अयोध्या फैसले पर मुस्लिमों में व्याप्त गुस्से और असंतोष का असर दिखेगा बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर.
इस समय विधानसभा चुनाव के दौर से गुजर रहे बिहार में मुसलमान-देश भर में मौजूद समुदाय के अन्य लोगों की तरह-समान रूप से गुस्से में हैं और दुखी हैं, और इसका कारण अयोध्या मामले पर हाइकोर्ट का फैसला है. लेकिन दूसरों के उलट, राज्य के मुस्लिमों के पास अंदर ही अंदर घुटने की जगह अपना रोष प्रकट करने का मौका मौजूद है, और यह मौका जुटा रहा है विधानसभा चुनाव.
इस बात के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि मुस्लिम अपनी उदासीनता को भुला देंगे और चुनाव के दिन अपना पूरा गुस्सा निकाल देंगे. लेकिन, कौन-सी पार्टी या गठबंधन सबसे ज्यादा नुकसान में रहेगा? क्या यह लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा के साथ टीम बना रहे नीतीश कुमार की जद (यू) होगी? या फिर कांग्रेस को अपनी ''ऐतिहासिक गलतियों'' के अलावा फैसले का स्वागत करने के चलते इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा- हालांकि फैसले से पहले कई लोग मान रहे थे कि मुस्लिम कांग्रेस की ओर लौट रहे हैं.
ऐसे मुस्लिमों की संख्या भी अच्छी-खासी है जो विवादों से बचते हुए सही बात करते नजर आ रहे हैं. लेकिन, जब बात चुनावी विश्लेषण की आती है तो वे खरी-खरी कहने में विश्वास रखते हैं. शमीम अंसारी, कांट्रैक्ट पर काम कर रहे एक अध्यापक, कुछ निहितार्थों का पुट लिये बातें करते हैं. बिहार के औरंगाबाद जिले के 37 वर्षीय अंसारी प्रश्न पूछने के अंदाज में कहते हैं, ''जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से गरीबों में मुफ्त में अनाज वितरित करने के लिए कहा था, तो प्रधानमंत्री ने उसे नीति निर्धारण में हस्तक्षेप न करने की सलाह दी थी. लेकिन जब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने भ्रमित और सभी को 'संतुष्ट' करने वाला फैसला दिया तो कांग्रेस ने इसका स्वागत किया और वह हमसे चाहती है कि हम भी इसे स्वीकार करके आगे की सुध लें. क्या ये दोहरे मानदंड नहीं हैं?''
अंसारी जोर देते हैं कि इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के कांग्रेस द्वारा अनुमोदन पर उनका रुख, उनके ही नहीं बल्कि पूरे समुदाय के सोच का प्रतिनिधित्व करता है. वे कहते हैं, ''इसका असर होगा. मेरे लिए, जद (यू) के भाजपा के साथ गठबंधन के संदर्भ में लालू प्रसाद यादव बड़ी जीत के असल हकदार हैं. लेकिन कांग्रेस के इस नुकसान का फायदा अन्य राजनीतिक दलों को मिल सकता है.''{mospagebreak}
हालांकि मनमोहन सिंह सरकार इस मसले के साथ ब'त ही सावधानी के साथ पेश आई है और अयोध्या मामले पर कोर्ट के फैसले के क्रियान्वयन से कन्नी काटती दिखी, फैसला जो कहता है और इसे लेकर कांग्रेस की स्वीकार्यता चुनावी बिहार में बहुत मायने रखती है, जहां-बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक-राज्य की कुल जनसंख्या का मुस्लिम हिस्सा 16.53 फीसदी है. कहा जा सकता है कि बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 60 पर मुस्लिम वोट चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं और अररिया (41.14 %), पूर्णिया (36.76 %), कटिहार (42.53 %) और किशनगंज (67.58 %) जिलों में 24 सीटों पर निर्णायक हैं. राज्य की 50 अन्य सीटों पर नतीजों को बदलने की कुव्वत रखते हैं.
यही नहीं, मुसलमानों का जो ताजा रुझान देखने को मिल रहा है, उसका अंदाजा अयोध्या फैसले से पहले कदापि नहीं लगाया गया था. हाइकोर्ट का फैसला आने से पहले लगाए जा रहे सभी कयासों में मुसलमानों का समर्थन कांग्रेस की झेली में जाने के कयास लगाए जा रहे थे, जिसका एक कारण भाजपा द्वारा अपने मुख्य मतदाताओं का एकीकरण किए जाने को भी माना जा रहा था.
