जब नरेंद्र मोदी ने भारत के अगले प्रधानमंत्री के लिए अपनी दावेदारी पेश की तो उन्हें इस हकीकत का अंदाजा नहीं था कि एक अदद टोपी उनके दावे को कमजोर कर देगी. अब काफी चर्चित हो चुकी 'टोपी की घटना' अहमदाबाद में सोच-समझ्कर आयोजित सद्भावना उपवास के दौरान सहजता की एक नायाब मिसाल है, जब गुजरात के मुख्यमंत्री ने 'मुझे इस सम्मान से अलग ही रखें' के अंदाज में मौलाना हजरत सूफी इमाम शाही सैयद मेहंदी हुसैन की ओर से पेश की गई इस्लामी टोपी पहनने से इनकार कर दिया.
नरेंद्र मोदी का अनशन महज एक तमाशा | फोटो
गुजरात के मुसलमानों और भारत की आम जनता तक पहुंच बनाने के लिए आतुर एक नेता के लिए कैमरों में कैद उस क्षण का व्यापक अर्थ है, खासकर इसलिए कि देश में जातिगत विविधता को दर्शाने के लिए विभिन्न प्रकार की रंगीन पगड़ियां पहनने के लिए मोदी तत्पर दिखते हैं.
नीतीश और मोदी में कौन बनेगा प्रधानमंत्री?
भारत के राज्यों में से सर्वाधिक लोकप्रिय इस प्रशासक ने किसी राष्ट्रीय नेता के लिए जरूरी राजनैतिक स्वीकार्यता और 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी की घोषणा करने के लिए तीनदिवसीय सद्भावना उपवास के रूप में गांधीवादी शॉर्टकट चुना था. वहां भाजपा के दिग्गजों की कतार, जिसमें सब मोदी जितने ही महत्वाकांक्षी हैं पर जिनका कद उतना बड़ा नहीं है, प्रमुख दावेदार के रूप में बढ़ते उनके दबदबे का संकेत थी. लेकिन जब इस नाटक का पटाक्षेप हुआ तो क्या मोदी महज आतुर-अधीर खिलाड़ी के रूप में जरूरत से ज्यादा अभिनय करते नजर आए?
इंटरव्यू: निहित स्वार्थ रखने वाला ही विरोध करता है: मोदी
यह सवाल इसलिए अनिवार्य हो गया क्योंकि अहमदाबाद में खुद को संत घोषित करने का नाद पटना में व्याप्त खामोशी के बिल्कुल विपरीत था. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और मोदी के बीच धुन के मामले में एक ही साम्य हैः दोनों विकास के अलंबरदार हैं. जब मोदी 21वीं सदी के ऐसे सरदार पटेल के रूप में अपने खुद के मिथक को भुनाने की कोशिश करते हैं जो गुजरात से भी बड़े इलाके में छा जाने का अधिकारी है तब नीतीश चुपचाप आत्मविश्वास से अपनी बारी का धैर्यपूर्वक इंतजार करते हैं.
इंटरव्यू: बिहार के लिए काम करके मैं खुश हूं: नीतीश
जब मोदी अखबारों के पहले पन्ने पर और टेलीविजन के प्राइम टाइम में छाकर भाजपा में अपने सहयोगियों और राजग में अपने साझीदारों को आतंकित करते हैं तब नीतीश पटना में खामोशी ओढ़ लेते हैं और जरूरी बयान देने से भी इनकार कर देते हैं. यदि अहमदाबाद में तड़क-भड़क विभाजन पैदा कर रही थी, तो पटना में खामोशी आश्वस्त करने वाली थी. जब शो खत्म हुआ और मोदी ने नीबू पानी ग्रहण कर लिया तो उनके और प्रधानमंत्री पद की उनकी ममहत्वाकांक्षा के बीच एक शख्स आ खड़ा हुआ-नीतीश कुमार.
