और हमें अपनी फसल को नजदीकी मंडी तक ढोने के लिए खर्च करना पड़ता है.''
यहां यह अफवाह पहले ही चल रही है कि इस क्षेत्र में छह प्याज किसान आत्महत्या कर चुके हैं. किसान अपने कर्ज को लेकर चिंतित हैं. उलटे ओले पड़ने की व्यथा के अंदाज में जगन्नाथ कहते हैं, ''हम लोग गन्ने के बजाए प्याज इसलिए उगाते हैं, क्योंकि इसमें हम एक ऋतु में एक के बजाए तीन फसलें ले सकते हैं. आम तौर पर इससे हमें ज्यादा मुनाफा हासिल होता है.'' उन्होंने बच्चों समेत अपने परिवार के 20 लोगों को खेत में काम पर लगा रखा है, ताकि लागत कम हो और वह कर्ज लेने से बच सके.
लासलगांव के किसान प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के सरकार के फैसले से खुश नहीं हैं. शेख कहते हैं, ''निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के एक दिन पहले तक हमें मंडी से 60 रु. प्रति किलो का दाम मिल रहा था. अगले ही दिन दाम घटकर 30 से 40 रु. प्रति किलो रह गए.'' सारे किसान एकमत हैं. वे लोग सरकार से जो मात्र एक चीज चाहते हैं वह है निर्यात पर प्रतिबंध तुरंत हटाना. इससे उन उपभोक्ताओं के लिए दाम और बढ़ जाएंगे, जो 60 रु. प्रति किलो का दाम होने की शिकायत कर रहे हैं.
लासलगांव से 20 किमी दूर बाजार का शहर निफाड है और यहां प्याज के व्यापारी इस बात से बेहद नाखुश हैं कि सरकार अपनी खाल बचाने के लिए उन पर प्याज की जमाखोरी का आरोप लगाने की कोशिश कर रही है. उनके परिसरों में आयकर विभाग के मारे गए छापों को लेकर रोष है. उनका कहना है कि प्याज का अर्थशास्त्र न सरकार समझ्ती है और न मीडिया का वह वर्ग, जिसने बढ़ती कीमतों का दोष बिलौचियों की भूमिका पर मढ़ा है. संदीप झुणावत कहते हैं, ''मंडी में ज्यादा प्याज आ ही नहीं रहा है, जमाखोरी का तो सवाल ही नहीं है.''{mospagebreak}
दीपक भुतडा कहते हैं, ''प्याज की पहली खरीफ फसल बेहद जल्द खराब हो जाती है. मिट्टी से निकाले जाने के बाद यह दस दिन से ज्यादा नहीं रह पाती है. अप्रैल में आने वाली रबी की फसल को कम से कम तीन महीने के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है. हमें खरीफ की फसल तो तुरंत ही लदवानी होती है, वरना यह बाजार में पहुंचने तक सड़ जाती है और हमें घाटा उठाना पड़ जाता है.''
झुणावत कहते हैं, ''आप जानते हैं, जिस दिन निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया, उस दिन हमें भारी घाटा झेलना पड़ा है. हम 60 रु. प्रति किलो की दर से प्याज पहले ही खरीद चुके थे और हमें उसे 20 रु. प्रति किलो का घाटा उठाकर बेचना पड़ा, क्योंकि कीमतें तुरंत गिर गई थीं. इस बारे में कोई बात भी नहीं करता.'' ये परेशान व्यापारी सरकार को एक प्रस्ताव देना चाहते हैं.
पुष्कर रनवाल कहते हैं, ''सरकार को अगर यह लगता है कि हम लोग बहुत पैसे कमा रहे हैं, तो वह आकर यह व्यापार संभाल ले. हम लोग छांटने और डिब्बाबंद करने का अपना काम करते रहेंगे और हम सरकार से सिर्फ यह कहेंगे कि वह हमें प्रति किलो 50 पैसे की तय दर से मुनाफा दे दे.''
लासलगांव के एक ट्रांसपोर्टर सचिन गायकवाड़, जो इस क्षेत्र से प्याज को देश के अन्य क्षेत्रों में ले जाने वाले अधिकांश ट्रक उपलब्ध कराते हैं, प्याज की जबरदस्त कमी के मसले पर किसानों और व्यापारियों-दोनों की बातों का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं, ''अच्छे समय में हम रोजाना 150 ट्रक बाहर निकालते थे अब हम बमुश्किल 10 ट्रक निकाल रहे हैं. यह मांग और आपूर्ति का सीधा-सा खेल है.'' वे प्याज के जल्दी खराब होने के पहलू पर भी जोर देते हैं, ''मैं अपने ड्राइवरों को इस बात के लिए 4, 000 रु. का इनाम दे रहा हूं कि वे तय समय से एक दिन पहले अपने ठिकाने पर पहुंच जाएं.''
