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नसीरुद्दीन शाह: अभिनय की दुनिया का 'हीरो हीरालाल'

एक ऐसा एक्टर, जिसे बॉलीवुड में हैंडसम नहीं कहा जाता. एक एक्टर, जिसे रोमांटिक नहीं माना जाता. एक एक्टर जिसके स्टाइल में ग्लैमर नहीं. बड़े-बड़े सितारों से भरी फिल्मी दुनिया में उसके लिए कोई जगह नहीं थी, तो उसने बॉलीवुड के अंदर ही बना ली अपनी एक अलग दुनिया और बन गया अदाकारी की उस दुनिया का हीरो हीरालाल.

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एक ऐसा एक्टर, जिसे बॉलीवुड में हैंडसम नहीं कहा जाता. एक एक्टर, जिसे रोमांटिक नहीं माना जाता. एक एक्टर जिसके स्टाइल में ग्लैमर नहीं. बड़े-बड़े सितारों से भरी फिल्मी दुनिया में उसके लिए कोई जगह नहीं थी, तो उसने बॉलीवुड के अंदर ही बना ली अपनी एक अलग दुनिया और बन गया अदाकारी की उस दुनिया का हीरो हीरालाल.

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ऐसा हीरो, जिसके पास बॉलीवुड के लार्जर देन लाइफ हीरोज़ जैसी कोई भी खासियत नहीं. ना हैंडसम पर्सनैलिटी, ना भारीभरकम आवाज, ना स्टार पावर, बावजूद इसके इसने फिल्मी दुनिया में बना लिया कामयाबी का एक अलग आसमान. क्योंकि आम सी शक्लो सूरत वाले इस नायक के पास वो ताकत थी जो इसे बड़े से बड़े दिग्गज सितारे के सामने भी कमजोर ना पड़ने दे.

अदाकारी की वो ताकत, जिसने इसे हिंदी फिल्मों की दूसरी दुनिया का सबसे बड़ा सितारा बना दिया. एक चेहरा जो कभी सौ मुसीबतें झेलते मिडिल क्लास हिंदुस्तानी का अक्स बन जाता. कभी इसकी सादी सी शख्सियत ऐसे डरावने खलनायक का चेहरा लगा लेती जिसकी मुस्कान से भी जहर टपकता हो. कभी रिश्तों की उलझन में घिरे एक हारे हुए इंसान की मायूसी इस नायक की अपनी मायूसी जैसी लगती तो कभी इसकी आंखें एक गुनहगार के दर्द को इतनी सच्चाई से पेश करतीं कि देखने वाले के दिल में उस के लिए भी हमदर्दी पैदा हो जाए.

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अभिनय का कोई ऐसा रंग नहीं जो इसमें ना बसा हो और अदाकारी की कोई ऐसी बाजीगरी नहीं, जिसका ये उस्ताद ना हो. कभी हंसाता, कभी रुलाता, कभी डराता, कभी बस हैरान कर जाता. एक बेमिसाल अभिनेता नसीरुद्दीन शाह, जिसकी अदाकारी के कमाल ने उसे कमर्शियल सिनेमा में कामयाबी दिलाई, और अभिनय के असली अखाड़े यानी पैरेलेल सिनेमा का सबसे बड़ा सितारा बना दिया.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अदाकारी का एक पैमाना हैं नसीर
नसीरुद्दीन शाह, जिन्हें हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अदाकारी का एक पैमाना कहा जाए तो शायद ही किसी को एतराज हो. नसीर की काबिलियत का सबसे बड़ा सुबूत है, सिनेमा की दोनों धाराओं में उनकी कामयाबी. नसीर का नाम अगर पैरेलल सिनेमा के सबसे बेहतरीन अभिनेताओं की फेहरिस्त में शामिल हुआ तो बॉलीवुड की मेन स्ट्रीम या कमर्शियल फिल्मों में भी उन्होंने बड़ी कामयाबी हासिल की है.

