scorecardresearch
 

विपक्षी पार्टियों की अवसरवादी राजनीति

वे भाजपा के नेता भी हैं. वे इतने भी अनाड़ी नहीं हो सकते जो यह कहें कि भाजपा ने दागी रकम को कभी हाथ नहीं लगाया. उन्होंने ऐसा किया तो जाहिर है, कोई उन पर यकीन नहीं करेगा.

Advertisement
X

Advertisement

एक अंडे और पुडिंग के बीच आखिर किस तरह का रिश्ता होता है. इस बारे में आपके ज्ञान का इम्तहान बताता है कि पाक कला में सही मायनों में आप कितने प्रवीण हैं. एक रसोइये को यह अच्छी तरह पता होता है कि किसी व्यंजन में कौन-सी चीज कितनी मात्रा में डाली जाए. पुडिंग में जरूरत से ज्‍यादा अंडे डालना न सिर्फ पाक कला का हादसा है बल्कि तब तक का बना-बनाया व्यंजन भी बर्बाद हो सकता है.

अण्णा हजारे अपने मेन्यू में दो चीजों की वजह से खास तौर पर इतने बड़े जनमानस का ध्यान खींचने में कामयाब हुए. उन्होंने चहूं ओर तेजी से पांव पसारते एक अपराध को मुद्दा बनाया. छह दशक पुराने भारतीय लोकतंत्र ने भ्रष्टाचार के तमाम अवतार देखे हैं. इसने कभी व्यापारी और राजनीतिक माफिया के बीच खुशी-खुशी होने वाले आदान-प्रदान के खास किस्म के बांध को अब तोड़ दिया है. अब तो वह न सिर्फ जनमानस की नदी को प्रदूषित कर चुका है बल्कि उसने गांव के कुएं में भी जहर घोल दिया है. अब ऐसी कोई जगह नहीं जहां इसकी जड़ें न पहुंची हों. यही वजह थी कि वर्ग, जाति और मजहब के दायरों से ऊपर उठकर लोगों ने अण्णा की ओर रुख किया.

Advertisement

इस आंदोलन ने पार्टीगत विभाजन को भी पाट दिया क्योंकि अण्णा एक पार्टी को दूसरे से बेहतर बताने वाली पुरानी तरकीब से बिल्कुल दूर रहे. उनके अनशन स्थल पर विपक्ष की रंगत सिर्फ इसलिए ज्‍यादा रही क्योंकि कोई सत्ताधारी पार्टी अपने ही खिलाफ विरोध प्रदर्शन नहीं कर सकती. सरकार को किसी भी आंदोलन की मार झेलनी पड़ती है क्योंकि भ्रष्टाचार का ताल्लुक ही सत्ता से होता है. सत्ता से हटने के बाद भ्रष्ट होना मुश्किल जरूर है पर नामुमकिन कतई नहीं. युवाओं ने विरोध के प्रतीक के रूप में जो तिरंगा पहना वह राष्ट्रीय ध्वज की खादी थी न कि कांग्रेस का कोई मानक. इसी तरह से हजारे अगर बंगलुरू के कबन पार्क में अनशन कर रहे होते तो आपको वहां हवा में इतने भगवा झंडे लहराते न दिखते.

यही वह विरोधाभास है, जिसकी वजह से भ्रष्टाचार के खिलाफ लालकृष्ण आडवाणी की प्रस्तावित रथयात्रा की हवा निकल जाने का अंदेशा है. यह ऐसी यात्रा होगी, जिसका कोई साफ मुकाम नहीं है. व्यक्तिगत रूप से आडवाणी इस बात के लिए जायज तौर पर फख्र कर सकते हैं कि चुनाव के दौरान उन पर एक व्यवसायी से रिश्वत लेने के नरसिंह राव सरकार के आरोप लगाने पर उन्होंने संसद से इस्तीफा दे दिया और अदालत से बरी होने पर ही वे लोकसभा में वापस आए.

Advertisement

पर 2011 की यह यात्रा वे अपनी निजी प्रतिष्ठा को और पुख्ता करने के लिए नहीं कर रहे हैं. वे भाजपा के नेता भी हैं. वे इतने भी अनाड़ी नहीं हो सकते जो यह कहें कि भाजपा ने दागी रकम को कभी हाथ नहीं लगाया. उन्होंने ऐसा किया तो जाहिर है, कोई उन पर यकीन नहीं करेगा.