निफड में मंडी समिति कमेटी के दफ्तर में कृषि उत्पाद बाजार समिति के एक निदेशक राजेंद्र गोखले का पक्का मानना है कि लोग अगर प्याज की कीमत बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो उन्हें प्याज खाना बंद कर देना चाहिए. वे कहते हैं., ''जब आपूर्ति ठप हो चुकी है, तो जबरदस्ती कीमतें नीचे करवा कर आप किसान को निचोड़ नहीं सकते.''{mospagebreak}
जमाखोरी और बिलौचियों के मसले पर वे स्पष्ट करते हैं, ''व्यापारी एक अहम भूमिका निभाते हैं, वे मंडी से किसान की फसल खरीदते हैं, गुणवत्ता के आधार पर उसे छांटते हैं और फिर देश भर के केंद्रों में भेज देते हैं.'' एक अन्य स्थानीय व्यापारी नंदू बोरा व्यापारियों के समक्ष मौजूद जोखिमों को इंगित करते हैं, ''हम लोग मंडी से ट्रक भर-भरकर प्याज खरीदते हैं, हम गुणवत्ता के आधार पर उसे छांटने के लिए मजदूर रखते हैं, फिर उसे बोरी बंद करते हैं और भेज देते हैं. ढुलाई का खर्च हम उठाते हैं. हमारा मुनाफा पूरी तरह इस बात पर निर्भर होता है कि पहुंचने वाली जगह पर (थोक में) बाजार भाव क्या चल रहा है. कई बार यह हमारी लागत से ज्यादा होता और कई बार कम भी होता है.'' किसानों की ही तरह लासलगांव और निफड में व्यापारी भी कभी हारते हैं और कभी जीतते हैं.
गोखले एक कागज निकालते हैं, जिसमें निफड में 6 जनवरी के मंडी रेट दर्ज हैं. किसानों को जो औसत दाम मिले हैं, वे करीब 28 रु. प्रति किलो हैं, इसका दायरा सबसे कमजोर गुणवत्ता वाले प्याज के लिए 8 रु. प्रति किलो से लेकर सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले प्याज के लिए 43 रु. प्रति किलो से थोड़ा ज्यादा तक है.
वे कहते हैं, ''दिल्ली के बाजार में लोग सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला प्याज मांगते हैं. लिहाजा अगर आप व्यापारी की लागत जोड़ें, तो यह 2 रु. प्रति किलो पैकिंग की है, 1 रु. प्रति किलो ढुलाई का खर्च है, और दिल्ली की आजादपुर मंडी में थोक व्यापारी का कमीशन (2 रु. प्रति किलो) है. ऐसे में थोड़ा मुनाफा कमाने के लिए यह उसकी जरूरत है कि दिल्ली में प्याज की थोक कीमत 48 रु. प्रति किलो से थोड़ी ज्यादा हो.''
दिल्ली की आजादपुर मंडी में प्याज की थोक कीमत 50 रु. प्रति किलो है, जिससे निफड के व्यापारी को महज 2 रु. प्रति किलो का मुनाफा होता है, इसे कोई मोटा मुनाफा कतई नहीं कहा जा सकता है. आजादपुर से या कहीं और ऐसी ही किसी और मंडी से प्याज खरीदने वाले खुदरा व्यापारी इस 50 रु. में अपने लिए गुंजाइश निकालेगा, जिसमें उसका ढुलाई का खर्च भी शामिल होगा. अब अगर प्याज 60 रु. प्रति किलो की दर से बिक रहे हैं, तो 10 रु. प्रति किलो का मुनाफा कमाने वाले खुदरा विक्रेता है, न कि किसी भी तरफ का बिलौचिया, जो 2 रु. प्रति किलो के आसपास मुनाफा ले रहा है.