लेकिन जैसे ही फैसला आया, भाजपा ने उम्मीदों के विपरीत फैसले पर एकदम चुप्पी बनाए रखी, संभवतः ऐसा नीतीश कुमार के दबाव के चलते भी हो सकता है. चुनावी बयार में बह रहे बिहार में फैसले को लेकर मुस्लिमों की हताशा कांग्रेस विरोधी लहर में भी तब्दील हो सकती है.
हालांकि कांग्रेस इस मुद्दे से पूरी तरह वाकिफ लगती है. पार्टी ने चुनाव मैदान में 49 मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा है और यह किसी भी पार्टी द्वारा उतारे गए मुस्लिम उम्मीदवारों का सर्वाधिक आंकड़ा है. इसके पीछे पार्टी की यह उम्मीद हो सकती है कि वे मुस्लिमों का कांग्रेस से मोहभंग नहीं होने देंगे. लेकिन, अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि कांग्रेस ने अच्छी-खासी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतार कर अल्पसंख्यक खिंचाव को काफी हद तक कम कर दिया है.
यह भी माना जाता है कि मुस्लिम धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर भी वोट डालते हैं, कांग्रेस यह कल्पना कर सकती है कि उसके हिस्से में काफी कुछ आ जाएगा. स्वाभाविक तौर पर पार्टी उम्मीद कर रही है कि कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार अपने समुदाय के लोगों को सूक्ष्म स्तर पर आकर्षित करने में कामयाब हो सकेंगे. {mospagebreak}
पटना में मुस्लिमों के प्रतिष्ठित सामाजिक-धार्मिक संगठन इमारत शरिया के डिप्टी सेक्रेटरी मुफ्ती मोहम्मद सनाउल हौदा कासमी मुस्लिमों के दर्द को बयां करते हैं लेकिन जोर देकर कहते हैं कि यह अकेले कांग्रेस को निशाना नहीं बनाता है. वे कहते हैं, ''हम फैसले का सम्मान करते हैं, लेकिन इसके मायने यह नहीं है कि हम इसे स्वीकार भी करते हैं. कांग्रेसियों की तरह हर कोई अपने विचार रखने के लिए आजाद है.
लेकिन, कौन क्या कह रहा है इस मुद्दे को लेकर ज्यादा जागरूकता नहीं हैं. मुस्लिम कांग्रेसियों के पक्ष में या उनके खिलाफ वोट कर सकते हैं. लेकिन, कांग्रेसी खुले तौर पर फैसले का समर्थन करते नजर आए हैं इस कारण से सिर्फ 10 फीसदी से ज्यादा मुस्लिमों के प्रभावित होने की संभावना है. इससे ज्यादा नहीं.'' कासमी का यह भी मानना है कि अन्य समुदायों की अपेक्षा मुस्लिम युवा ज्यादा खिन्न नजर आ रहे हैं. वे कहते हैं, ''ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एक विचारशील और जागरूक पीढ़ी है. इसके अलावा, मुस्लिमों के धड़े धार्मिक आधार पर भी वोट दे सकते हैं.''
पटना हज भवन में कॉलेज छात्र नसीम सिद्दीकी को अपनी हताशा जाहिर करने के लिए शब्द ही नहीं मिलते हैं. उनका कहना है, ''फैसले ने न सिर्फ मुस्लिमों को शिकस्त दी है बल्कि इसने भारत की धर्मनिरपेक्षता पर भी एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है.'' हाजीपुर का रहने वाला यह 22 वर्षीय युवा जो अपने खाली समय में हज यात्रियों की सेवा का काम करता है, नेताओं के गिरगिट की तरह रंग बदलने के अंदाज से पूरी तरह खिन्न है. उन्होंने बड़ी ही साफगोई से कहा, ''मैं वोट नहीं डालूंगा. इससे होगा भी क्या? यही नहीं, हमारा 150 मुस्लिम युवाओं का समूह सत्ता के लोभी नेताओं को वोट डालने के बदले इस बार चुनावों का बहिष्कार करेगा.'' उसकी आवाज शांत हो जाती है लेकिन एक बेचैनी का भाव उसके चेहरे पर साफ नजर आता है.
