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जो घोटाले की पकड़ से परे, वह पार...

अस्तित्व से जुड़े एक गहरे ऊहापोह से गुजर रहा है भारतीय लोकतंत्रः वित्तीय ईमानदारी के साथ इसका बसर संभव नहीं.

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भ्रष्टाचार का विलोम क्या होगा, बताइए जरा. ईमानदारी? अगर यही आपका जवाब है तो फिर से क्लास में जाइए और भारतीय लोकतंत्र के प्राक्कथन/प्रवेशिका को दोबारा पढ़कर आइए.

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लोकतंत्र यानी जम्‍हूरियत एक सुसंगठित और गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाला कारोबार है, जिसमें सारी खरीद-फरोख्त इस धंधे की बुनियादी वस्तु मतदाता के जज्‍बात, अंदेशे और आक्रोश के मोलभाव में होती है. पार्टियों को कम-से-कम पांच साल में तो एक दफा नफा-नुक्सान का खाता खंगालना ही पड़ता है. कभी-कभार तो बीच में भी नौबत आ जाती है. कामयाब हुए तो समझिए पारस पत्थर हाथ लग गया और नाकाम हुए तो चारों ओर बस गहरी निराशा का समंदर ही एक सजा. (कुछ बेहद अहम राज्‍यों में लगातार सत्ता में बने रहने के बावजूद भाजपा उस भंवर से नहीं निकल पा रही है, जिसमें वह 2004 की हार के बाद जा फंसी थी.)

पार्टी को चाहिए होता हैः एक अदद चेयरमैन/अध्यक्ष, बोर्ड के मेंबरान, तमाम तरह के कामों के लिए अलग-अलग चीफ एक्जीक्यूटिव-युक्तियों और योजनाओं के लिए एक उपजाऊ क्यारी, लगातार प्रबंधन और समय पर खरी, परंपरागत सप्लाई लाइनों-कार्यकर्ताओं और मालमत्ता की कभी-कभार फिर से खोज. इस शब्दावली में थोड़ा-बहुत हेरफेर हो सकता है. जैसे कि निदेशक मंडल की बजाए कार्यसमिति. लेकिन जिम्मेदारियां एक ही जैसी ही हैं. नकदी के बगैर तो पार्टी की मशीन के पहिए चुंचुंआते हुए ठहर जाते हैं. कहते भी हैं कि पैसे पर दुनिया डोले; और सियासत का तो पूरा नजारा ही प्यासों की दुनिया वाला है.{mospagebreak}

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पैसे की जरूरत तो महात्मा गांधी को भी कांग्रेस नाम के अपने ब्रांड के लिए पड़ी थी. उनका भी उपाय बाजारोन्मुखी था. बगावत के अपने पहले बड़े कदम खिलाफत-असहयोग आंदोलन के लिए उन्होंने चार आने का सदस्यता शुल्क रखकर रकम जुटाई. कांग्रेस के सदस्य तो आजादी के उनके उद्यम में शेयरधारक थे. हालांकि चवन्नी वाले ये मेंबर यह चार आना खर्च किए जाने का हिसाब भी पूछते ही रहे होंगे.

गांधी की साख के चलते कांग्रेस की मालमत्ता बराबर बनी रही. खिलाफत और उनकी हत्या के बीच के चौथाई सदी के वक्फे में कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं लगा. और किसी भी पार्टी का रिकॉर्ड ऐसा नहीं रहा. दो राय नहीं कि कांग्रेस ने आजादी के बाद उन खोए हुए मौकों की भरपाई से भी ज्‍यादा बटोरा-समेटा. हमारे ताजा असमंजस की धुरी ही असल में वहीं टिकी है.

आज की राजनीति सिर्फ शेयरधारकों की अंशधारिता के बूते नहीं चल सकती. मार्केटिंग की मांग और लागत की स्थिति विस्फोटक हो चुकी है. अब परंपरागत उद्योग तो बैंक से पैसा मांग सकते हैं पर सियासी उद्योगों ने अपने को ढोंग-पाखंड के धुंधलके में ला खड़ा किया है. पहले तो उन्होंने कहा कि अमीरों का चंदा अशुद्ध होता है, जैसे कि गरीबों के पास हुंडी जमा करके रखी हुई है.{mospagebreak}

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हिंदुस्तान के विशाल मध्यम वर्ग में लोकतंत्र को लेकर जबरदस्त जज्‍बा है. इसमें ताज्‍जुब की भी कोई बात नहीं. लेकिन उसकी चाहत ये है कि उसके मौज-मजे की कीमत कोई और भरे. एक नंबर की रकम खर्चने में जहां भी थोड़ी हिचक सामने आई, काले धन ने तुरंत लपककर उसकी जगह ले ली. अब तो यह चुनाव यानी लोकतंत्र की लेखाजोखा प्रणाली के साथ एक पर्याय के रूप में जुड़ गया है. यानी सियासत में भ्रष्टाचार का विलोम ईमानदारी नहीं बल्कि पाखंड और मिथ्याचार है.