आजादपुर मंडी में प्याज और लहसुन के विक्रेता कृष्ण गोपाल का मानना है कि अगर कोई व्यक्ति कीमतें जबरदस्ती बढ़ा रहा है, तो वह सिर्फ खुदरा विक्रेता है. वे कहते हैं, ''लोग जो बात नहीं समझ पाते हैं वह यह है कि हरेक प्याज एक ही दाम पर नहीं बिकता. निश्चित तौर पर सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले प्याज का, जिसकी आपूर्ति बहुत कम है, थोक दाम 45 से 50 रु. प्रति किलो चल रहा है, लेकिन और भी स्तरों का प्याज है, जिनके थोक दाम कम हैं, सबसे घटिया स्तर का प्याज तो 10 रु. प्रति किलो बिक रहा है. {mospagebreak}
आपका स्थानीय सब्जीवाला करता यह है कि वह हरेक किस्म के प्याज को एक जैसे ऊंचे दाम पर बेच देता है.'' वे मानते हैं कि दिल्ली की जनसंख्या का कम-से-कम एक खास वर्ग सही दामों की परवाह ही नहीं करता है. वे कहते हैं, ''लोग प्याज खरीदेंगे ही, चाहे वह 60 रु. प्रति किलो हो या 70 रु. किलो हो. इसलिए खुदरा विक्रेता उसे उतने ही दामों पर बेच देता है.''
वे यह भी कहते हैं कि, ''इनमें से ज्यादातर खुदरा विक्रेता गरीब हैं और दिन में सिर्फ 10 या 20 किलो ही बेच पाते हैं. पेट भरने के लिए उन्हें मुनाफा थोड़ा ज्यादा रखना ही पड़ता है.'' महाराष्ट्र के व्यापारियों की तरह वे भी टैक्स छापों को लेकर परेशान हैं. वे अपने अपेक्षाकृत खाली पड़े कामकाजी चबूतरे की तरफ इशारा करते हैं, जहां सामान्य दिनों में प्याज भरा होता. वे कहते हैं, ''कमी बहुत जबरदस्त है. महाराष्ट्र और गुजरात से ज्यादा ट्रक आ ही नहीं रहे हैं. ऐसे में जमाखोरी कैसे हो सकती है?''
सरकार की ताबड़तोड़ ढंग से की गई कार्रवाई से हालात और बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है. गोपाल कहते हैं, ''अगर व्यापारी डर गए और उन्होंने काम करना बंद कर दिया. तो दाम और बढ़ जाएंगे.'' 10 जनवरी को हुई एक दिन की हड़ताल के पहले यही तर्क निफड में व्यापारी पुष्कर रनवाल ने भी दिया था.
प्याज की कीमतें सामान्य कब होंगी-इस बारे में लगाए गए ज्यादातर अनुमान अप्रैल के महीने पर जाकर रुकते हैं, जब रबी की फसल काटी जाएगी. वसीम शेख कहते हैं, ''वह प्याज की सबसे कठोर फसल होती है, वह काफी समय तक खराब भी नहीं होती है.''
निफड में कृषि उत्पाद बाजार समिति के गोखले इससे सहमति जताते हैं, ''प्याज की कीमतों के सामान्य स्तर पर आने के लिए हमें रबी की फसल का अप्रैल तक इंतजार करना होगा. निश्चित तौर पर इतने दिनों तक हमें यह भी प्रार्थना करनी होगी कि मौसम सामान्य बना रहे.''
आजादपुर मंडी में गोपाल ज्यादा आशावादी हैं. वे कहते हैं, ''गुजरात से खरीफ की दूसरी फसल अच्छी हो सकती है. यह फसल इस महीने के अंत तक दिल्ली आने लगेगी. अगले तीन सप्ताह में कीमतें थोड़ी कम हो सकती हैं.''
शरद पवार को निश्चित तौर पर यह उम्मीद करनी चाहिए कि गोपाल की बात सच निकले. पवार 21 दिसंबर को यह दावा करने के कारण आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं कि कीमतें तीन सप्ताह में कम हो जाएंगी. इस बीच, सरकार यह जताने और दिखाने की कोशिश कर रही है कि वह कुछ कर रही है. व्यापारियों पर छापों के बाद अब व्यापारियों की गिरोहबंदी की जांच कर रही है. आम तौर पर सुस्त पड़े रहने वाले कंपीटीशन कमीशन ऑफ इंडिया ने जांच शुरू कर दी है. आजादपुर मंडी का एक दौरा कर लेना उपयोगी रहेगा. 11 जनवरी को सबसे अच्छे स्तर का प्याज थोक में बोली की सामान्य प्रक्रिया के बाद करीब 45 रु. प्रति किलो की दर से बेचा गया है. मंडी के द्वार से महज सौ मीटर दूर एक छोटा सब्जी विक्रेता, जो जाहिर तौर पर काफी गरीब है, उसी मंडी से खरीदा गया मिश्रित स्तर का प्याज उसी सुबह 60 रु. प्रति किलो की दर से बेच रहा था. इस थोक और खुदरा के बीच कोई बिलौचिया नहीं था.