नसीर अपने शानदार हरफनमौला अंदाज से बन गए मेन स्ट्रीम के चहेते सितारे, ऐसा सितारा जिसने हर तरह के किरदार को बेहतरीन अभिनय से जिंदा कर दिया. ये सितार जब भी स्क्रीन पर आया देखने वाले के जेहन पर उस किरदार की यादगार छाप छोड़ गया. उसकी कॉमेडी ने पब्लिक को खूब गुदगुदाया तो एक्शन में भी उसका अलग ही अंदाज नजर आया.

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मेनस्ट्रीम सिनेमा में नसीरुद्दीन शाह के सफर की शुरुआत हुई 1980 में आई फिल्म 'हम पांच' से. फिल्म भले ही कमर्शियल थी, लेकिन इसमें नसीर के अभिनय की गहराई पैरेलेल सिनेमा वाली फिल्मों से कम नहीं थी. गुलामी को अपनी तकदीर मान चुके एक गांव में विद्रोह की आवाज बुलंद करते नौजवान के किरदार में नसीर ने जान फूंक दी. फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती और राज बब्बर भी थे लेकिन नसीर के दमदार अभिनय ने उन्हें सबसे अलग खड़ा कर दिया.

हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं रही और एक कमर्शियल एक्टर के तौर पर सफलता साबित करने के लिए नसीर को टिकट खिड़की पर भी बिकाऊ बनने की जरूरत थी. और उनके लिए ये काम किया 'जाने भी दो यारों' ने. बॉलीवुड की ऑल टाइम बेस्ट कॉमेडी फिल्मों में शुमार की जाने भी दो यारों में रवि वासवानी और नसीर की जोड़ी ने बेजोड़ कॉमिक टाइमिंग दिखाई और फिल्म बेहद कामयाब रही. लेकिन कमर्शियल सिनेमा में नसीर की सबसे बड़ी कामयाबी बनी 'मासूम'. बाप और बेटे के रिश्तों को उकेरती 'मासूम' में नसीर ने कमाल की अदाकारी से ना केवल खूब वाहवाही बटोरी बल्कि फिल्म भी सुपरहिट हुई और नसीर को मिल गया एक स्टार का दर्जा.

नसीर के इस स्टार स्टेटस को और मजबूत किया 1986 में आई सुभाष घई की मल्टीस्टारर मेगाबजट फिल्म 'कर्मा' ने. फिल्म में नसीर के लिए अपनी छाप छोड़ना आसान नहीं था क्योंकि वहां अभिनय सम्राट दिलीप कुमार भी थे. और उस दौर के नए नवेले सितारे जैकी श्रॉफ और अनिल कपूर भी. बावजूद इसके पैरेलेल सिनेमा का ये सुपरस्टार खैरुद्दीन चिश्ती बन कर पब्लिक की सबसे ज्यादा तालियां और सीटियां बटोर ले गया.

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1987 में गुलजार की 'इजाजत' नसीर के लिए कामयाबी का एक और जरिया बन कर आई. एक जज्बाती कहानी, बेहतरीन निर्देशन, शानदार अभिनय और यादगार संगीत. 'इजाजत' ने बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त कामयाबी हासिल की. और बतौर कमर्शियल एक्टर नसीर का रुतबा और बढ़ गया. 'त्रिदेव' जैसी सुपरहिट फिल्म देकर, 90 का दशक आते-आते नसीर ने कमर्शियल फिल्मों में भी अपनी अलग पहचान बना ली थी. बॉलीवुड की मेन स्ट्रीम फिल्मों में नसीर अपनी कामयाबी की कहानी आगे बढ़ाते जा रहे थे तो उनकी अदाकारी के चर्चे सात समंदर पार तक पहुंच गए.

2003 में आई हॉलीवुड फिल्म 'द लीग ऑफ एक्सट्रा ऑर्डिनरी जेंटलमेन' में नसीरुद्दीन ने कैप्टन नीमो का किरदरा निभाया तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी फिल्म 'खुदा के लिए' में भी उन्होंने शानदार काम किया. देश से लेकर परदेस तक, नसीरुद्दीन शाह ने अपनी अदाकारी का लोहा सारी दुनिया में मनवाया है. लेकिन नसीर अपनी काबिलियत को खुशकिस्मती का नाम देते हैं. वो कहते हैं, 'मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि मुझे इतने मौके मिले, लेकिन मैं कमर्शियल फिल्मों से अभी सैटिस्फाइ नहीं हूं.'