दक्षिणपंथ के निर्विवाद रूप से सर्वाधिक लोकप्रिय नेता मोदी में आखिर ऐसी क्या बात है जिससे वे 2002 के बाद गुजरात में सांप्रदायिक विभाजन कम करने की अपनी प्रशंसनीय उपलब्धि के बावजूद ध्रुवीकरण का केंद्र बने हुए हैं? आखिर वे अब भी गुजरात से परे स्वीकार्यता पाने के लिए संघर्षरत डरावने व्यक्ति क्यों बने हुए हैं? इंडिया टुडे और दूसरे प्रकाशनों के सर्वेक्षणों में भी मोदी भारत के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री और गैर-यूपीए में सर्वश्रेष्ठ संभावित प्रधानमंत्री के रूप में निरंतर बढ़त बनाए हुए हैं, लेकिन वे अब भी छवि बदलने की परियोजना से मुक्ति नहीं पा सकतेः वे निरंतर प्रयासरत हैं.
मोदी हिंदुत्व के समझैता न करने वाले नेता के रूप में अपनी ही छवि में कैद हो गए हैं. यह हिंदुत्व-वादियों के लिए तो ठीक है लेकिन भारत में समावेशी नेतृत्व की स्थायी मूर्ति अटल बिहारी वाजपेयी ने किसी दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री के लिए एक स्वर्ण मानक तय कर दिया था. मोदी अब भी सच्चे कट्टरपंथी हैं, और कट्टरपंथ किसी को सफल तो बना सकता है लेकिन अंतिम सफलता नहीं दिला सकता. फिर दंगों से जुड़े मुकदमों का कानूनी भंवरजाल है, जिससे वे निरंतर उबरने का प्रयास कर रहे हैं, और उन्हें या किसी अौर को शायद ही मालूम होगा कि वे कब तक उबर जाएंगे.
मोदी ने आलोचकों के लिए अपना जवाब तैयार रखा है. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, ''जब मैंने पद संभाला तो कई लोगों को लगा कि मैं सरकार चलाने के लिए बहुत अनुभवहीन हूं लेकिन आज वे ही लोग कहते हैं कि मैंने खुद को खरा साबित कर दिया है. सो, समय के साथ राय बदल सकती है. पर भारत में बौद्धिक सामर्थ्य के साथ निहित स्वार्थ वाला एक समूह है जो सरदार पटेल, मोरारजी देसाई, अटल जी, आडवाणी जी और अब मेरा विरोध करता आ रहा है. अतः यह मानना उचित नहीं है कि मैं ध्रुवीकरण करने वाला व्यक्ति हूं'' (देखें बातचीत).
खुद पर इस कदर यकीन पूरी तरह बेजा नहीं है क्योंकि वे 2014 के लिए आज भी भाजपा के सबसे दमदार दावेदार हैं. भारत में व्यापक जनाधार वाले एक बेहतरीन प्रशासक और संवाद कौशल वाले व्यक्ति के रूप में मोदी की छवि अजेय ताकत बन जाएगी. गुजरात उनकी जितनी बड़ी ताकत है, उतना ही बड़ा अभिशाप भी है. अब वे बेदाग शासक और विकास के अलंबरदार के रूप में अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय छवि को लटकाने के लिए बड़ी दीर्घा चाहते हैं.
गुजरात ऐसा विकास मॉडल है जिस पर उद्योग के दिग्गज नाज करते हैं और द इकनॉमिस्ट उसके बारे में लिखती रहती है. मोदी के नेतृत्व में राज्य एक ऐसा आर्थिक ऊर्जा घर बन गया है, जिसकी विकास दर देश की विकास दर से भी ज्यादा है. गुजरात देश का 16 फीसदी औद्योगिक उत्पादन करता है और देश के निर्यात में उसका योगदान 22 फीसदी है. आधारभूत संरचना से लेकर कृषि तक, शिक्षा से लेकर हरित प्रौद्योगिकी तक, गुजरात ने लंबे डग भरकर भारत को दिखा दिया है कि ध्यान देने वाला नेतृत्व क्या-क्या कमाल कर सकता है.
