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क्‍या रंग लाएगी मनमोहन-जरदारी की मुलाकात?

सबके ज़ेहन में यही सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहकर कि वो सुविधाजनक वक़्त (माकूल समय) पर पाकिस्तान जायेंगे, पाकिस्तान जाने की अपने लक्ष्मण रेखा को लांघ तो नहीं दिया है?

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मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी
मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी

सबके ज़ेहन पर यही सवाल की क्या प्रधानमंत्री ने यह कहकर के वो सुविधाजनक वक़्त (माकूल समय) में पाकिस्तान जायेंगे. पाकिस्तान जाने की अपनी लक्ष्मण रेखा को लांघ तो नहीं दिया है?

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यह विवाद पैदा होना लाजमी है क्योंकि सीओल में हुए परमाणु सुरक्षा सम्मलेन में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी के साथ हुई मुलाक़ात में उन्होंने कहा था के वो पाकिस्तान तब तक नहीं जायेंगे जब तक कुछ ठोस हाथ में नहीं आएगा. जिसका अर्थ यह निकाला जा रहा था के जब तक पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम लगाने की ईमानदार कोशिश नहीं करता या जब तक वो 26/11 के गुनाहगारों के खिलाफ ठोस कदम नहीं उठाता तब तक पाकिस्तान जाने का कोई सवाल ही नहीं है.

अब प्रधानमंत्री के बयान के समर्थक इस बात की ओर इशारा कर सकता हैं के बुनियादी तौर पर सीओल और दिल्ली में दिए गए उनके बयान में कोई फर्क नहीं है....बस शब्दों का हेरफेर है. मगर सच तो यह है कि कूटनीति शब्दों के इसी हेर फेर के इर्द गिर्द घूमती रहती है! और शब्दों की बारीकियां अक्सर राष्ट्रों की किस्मत का फैसला करती हैं.

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प्रधानमंत्री पर अक्सर यह आरोप भी लगता है के उन्होंने अक्सर पाकिस्तान के साथ हो रही बातचीत पर तय किये गए पैमानों को बदला है...जैसा के अंग्रेज़ी में कहा भी जाता है : changing the goalposts! यानि के अपने लक्ष्य को बार बार बदलना! पहले यह कहा गया था के जब तक 26/11 को लेकर पाकिस्तान कार्रवाई के रूप में कोई सुबूत नहीं देता, तब तक बातचीत का सवाल ही नहीं पैदा होता! फिर अचानक..हर स्तर पर बात शुरू हो जाती है!

चाहे वो विदेश मंत्री के स्तर पर हो या गृह सचिव या फिर विदेश सचिव! अब तो व्यापार संबंधों को सामान्य करने की बात की जा रही है. जो पाकिस्तान के लिए किसी " bail out package" से कम नहीं.

जबकि 26/11 पर पेश किये गए सुबूत को पाकिस्तान ने, अगर साफ़ शब्दों में कहा जाए तो नकार ही दिया है, यह कह कर कि यह पाकिस्तानी अदालतों में मान्य नहीं है. तो फिर यह जोश किसलिए...यह बे सिरपैर की उम्मीद किसलिए?

क्या मनमोहन सिंह भारत पाकिस्तान रिश्तों पर ऐसी इबारत लिखने की कोशिश कर रहे हैं...जो उन्हें बाकी तमाम प्रधानमंत्रियों से अलग ला खड़ा करेगा? या फिर पाकिस्तान आखिरकार उन्हें मायूस ही करेगा?

क्योंकि सच तो यह है के पाकिस्तान में हर ताले की चाबी तो रावलपिंडी के GHQ मुख्यालय में मिलती है...वो जगह जो पाकिस्तान सेना का मुख्यालय है. या फिर ज़रदारी को भरोसा है के वो सेना के विरोध के बावजूद भारत पाक संबंधों को ऐसे मुकाम पर ला सकते हैं जो पहले हासिल नहीं किया गया?

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जानकारों का मानना है कि जो सेना हाफिज़ सईद जैसी शख्सियतों को एक सामरिक नगीना समझती हों, उसके रुख को बदलना तो दूर विरोध भी नहीं किया जा सकता. ज़रदारी ऐसा सोच भी नहीं सकते.

और ज़रदारी तो वैसे भी अजमेर, भारत पाक संबंधों की सलामती के लिए दुआएं मांगने गए नहीं हैं.....वोह तो अपनी निजी सलामती के लिए वहां सजदा कर रहे हैं. ऐसे में वो भारत पाक संबंधों को लेकर कितने उत्साहित हैं, कहना मुश्किल है.

वो सेना दोनों देशों की संबंधों की बेहतरी के लिए कितनी ज़मीन हासिल कर पायेंगे, यह भी बयान करना आसान नहीं. हमें उम्मीद है के वो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उत्साह से इत्तफाक रखते हैं...वो उत्साह जो मनमोहन दिल में संजोये हैं.

क्योंकि कहीं ऐसा न हो जाए के न खुदा ही मिले न विसाले सनम! न संबंध ही बेहतर हुए, और upa की राजनितिक ज़मीन और सिकुड़ जाए.

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