2008 में आई 'अ वेडनेसडे' ने नसीर की कमाल की अदाकारी का एक और नजराना पेश किया तो 'इश्किया', 'राजनीति', 'सात खून माफ' और 'डर्टी पिक्चर' जैसी फिल्मों के जरिए नसीरुद्दीन ने बार-बार ये साबित किया कि एक सच्चे कलाकार को उम्र बांध नहीं सकती. हाल ही में रिलीज हुई फिल्म 'मैक्सिमम' में भी नसीर की जोरदार एक्टिंग ने पब्लिक को खूब एंटरटेन किया है. वाकई नसीरुद्दीन शाह जैसे एक्टर्स को ना तो देश की सरहदें बांध सकती हैं, ना उम्र की जंजीरे थाम सकती हैं.

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हर रोल में फिट नसीरुद्दीन शाह
आज के नसीरुद्दीन शाह की बात करें तो शायद ही ऐसा कोई रोल है जो उनपर फिट नहीं बैठे. आखिर वो एक्टर ही ऐसे ही कि हर रोल के मुताबिक खुद को ढाल लेते हैं. लेकिन एक वक्त था जब नसीर को दो रोल करने की दिली ख्वाहिश थी जो उस वक्त उन्हें मिले नहीं. लेकिन बाद में उनके अरमान जरूर पूरे हुए. 'मिर्जा गालिब', दूरदर्शन का वो धारावाहिक जिसने किताबों में बंद मिर्जा गालिब को जिंदा कर दिया. उस सीरियल ने छोटे पर्दे पर गालिब की ऐसी तस्वीर उभारी जो सिनेमाई कम और रियल ज्यादा लगी और ये सब मुमकिन हुआ था उस चेहरे के बूते जिसका नाम है नसीरुद्दीन शाह.

लेकिन आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि गालिब बनने की नसीर की तमन्ना उनके दिल में एक अधूरे ख्वाब की तरह अटकी हुई थी. 1988 में सीरियल बनाने से सालों पहले गुलजार साहब गालिब पर एक फिल्म बनाना चाहते थे और उस फिल्म में गालिब के तौर पर उनकी दिली इच्छा संजीव कुमार को लेने की थी.

नसीर साहब ने इस बारे में बताते हुए कहा, 'मैंने गुलजार भाई को चिठ्ठी लिखी और अपनी फोटोग्राफ्स भेजी, मैंने लिखा कि ये क्या कर रहे हैं, इस फिल्म में आपको मुझे लेना चाहिए.' लेकिन संजीव कुमार को दिल का दौरा पड़ गया था और सेहत उनका साथ नहीं दे रही थी. फिर उसके बाद गुलजार साहब के दिल में उस रोल के लिए अमिताभ के नाम का खयाल आया. लेकिन वहां भी बात नहीं बनी और आखिरकार गालिब पर फिल्म बनाने का प्लान ही ठंडे बस्ते में पड़ गया. शायद उस वक्त गुलजार को भी नहीं मालूम होगा कि इस किरदार पर तो तकदीर ने किसी और का नाम लिख दिया है. कई साल बाद गुलजार साहब ने एक दिन नसीर को फोन लगाया. नसीर ने बताया, 'एक दिन मुझे गुलजार भाई का फोन आया कि सीरियल में काम करोगे. मैंने पूछा कौन सा सीरियल तो उन्होंने बताया गालिब पर है. मैंने बिना कुछ सोचे फौरन हां कह दिया.'