उद्योगपति और गुजरात चेंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष महेंद्र पटेल कहते हैं, ''मोदी की सबसे बड़ी थाती उनका मिशनरी जज्बा है, जिसने नौकरशाही और उद्योग को काम करने के लिए मजबूर कर दिया है. विकास के उनके मॉडल में सबसे निचले स्तरों तक पहुंचने की विशेषता है.'' 2007 में विधानसभा चुनाव के ऐन पहले भाजपा विधायकों के दबाव के बावजूद सख्त प्रशासक मोदी ने भूजल चुराने में शामिल किसानों के खिलाफ कार्रवाई बंद करने से इनकार कर दिया. वे भागीदारी से युक्त विकास के दूत बन गए हैं.
उनका कहना है, ''अगर आप भारत के पिछले 40 वर्षों को देखें तो आप पाएंगे कि सत्ताधारी पार्टियों ने अपना वोट बैंक मजबूत करने के लिए बजट बनाए. उन्होंने ऐसे मॉडल तैयार किए जिनसे लोग सरकार पर निर्भर हो गए. लेकिन गुजरात में हमने वोट बैंक आधारित मॉडल खारिज करके एक नया मॉडल बनाया.''
जनमानस को प्रभावित करने वाले एक संगठनकर्ता और प्रचारक के रूप में मोदी अब ज्यादा से ज्यादा लोगों को ''सबका साथ, सबका विकास'' के नारे से रिझाना चाहते हैं. और भाजपा में, मुख्य रथयात्री आडवाणी के रोडशो से सेवानिवृत्त होने से इनकार के बावजूद, ऐसा करने में उनसे ज्यादा कोई सक्षम नहीं है.
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने इंडिया टुडे को बताया, ''आखिर, और कौन है?'' सार्वजनिक तौर पर हालांकि पार्टी नेता कह रहे हैं कि अभी प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी चुनना बहुत जल्दबाजी होगी. अरुण जेटली ने 2009 के चुनाव की तैयारी के समय 2014 में प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के नाम को चलाकर योजना पर पानी फेर दिया था.
खुद प्रधानमंत्री पद के लायक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर रहे राज्यसभा में विपक्ष के इस नेता का कहना है कि भाजपा की स्थिति को व्यवस्थित करने पर ध्यान दिया जा रहा है. वे कहते हैं, ''चुनाव में अभी तीन साल हैं.'' पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी भी कहते है कि अभी किसी को 2014 के लिए प्रधानमंत्री पद का दावेदार पेश करने का फैसला नहीं हुआ है. ''हमने नरेंद्रभाई के नाम पर फैसला नहीं किया है. उनका उपवास प्रधानमंत्री बनने के लिए नहीं था. यह गुजरात के बारे में गलतफहमी दूर करने के लिए था.''
वे मानते हैं कि 2002 के दंगों के दाग की वजह से मोदी के नाम को मंजूरी देने में समस्याएं हैं. ''वे इस बारे में खास कुछ नहीं कर सकते.'' लेकिन गडकरी का कहना है कि पार्टी उनके विकास एजेंडे, प्रशासकीय कौशल और मजबूत नेतृत्व की ओर ज्यादा ध्यान दिलाने की कोशिश कर रही है. ''अगर मोदी यह साबित कर सकते हैं कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को निर्णायक अंतर से परास्त कर सकते हैं तो यह उनके लिए थोड़ा आसान हो जाएगा.'' पर वे इसका लाभ नीतीश को मिलने की संभावना से साफ इनकार करते हैं: ''वे प्रमुख साझीदार हो सकते हैं लेकिन वे बाहरी ही हैं.
