कभी जगजीत जी ने ही गाया था - 'होंठों से छूलो तुम, मेरा गीत अमर कर दो.' किसे पता था कि उनके करोड़ों चाहने वाले एक दिन सिसकते हुए कहेंगे - 'हम कैसे करें इक़रार, कि हां तुम चले गए?'
दुनिया भर में रौशन ग़ज़ल गायिकी की एक मुक़द्दस किताब बंद हो गई. अब न उनकी आवाज़ में चिट्ठियां मिलेंगी और न प्यार का कोई संदेश. न ग़ज़ल अपनी जवानी पर इतराएगी और न शायरी के परस्तार उस मखमली आवाज़ के जादूगर से रूबरू हो पाएंगे. लेकिन एक बात जो बार-बार ज़हन में ताज़ा हो रही है. बात थोड़ी पुरानी पुरानी हो गई है. लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहां होती है. ठीक वैसे ही जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं. ठीक वैसे ही जैसे वो मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी हमेशा आसपास ही कहीं सुनाई देती रहेगी.
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जगजीत भाई यूएस में थे, वहीं से फ़ोन किया, 'आलोक, कश्मीर पर नज़्म लिखो. एक हफ़्ते बाद वहां शो है, गानी है.' मैंने कहा, 'मगर में तो कभी कश्मीर गया नहीं. हां, वहां के हालाते-हाज़िर ज़रूर ज़हन में हैं, उन पर कुछ लिखूं.?'
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'नहीं कश्मीर की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ुसूसियात पर लिखो, जिनकी वजह से कश्मीर धरती की जन्नत कहा जाता है. दो रोज़ बाद दिसंबर को इंडिया आ रहा हूं, तब तक लिखकर रखना. सुनूंगा.' जगजीत सिंह, जिन्हें कब से 'भाई' कह रहा हूं अब याद नहीं. भाई का हुक्म था, तो ख़ुशी के मारे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. मगर वही पांव कांप भी रहे थे कि इस भरोसे पर खरा उतर भी पाऊंगा, या नहीं.? जगजीत भाई के साथ 'इंतेहा' (एलबम) को आए तब कुछ वक़्त ही बीता था. फ़िज़ा में मेरे लफ़्ज़ भाई की मखमली आवाज़ में गूंज रहे थे और दोस्त-अहबाब पास आकर गुनगुना रहे थे- मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है/हौसला हो तो फ़ासला क्या है.''
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वो सर्दी से ठिठुरती रात थी. दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुशायरा था. डाइज़ शायरों से सजा था. रात के कोई ग्यारह बजे होंगे. मैं दावते-सुख़न के इंतज़ार में था कि तभी मोबाइल घनघनाया. वादे के मुताबिक़ जगजीत भाई लाइन पर थे और मैं उस नज़्म की लाइनें याद करने लगा जो सुबह ही कहीं थीं. 'हां, सुनाओ, कहा कुछ.?' 'जी, मुखड़े की शक्ल में दो-चार मिसरे कहे हैं.' 'बस, दो-चार ही कह पाए...चलो सुनाओ.' मैंने डरते हुए अर्ज़ किया-
पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र
'हां अच्छा है, इसे आगे बढ़ाओ.' जो जगजीत भाई को क़रीब से जानते थे, वो ये मानते होंगे कि उनका इतना कह देना ही लाखों दानिशमंदों की दाद के बराबर होता था. 'जी, परसों संडे है, उसी दिन पूरी करके शाम तक नोट करा दूंगा.' उनके ज़हन में जैसे कोई क्लॉक चलता है, सोचा और बोले - 'अरे उसके दो रोज़ बाद ही तो गानी है, कम्पोज़ कब करूंगा और जल्दी कहो.' मगर मैंने थोड़ा आग्रह किया तो मान गए. दो रोज़ बाद फ़ोन लगाया तो कार से किसी सफ़र में थे 'क्या हो गई नज़्म, नोट कराओ.' मैंने पढ़ना शुरू किया-
पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
ये कश्मीर क्या है
है जन्नत का मंज़र
यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत
यहां की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत
यहां की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर
ये कश्मीर क्या है
है जन्नत का मंज़र
ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे
ये वादी में हंसते हुए फूल सारे
यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे
फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर
ये कश्मीर क्या है
है जन्नत का मंज़र
सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना
अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना
यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर
ये कश्मीर क्या है
है जन्नत का मंज़र
'अच्छी है, मगर क्या बस इतनी ही है.?' मैंने कहा, 'जी, फ़िलहाल तो इतने ही मिसरे हुए हैं.' 'चलो ठीक है...मिलते हैं.'