आइए अब जरा आज के दो ऐसे नेताओं का जायजा लें, जो अपने आप में ईमानदारी के प्रमाण हैं. निजी संपत्ति को लेकर दोनों ही नितांत उदासीन रहे हैं. दोनों अपने-अपने पिरामिड के शीर्ष पर टिकते हैं. इनमें से एक तो नील नदी के किनारे के गिजा पिरामिड की बजाए एक कहीं बड़े 3-डी त्रिकोण के शीर्ष पर विराजमान हो सकता है. ये दो सियासतदां डॉ. मनमोहन सिंह और ममता बनर्जी के सिवा कौन हो सकते हैं.

डॉ. सिंह साफ हाथों में खिलते-फबते हैं. लेकिन यही तथ्य इसी से जुड़ता एक दूसरा सवाल खड़ा करता है, जिसे कि कोई पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता. कांग्रेस के लिए अगर डॉ. सिंह पैसा नहीं बटोरते हैं तो फिर आखिर कौन बटोरता है? कोषाध्यक्ष तो बस रखवाले होते हैं; पैसा जुटाना उनका काम नहीं होता. पाइपलाइन डॉ. सिंह के ड्राइंगरूम से होकर भले न गुजरती हो लेकिन कई और गलियारों में तो इसके ढक्कन हैं ही.

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{mospagebreak}और सरकार की ताकत का सीधा फायदा प्रधानमंत्री को न मिल रहा हो तो भी यह उस प्रक्रिया को खाद-पानी देने का काम तो करती है. उन्हें पता है कि उनके कई कैबिनेट मंत्री बोरे भर-भरकर नोट उगाहते हैं, और इनमें से सब के सब डीएमके वाले नहीं हैं. तो क्या आंखों पर पट्टी बांध लेना ही शुचिता का प्रतीक है?

बंगाल में ममता बनर्जी अभी उस बिल्ली की भूमिका में आई हैं, जिसका कि छींके से अभी-अभी तार्रुफ कराया गया है. इतने पर ही वे दर्जनों रेशमी साड़ियां और बड़ी मात्रा में कोलकाता के मशहूर गहने खरीदने के लिए नहीं लपक पड़ीं. धन के ऐसे दिखावे को वे खूबसूरती नहीं बल्कि चेहरे पर दाग के रूप में देखती हैं. वे ज्‍यादा-से-ज्‍यादा अपने लिए एक जोड़ा अतिरिक्त चिमटियां रख लेने का सुख ले सकती थीं. लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चे को हराने के लिए उन्हें रकम की दरकार तो होगी ही. जज्‍बे को उफान पर लाने के लिए जरूरी बयार तो रोकड़े से ही उठती है.

सत्ता में शर्तिया तौर पर उनके आने का संकेत कोलकाता के कारोबारी दे रहे हैं. तीन दशक तक वाम मोर्चे की इमदाद पर पलते हुए तमाम सरकारी जमीन को निजी जायदाद में तब्दील करने वाले ये कारोबारी अब ममता के लिए थैली खोलने को बेताब हैं. वाम मोर्चा एक अजीब स्थिति से दोचार है. जब नोटों का बोरा कहने लगे कि उसके पास तो बटुआ ही है तो समझ जाइए कि आप चुनावी संकट में हैं.{mospagebreak}

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अस्तित्व से जुड़े एक गहरे ऊहापोह से गुजर रहा है भारतीय लोकतंत्रः वित्तीय ईमानदारी के साथ इसका बसर नहीं. व्यक्तिगत तौर पर आप भ्रष्ट नहीं हो सकते, इसका कोई अर्थ नहीं. लोकतंत्र का कारोबार चलाने के लिए आपको संस्थागत तौर पर भ्रष्ट होना ही पड़ेगा. चुनावों की नैतिक संहिता शीशे की तरह साफ हैः न पूछिए, न बताइए. और खुदा के वास्ते, अपने को पकड़े जाने से बचाइए.

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