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नरेंद्र मोदी का अनशन महज एक तमाशा

नरेंद्र मोदी के पास अनशन की सफलता के लिए जरूरी एक भी चीज नहीं थी. शुरू से आखिर तक उनका अनशन नियंत्रित और एयर कंडीशंड था.

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नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी

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अनशन ही अनशन हुए. कुछ पर लोगों की नजर गई और बाकी पर किसी ने खास ध्यान नहीं दिया. भाजपा के आडवाणी और जेटली जैसे दिग्गज भी सद्भावना मिशन को गुजरात से आगे नहीं बढ़ा पाए. अनशन भाजपा और उसके समर्थकों तक ही सिमट कर रह गया.

हो सकता है कि हम आसानी से उल्लू बन जाते हों, लेकिन फिर भी इतनी अक्ल तो है कि एक राजनैतिक अनशन और तीन दिन के व्रत में फर्क कर सकें.

अक्सर माना जाता है कि भारतीय अनशन को लेकर भावुक होते हैं क्योंकि उसे वह धर्म से जोड़ते हैं, महात्मा गांधी के साधुत्व और सांसारिक राजनीति ने इस मान्यता को बढ़ाया लेकिन आज भी अनशन को कामयाब बनाने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करना जरूरी है.

इतना ही काफी नहीं है कि अनशन किसी बहुत बड़े काम के लिए हो. अगर यह अनशन कुछ ही लोगों तक सिमट कर रह जाए तो इसका कोई औचित्य नहीं है. राजनैतिक अनशन तभी सफल होते हैं जब समाज का बड़ा तबका यह मानता हो कि उनके मूल लोकतांत्रिक अधिकारों की खुले तौर पर अवहेलना हो रही है. जनता को साफ तौर पर यह बात समझ में आनी चाहिए.

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उत्तरी आयरलैंड की जेल में भूख हड़ताल के 66वें दिन जब बॉबी सेंड्स की मौत हुई, देश में आक्रोश की लहर दौड़ गई क्योंकि वह आयरिश राष्ट्रवाद की अभिलाषा का समर्थन करने वालों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. सुफ्रागेट, कैथरीन फ्राई ने प्रतिष्ठित दर्जा हासिल किया क्योंकि महिलाओं के लिए समान अधिकारों की मांग में अनशन करते हुए उन्होंने दम तोड़ दिया.

इसी तरह महात्मा गांधी सफल हुए क्योंकि वे आजादी और नागरिकों के अधिकारों के लिए अनशन करते थे. इन्हीं वजहों से श्रीलंका में 1987 में तिलीपन की भूख हड़ताल को व्यापक समर्थन मिला. इसी तरह ईरान में अकबर गंजी और क्यूबा में पेड्रो लुई बोयटल की कुर्बानी काम आई. 1952 में जब आंध्र प्रदेश को समभाषीय बनाने के लिए पोट्टी श्रीरामलू की अनशन के 82वें दिन मौत हुई, हैदराबाद से चेन्नै तक जनआक्रोश दिखाई दिया.

अगर इन शूरवीरों को आज याद किया जाता है तो वह सिर्फ इसलिए क्योंकि इनके आंदोलन में पारदर्शिता थी. चालबाज सरकारें लोकतांत्रिक अधिकारों का खुल्लमखुल्ला हनन कर भूख हड़ताल करने वालों को हद दर्जे तक वैधता प्रदान कर देती हैं. भूख हड़तालें अक्सर गलत रूप ले लेती हैं, इस सोच के कारण कि चूंकि इसका उद्देश्य अच्छा है, इसे जनसमर्थन जरूर मिलेगा. स्वामी निगमानंद बिना किसी प्रसिद्धि के चल बसे क्योंकि गंगा की सफाई की उनकी ख्वाहिश को लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में पेश नहीं किया जा सका. इसी तरह दर्शन सिंह फेरुमान ने 74 दिन के अनशन के कारण 1969 में अपनी जान गंवाई. उनकी मांग थी कि चंडीगढ़ को सिर्फ  पंजाब की राजधानी बनाया जाए जिसे पूरा नहीं किया जा सका. दुर्भाग्यवश फेरुमान के आंदोलन ने थोड़े-से लोगों को आकर्षित किया, इसे अधिकार का नहीं बल्कि नीतिगत मामला कहा जा सकता था.

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किसी भी ऐसे मुद्दे पर अनशन नाकाम होना तय है जो अस्पष्ट हो और जिसकी व्याख्या कई तरह से की जाए. अनशन करने वाले अगर चाहते हैं कि उनकी अस्वाभाविक और तन्हा मौत न हो तो उन्हें यह बात दिमाग में रखनी चाहिए. फतेह सिंह और तारा सिंह का क्या हश्र हुआ. उनके बार-बार होने वाले अनशन जल्दी ही जनता के लिए मजाक बन गए.

आधे-अधूरे मन से होने वाली भूख हड़तालों से यह धारणा पैदा होती है कि भारतीय अनशनों के मुगालते में आसानी से आ जाते हैं और चालाक राजनीतिक उसका पूरा फायदा उठाते हैं. जैसाकि हम देखते हैं, यह बात पूरी तरह सच नहीं है. अगर एक तरफ  अण्णा हजारे हैं तो दूसरी तरफ कई फर्जी गांधीवादी हैं. अण्णा का अनशन इस नजरिए से सफल रहा कि उन्होंने दिखा दिया कि उनकी लड़ाई देश के नागरिकों के लिए है. भारत के हरेक कोने में भ्रष्टाचार है, यहां तक कि शुतुरमुर्गों से भरी कैबिनेट भी इसे खत्म नहीं कर सकती.

अगर अण्णा हजारे सबसे अहम मुद्दे से इधर-उधर भटक जाते और नीतियों में उलझ जाते तो वे अपने रालेगण सिद्धि में माला जप रहे होते. अगर वे अपनी पहले की स्थिति ''मेरा विधेयक या कुछ भी नहीं'' पर अड़े रहते तो भी उनकी लोकप्रियता धीरे-धीरे कम ही होती. भ्रष्टाचार विरोधी कानून का वास्तविक स्वरूप नीतिगत मामला है और इस पर बहस की गुंजाइश है.

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लेकिन जरूरत इस बात की है कि एक मजबूत कानून हो जिसे जनता अपना कानून कह सके.

नरेंद्र मोदी के पास कामयाब अनशन के लिए इनमें से एक भी चीज नहीं थी. शुरू से आखिर तक उनका अनशन निर्देशित और एयर कंडीशंड मामला था. सबसे अहम कि कौन-से ऐसे हनन हुए लोकतांत्रिक अधिकार थे, जिन्हें वे बहाल करने की कोशिश कर रहे थे. अनशन का ढिंढोरा पीटना, लेकिन उसके मुद्दे को नजरअंदाज करना ऐसा ही है जैसा कि सर्कस खत्म होने के बाद जोकर का खेल. सद्भावना शो खत्म होने के बाद मोदी ने भी ऐसा ही महसूस किया होगा.

दीपंकर गुप्ता राजनैतिक टीकाकार और समाजशास्त्री हैं.

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