गजल को नई ऊंचाई दी जगजीत सिंह ने
एक बर्फ़ीली शाम 4 बजे श्रीनगर का एसकेआईसीसी ऑडिटोरियम ग़ज़ल के परस्तारों से खचाखच भरा, ग़ज़ल गायिकी के सरताज जगजीत सिंह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. कहीं सीटियां गूंज रहीं थीं, तो कहीं कानों को मीठा लगने वाला शोर हिलोरे ले रहा था और ऑडिटोरियम की पहली सफ़ में बैठा मैं, जगजीत भाई की फ़ैन फ़ॉलॉइंग के इस ख़ूबसूरत नज़ारे का गवाह बन रहा था.
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जगजीत जी स्टेज पर आए और ऑडिटोरियम तालियों और सीटियों की गूंज से भर गया और जब गुनगुनाना शुरू किया तो माहौल जैसे बेक़ाबू हो गया. एक के बाद एक क़िलों को फ़तह करता उनका फ़नकार हर उस दिल तक रसाई कर रहा था, जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ून ही गर्दिश कर सकता है. उनकी आवाज़ लहू बन कर नसों में दौड़ने लगी थी. जग को जीतने वाला जगजीत का ये अंदाज़ मैंने पहले भी कई बार देखा था, लेकिन उस रोज़ माहौल कुछ और ही था.
उस रोज़ जगजीत भाई किसी दूसरे ही जग में थे. ये मंज़र तो बस वहां तक का है जहां तक उन्होंने 'कश्मीर नज़्म' पेश नहीं की थी. दिलों के जज़्बात और पहाड़ों की तहज़ीब बयां करती जो नज़्म उन्होंने लिखवा ली थी उसका मंज़र तो उनकी आवाज़ में बयां होना अभी बाक़ी था.
मगर जुनूं को थकान कहां होती.? अपनी मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी के पीछे जैसे ही उन्होंने पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर बिछाई पूरा मंज़र ही बदल गया. हर मिसरे पर 'वंसमोर, वंसमोर' की आवाज़ ने जगजीत भाई को बमुश्किल तमाम आगे बढ़ने दिया. आलम ये रहा कि कुल जमा सोलह मिसरों की ये नज़्म वो दस-पंद्रह मिनिट में पूरी कर पाए.
दूसरे दिन सुबह श्रीनगर के सारे अख़बार जगजीत के जगाए जादू से भरे पड़े थे. एक दैनिक समाचार में 'ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र' की हेड लाइन थी और ख़बर में लिखा था- ''पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर/चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर/हसीं वादियों में महकती है केसर/ कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर/ ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र. आलोक श्रीवास्तव के इन बोलों को जब जगजीत सिंह का गला मिला, तो एसकेआईसीसी का तापमान यकायक गरम हो गया. ये नज़्म की गर्मी थी और सुरों की तुर्शी. ऑडिटोरियम के बाहर का पारा माइनस में ज़रूर था मगर अंदर इतनी तालियां बजीं कि हाथ सुर्ख़ हो गए. स्टीरियो में कान लगाकर सुनने वाले घाटी के लोग और जगजीत सिंह बुधवार को यूं आमने-सामने हुए.''
बात थोड़ी पुरानी हो गई है, लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहां होती है. ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं. ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी कहीं आसपास ही सुनाई देती रहेगी. आमीन.
(लेखक जाने माने कवि-पत्रकार हैं और ‘आजतक’ चैनल से जुड़े हैं)