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ये नसीर की पहली ख्वाहिश थी जो देर से ही सही लेकिन पूरी जरूर हूई और उन्होंने गालिब के किरदार को यादगार बना दिया. नसीर साहब की एक और दिली ख्वाहिश थी. ये ख्वाहिश थी गांधी के रोल को करने की. कहते हैं जब रिचर्ड एटिनबरो 'गांधी' फिल्म बन रहे थे तो वो उसके लिए ऑडिशन भी देने पहुंचे थे. लेकिन उन्हें सेलेक्ट नहीं किया गया और रोल बेन किंग्सले को मिला. नसीर की तमन्ना अधूरी ही रह गई. लेकिन वो चाहते थे कि किसी और फिल्म में ही सही लेकिन गांधी का किरदार एक बार उन्हें निभाने का मौका  मिले और वो मौका भी एक दिन आ ही गया.

साल 1982 में 'गांधी' के रिलीज होने के अट्ठारह साल बाद कमल हासन ने 'हे राम' बनाई, जिसने नसीर साहब की दूसरी अधूरी तमन्ना को पूरा कर दिया. इस फिल्म में उन्हें गांधी का किरदार निभाने का मौका मिला. सधी हुई अदाकरी और बेजोड़ अंदाज से उन्होंने ना केवल गांधी के किरदार में जान डाल दी बल्कि एक बार फिर साबित कर दिया कि आखिर उनके टक्कर को कोई दूसरा एक्टर बॉलीवुड में कोई और क्यों नहीं हैं.

नकारात्‍मक भूमिकाओं में भी छोड़ी पहचान
बेजोड़ एक्टिंग और गजब की रेंज से हर तरह के किरदार निभाने वाले नसीर ने अपनी एक खास छाप छोड़ी नेगेटिव रोल्स में. पैरेलल सिनेमा का ये बड़ा हीरो कमर्शियल फिल्मों में एक ख़तरनाक विलेन के तौर पर भी हमेशा याद किया जाता रहेगा.

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हिन्दी सिनेमा में विलेन का ये नया चेहरा था, खूंखार और अजीबोगरीब शक्ल वाला कोई गुंडा नहीं बल्कि सोफेस्टिकेटेड इंसान जिसके दिमाग में सिर्फ जहर ही जहर था. विलेन का ये किरदार जितना संजीदा था उससे भी ज्यादा संजीदगी से उसे निभाया था नसीरुद्दीन शाह ने. वैसे विलेन के तौर पर ये उनकी एक दो फिल्में नहीं था. 'मोहरा' में उन्होंने दिखाया विलेन का वो चेहरा जो किसी के भी दिल में खौफ पैदा कर सकता है. अंधा होने का नाटक करने वाला एक शिकारी. लेकिन ये नसीर की असली पहचान नहीं थी.

नसीर का पहला प्‍यार है पैरेलल सिनेमा
नसीर की असली पहचान पैरेलल सिनेमा था. सिनेमा की वो धारा जिसमें एक स्टार के लिए कम और एक्टर के लिए गुंजाइश ज्यादा होती है. और ये बात किसी से छुपी नहीं कि नसीर एक एक्टर पहले और स्टार बाद में हैं. पैरेलल सिनेमा के इस सबसे बड़े सितारे ने स्मिता पाटील, शबाना आजमी, अमरीश पुरी और ओम पुरी सरीखे माहिर कलाकारों के साथ मिलकर आर्ट फिल्मों को एक नई पहचान दी. 'निशान्त' जैसी सेंसेटिव फिल्म से अभिनय का सफर शुरू करने वाले नसीर ने 'आक्रोश', 'स्पर्श', 'मिर्च मसाला', 'भवनी भवाई', 'अर्धसत्य', 'मंडी' और 'चक्र' सरीखी फिल्मों में अभिनय का नई मिसाल पेश कर दी.

हर फिल्म में एक नया किरदार, और हर किरदार के साथ एक नए नसीर. निगेटिव कैरेक्टर हो, या आम आदमी की भूमिका, खालिस मसाला फिल्में हो या सीरियस पैरेलल सिनेमा, नसीर अदाकारी का ऐसा सोना हैं जो ढल सकता है किसी भी किरदार के सांचे में.

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