एडवर्टाइजिंग और मार्केटिंग में पीजी डिप्लोमा लिए नौकरी की तलाश कर रहीं 21 वर्षीया कहकशां कुरैशी ''आगे बढ़ने'' के लिए कहती हैं. हालांकि कहकशां अयोध्या फैसले को लेकर अच्छा महसूस नहीं करती हैं लेकिन वे जोर देती हैं कि ये समय वास्तविक मसलों पर ध्यान देने का है. वे कहती हैं, ''मैं नौकरी की तलाश में हूं. रोजगार मेरी चिंता का पहला विषय है. महंगाई, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा मुख्य मसले हैं. दोनों समुदायों के पास पूजा-इबादत के लिए पर्याप्त स्थान हैं.'' कहकशां असल तथ्यों से अनजान नहीं हैं और वे अपनी राय जाहिर करने के लिए वोट देंगी. उनका कहना है, ''बेशक, समुदाय की इस दशा के लिए कांग्रेस काफी हद तक जिम्मेदार है-प्रतीकात्मक और वास्तविक दोनों मायनों में. निजी तौर पर मैं लालू प्रसाद की जगह नीतीश कुमार को चुनना पसंद करूंगी क्योंकि मैंने उन अंधकारमय दिनोंके बारे में सुन रखा है.'' {mospagebreak}
नीतीश कुमार के समर्थन वाली ये आवाजें कुछ अन्य मध्यवर्गीय मुस्लिमों में भी सुनी जा सकती हैं. लेकिन पटना में दवा की दुकान चलाने वाले 44 वर्षीय अफाक अख्तर इस बात को लेकर खेद जताते हैं कि अल्पसंख्यकों के पास विकल्पों का अभाव है. अख्तर कहते हैं, ''लेकिन, यह सबकी तरह है. हमारे पास, हमारी पसंद का एक भी नेता नहीं है.''
हालांकि अफाक इस बात से सहमत हैं कि कांग्रेस द्वारा फैसले का समर्थन करने से राज्य में पार्टी की संभावनाओं पर बेशक असर पड़ेगा. उनकी पत्नी रुबीना अख्तर का मानना है कि मुस्लिमों को लालू और नीतीश में से चुनाव करना होगा. वे कहती हैं, ''उन सीटों पर जहां से नीतीश की गठबंधन सहयोगी भाजपा चुनाव लड़ रही है वहां मुस्लिम लालू को वोट डालना पसंद करेंगे. ऐसा माना जा रहा है कि अगर चुनाव बाद अनुकूल परिस्थितियां नहीं बनती हैं तो कांग्रेस राजद के साथ आकर शून्यता को पूरा करेगी.''
जद (यू) भी पूरी तरह से सावधान है. भाजपा के साथ अभी तक संयुक्त रैली को अंजाम नहीं दिया गया है. लालकृष्ण आडवाणी का पहला दौरा 19 अक्तूबर को हुआ था-पहले चरण के मतदान के लिए प्रचार का आखिरी दिन. संयोग से, आडवाणी को उन 47 सीटों से दूर रखा गया है जहां मुस्लिमों की अच्छी-खासी संख्या में मौजूदगी है-जिन सीटों पर 21 अक्तूबर को चुनाव होना है.
हालांकि बिहार की चुनावी राजनीति में अभी फैसला आना बाकी है. अयोध्या फैसले का असर और राजनीतिक दलों के रुख को भी फिलहाल पहचाना नहीं जा सकता है. ऐसा लगता है कि अधिकतर लोग अभी इस बात का आकलन नहीं कर पा रहे हैं कि किस तरह से यह सब मुस्लिमों को प्रभावित करेगा. लेकिन अतीत में मुद्दे को धार्मिक ध्रुवीकरण का कारण बनते हुए देखा गया है, बेशक भावोत्तेजना से भरपूर लहर एक बार फिर गुस्से और दुख से सराबोर अल्पसंख्यक समुदाय को अपने मस्तिष्क को बदल कर कोई दृढ़ फैसला लेने के लिए मजबूती प्रदान कर सकती है.
राज्य की कुल आबादी का मुस्लिम हिस्सा 16.53 फीसदी है. राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से 60 पर मुस्लिम वोट अहम स्थान रखते हैं जबकि 24 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.