पार्टी का कोई कार्यकर्ता उनके लिए प्रचार नहीं करेगा.'' तो क्या सहयोगी दल मोदी को मान लेंगे? पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, ''अंततः वोटों के ही मायने होते हैं. हमें ज्यादा वोट मिलेंगे तो सहयोगी दल खुद-ब-खुद आ जाएंगे. भाजपा के लिए 165-170 सीटें जीतना जरूरी है. और जब आप युद्ध में जाते हैं तो अपने सबसे बढ़िया जरनैल को आगे रखते हैं. पार्टी के पास मोदी ही सर्वश्रेष्ठ जरनैल हैं.''
पर इस जरनैल को सबसे पहले भीतरी लड़ाई जीतनी होगी. गुजरात के लौहपुरुष की इच्छा के विरुद्ध आरएसएस प्रचारक संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में भाजपा को मजबूत बनाने के लिए दोबारा शामिल किए जाने के बाद से मोदी शायद गडकरी से बात करना भी पसंद नहीं करते. पार्टी प्रमुख ने सद्भावना मिशन के दौरान मोदी के साथ फोटो खिंचवाने के अवसर से बचने के लिए वजन कम कराने की बैरियाट्रिक सर्जरी करा ली. अहमदाबाद पहुंचीं सुषमा स्वराज जाहिरा तौर पर उस शख्स के साथ असहज दिख रही थीं जिनके बारे में स्वराज की राय है कि 1999 में बेल्लारी में हार के बाद उनके राजनैतिक बियाबान में जाने के वे ही जिम्मेदार हैं.
पार्टी के भीतरी लोगों का मानना है कि मोदी सिर्फ स्वराज की काट के लिए स्मृति ईरानी को राज्यसभा सीट देने के लिए राजी हुए. आडवाणी के अलावा जेटली इकलौते केंद्रीय नेता हैं जिनसे मोदी के अच्छे संबंध हैं, हालांकि प्रधानमंत्री बनने की जेटली की अपनी महत्वाकांक्षा है. जब मोदी मानकर चल रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री से बड़े पद के हकदार हैं, ऐसे में आरएसएस गुजरात में उनके उत्तराधिकारी की सोच रहा है.
राजनैतिक युगचेतना के चलते नई पीढ़ी को मोदी ब्रांड पर संदेह है. भाजपा के एक युवा नेता का कहना है, ''देश का युवा हालांकि भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में ईमानदार प्रशासन की मांग कर रहा है, लेकिन अधिक समावेशी सामाजिक ढांचा भी चाह रहा है. आज के जमाने में मोदी 2002 का दाग नहीं धो सकते. वह बना रहेगा. पार्टी को मोदी से हटकर सोचना होगा.''
इसीलिए मोदी की आतुरता में नीतीश की आशा छिपी है. अगर नीतीश को प्रधामंत्री पद का दावेदार बनाया जाए तो तेदेपा, बीजू जनता दल और अगप जैसी पार्टियां-जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस विरोधी, पर भाजपा के संग रहकर अल्प-संख्यकों का समर्थन गंवाने से डरती हैं-राजग में आना पसंद करेंगी. मुसलमानों के वोट हासिल करने के मामले में अपने रिकॉर्ड के अलावा नीतीश मोदी की ही तरह विकास की राजनीति में भी जीत रहे हैं.
प्रशासक के रूप में उन्होंने कानून-व्यवस्था बहाल करने से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा सेवा और सड़क निर्माण तक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार किया है. नेता के रूप में उन्होंने लक्षित सामाजिक कल्याण योजनाएं आगे बढ़ाई हैं. उनके समर्थकों के मुताबिक, यदि नीतीश बिहार को कारगर राज्य बना सकते हैं तो उनमें राजग के नाम पर भारत को बदलने की क्षमता भी है. पर नीतीश की सबसे बड़ी कमी उनका चुनावी आधार है. उनमें राष्ट्रीय नेता बनने की साख और विशेषता भले ही हो, लेकिन 543 सदस्यीय लोकसभा में मात्र 20 सदस्यों वाला जद-यू बिहार के बाहर कोई राजनैतिक ताकत नहीं है. हालांकि नवीन पटनायक जैसे नेताओं के साथ उनके अच्छे राजनैतिक संबंध हैं, लेकिन कोई क्षेत्रीय क्षत्रप उनके नेतृत्व का समर्थन करने के लिए अभी तक आगे नहीं आया है.
