भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान असुंता लाकड़ा ने जब एस्ट्रोटर्फ मैदान पर अपने भाई बिमल लाकड़ा के पुराने जूते पहनकर अभ्यास किया था तो तब उन्होंने सोचा नहीं था कि वह भी एक दिन अपने भाई के नक्शेकदम पर चलने में सफल रहेगी. असुंता ने साक्षात्कार में कहा, ‘मैं अपने भाई बिमल के पुराने जूते लेकर अभ्यास करती थी. एस्ट्रोटर्फ मैदान पर अच्छे जूतों के बिना चोट लग सकती है.’
उन्होंने कहा, ‘अच्छे जूते खरीदने की बात तो दूर रही उन दिनों नियमित रूप से हास्टल की फीस देना भी मुश्किल होता था. तब जूतों की कीमत लगभग 1000 रुपये हुआ करती थी.’
असुंता ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हॉकी खेलने वाले अपने भाईयों बिमल और बीरेंद्र को अपना प्रेरणास्रोत बताया. उनका भारत की तरफ से पदार्पण शानदार रहा. वह भारत की जिस अंडर 18 टीम का हिस्सा थी उसने 2000 में एशिया कप जीता था. इसके 11 साल बाद वह वास्तव में अपने भाईयों के नक्शेकदम पर चलने में सफल रही और कप्तान बनकर उनसे एक कदम आगे निकल गयी.
अब इस मिडफील्डर की निगाहें दिल्ली में छह देशों के टूर्नामेंट पर लगी हैं जो ओलंपिक के लिये क्वालीफाई करने का आखिरी मौका होगा.
उन्होंने कहा, ‘हम फरवरी में होने वाले टूर्नामेंट में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिये तैयार हैं. केवल चोटी पर रहने वाली टीम ही लंदन ओलंपिक के लिये क्वालीफाई कर पाएगी.’
असुंता की हॉकी के शिखर पर पहुंचने की कहानी आसान नहीं रही. उन्होंने कहा, ‘झारखंड के अन्य आदिवासी लड़कों और लड़कियों की तरह मैं भी बांस की मुड़ी हुई स्टिक से खासी (विजेता टीम को पुरस्कार के तौर पर मिलने वाला बकरा) के लिये टूर्नामेंट खेला करती थी.’
रांची के गोसनर कालेज से बीए करने वाली असुंता ने कहा, ‘इसके बाद मैं रांची में बारियातु हाकी हास्टल में चली गयी. मुश्किल के उन दिनों में मैंने अपने भाईयों की एक पुरानी स्टिक से काम चलाया था. सफलता के लिये कोई आसान रास्ता नहीं होता है. यदि कोई अपनी जिंदगी में सफल होना चाहता है तो उसे कड़ी मेहनत करनी ही होगी.’
उन्होंने हालांकि सुझाव दिया, ‘किसी भी प्रतिभावान हॉकी खिलाड़ी को इस तरह की मुश्किलों से नहीं गुजरना चाहिए. उसे शुरू में खेल की किट मिल जानी चाहिए.