सियासी नजरिए से देखें तो भाजपा को अण्णा के आंदोलन का खूब फायदा हुआ है. पर यह तो यूं ही मिल जाने वाला फायदा है. जैसे ही उसने खुद को ईमानदारी का अवतार बताने की कोशिश की, वह मुश्किल में फंस जाएगी. जनता पार्टी में शामिल दलों ने ठीक इसी तरह 1974 और 1975 के जयप्रकाश नारायण के आंदोलन का 1977 में फायदा उठाया था. लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें भयंकर गलतियां करने का मौका ही नहीं मिलने दिया और इन पार्टियों के नेताओं को सलाखों के पीछे डालकर उन्हें अस्थायी शहादत और मुहैया कर दी. विपह्नी पार्टियों पर अब 2011 में उस तरह की मेहरबानी कोई नहीं करने वाला.

उधर उत्तर प्रदेश में तो जैसे यात्राओं की महामारी का खतरा आ खड़ा हुआ है, जहां सियासत एक टुअर गाइड बन जाने के कगार पर जा पहुंची है. जाहिर है, चुनावी जमापूंजी पैदा करने के लिए ये सब एक तरह के रोड शो हैं. बड़ा वायवीय-सा चरित्र है इनका. मुद्दों के प्रति हजारे की गंभीरता से मतदाता अगर सजग हुआ तो लाव-लश्कर वाली कोई शोभायात्रा उसे फिर से उदासीन बना सकती है.

Advertisement

नरेंद्र मोदी को अपनी तबीयत नरम करने का एक अनूठा कारण मिल गया है. वे तीन दिन के उपवास पर बैठ रहे हैं. उनका कहना है कि इससे गुजरात मजबूत होगा. दिल्ली में विराजित केंद्र सरकार के अलावा अन्य ने भी पड़ताल करने पर पाया है कि मोदी जिस दशक में बगैर कोई उपवास रखे दिन में तीन-तीन वक्त खाते थे तब गुजरात कहीं ज्‍यादा हृष्ट-पुष्ट हुआ करता था.

अब अगर वे थोड़े हल्के होना चाहते हैं तो इसका उद्देश्य निजी है, क्षेत्रीय नहीं. एक एहतियातः अहमदाबाद से दिल्ली का रास्ता एक-एक कदम चलकर तय करने में ही बुद्धिमानी है. जब आप पोलवाल्ट पर उछाल भरते हैं तो आपको बिल्कुल पता नहीं होता कि आप गिरेंगे कहां.

क्या यह मुमकिन नहीं कि कांग्रेस के साथ खेल खत्म होने की बात से आश्वस्त होकर भाजपा नेता आपस में ही एक-दूसरे से निबटने में जुट गए हैं? अभी यह कहना नितांत जल्दबाजी होगी. यह शोशेबाजी, ढोल-ढमाका तब तक चलता रहेगा, जब तक कि चुनाव आयुक्त नाम की वह स्थूलकाय महादेवी अपना भोंपू न बजा दे. राजनीति में गलतियां करने के लिए हमेशा वक्त होता है. और वक्त कभी भी निरपेक्ष नहीं होता. इसका झुकाव अमूमन सत्ता प्रतिष्ठान की ओर होता है.

सत्ता का अधिग्रहण भी एक प्रक्रिया है. भाजपा को इस समय का उपयोग पुराने, मौजूदा और संभावित साथियों के साथ गठजोड़ मजबूत करने में करना चाहिए. सरकार वह अकेले तो बना नहीं सकती. उसे बिहार शैली का, रिश्तों का एक व्यापक नेटवर्क बनाना होगा, जिसकी प्रेरक शक्ति सुशासन का एक न्यूनतम कार्यक्रम हो. यह टिकाऊ होता है क्योंकि इसमें कोरे भावुकतावाद की कोई जगह नहीं होती. लोकतंत्र में असंभावित आशावाद को बढ़ावा देने के लिए जोड़तोड़ की बहुत गुंजाइश नहीं होती.

Advertisement

नैतिक शास्त्र का पाठ नंबर एकः अंडा आपने पुडिंग से अगर निकाला नहीं तो यह आपके चेहरे पर आकर पड़ने वाला है.

Advertisement
Advertisement