उनके लिए सबसे बड़े बाधक खुद मोदी होंगे. उनकी उम्र में मात्र छह महीने का अंतर होने से-मोदी बड़े हैं और वे पिछले सप्ताह ही 61 साल के हुए हैं-दोनों एक-दूसरे को निष्प्रभावी कर सकते हैं. दोनों के बीच कोई लगाव नहीं है. 10 मई, 2009 को उनके संबंध उस समय अधिक बिगड़ गए जब लुधियाना की एक जनसभा में मोदी ने एकजुटता दिखाने के लिए नीतीश का हाथ पकड़कर जबरन उठा दिया. कई लोगों ने इसे मोदी का इंतकाम माना क्योंकि उससे पहले नीतीश ने बिहार में लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रचार की योजना पर पानी फेर दिया था.
नाम न छापने की शर्त पर जद-यू के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि अगर मोदी को भाजपा की ओर से प्रधामंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया तो नीतीश गठबंधन से बाहर होने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं. नीतीश को लगता है कि 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में जद-यू के 117 विधायकों-और कुछ निर्दलीय समर्थकों-के साथ वे जोखिम उठा सकते हैं. बिहार में भाजपा उनकी सहयोगी दल है. नीतीश अब तक मोदी को बिहार से परे रखने में कामयाब रहे हैं.
नवंबर, 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद से ही नीतीश ने राज्य में मोदी के प्रचार पर रोक लगा दी है. नीतीश खुले मंच पर मोदी के नाम का जिक्र तक नहीं करते, और गुजरात के मुख्यमंत्री को ऐसा सांप्रदायिक नेता मानते हैं जो उनकी समावेशी राजनीति के ब्रांड में स्वीकार्य नहीं हैं. जून, 2010 में मोदी के समर्थकों ने बिहार के अखबारों में विज्ञापन देकर लुधियाना की रैली में गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ उनकी तस्वीर प्रकाशित करवाई थी जिससे नीतीश बहुत नाराज हुए थे. विज्ञापनों में बिहार को गुजरात की बाढ़ सहायता का गुणगान किया गया था.
नीतीश ने तब पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक के लिए जुटे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को रात्रिभोज का निमंत्रण वापस लेने में गुरेज नहीं किया था. उन्होंने बैठक के अंत में भाजपा की जनसभा में न केवल शामिल होने से इनकार कर दिया बल्कि गुजरात सरकार के सहायता की मद में दिए 5 करोड़ रु. भी लौटा दिए थे. नीतीश ने भाजपा के साथ ही गठबंधन को भी हिला दिया था. उन्हें मालूम है कि भाजपा उनके जैसे व्यक्ति को गंवा नहीं सकती.
कांग्रेस उन्हें रिझाने का प्रयास कर ही रही है. वे अब अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए दिल्ली को अगम्य बनाने की उम्मीद कर रहे हैं. इंडिया टुडे के साथ बातचीत में उन्होंने कूटनीतिक तरीका अपनाते हुए कहा, ''भाजपा ने अभी तक प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. तभी हम अपनी राय जता सकते हैं'' (देखें बातचीत).
इससे मोदी खुश नहीं होंगे. 2014 में विपक्ष में देश के सबसे बड़े राजनैतिक पद के लिए समाजवादियों और हिंदुत्ववादियों के बीच संघर्ष होगा. और वह देखने लायक होगा.