ऐसे में जब गर्मी की प्रचंडता कठोर से कठोर प्राणियों का हौसला पस्त कर रही है, देश की पहचान एवं गरिमा का प्रतीक मोर भी इस कुदरती मार से बच नहीं पा रहे हैं.
महाराष्ट्र के बीड में स्थित नैगांव में देश के एक अग्रणी राष्ट्रीय मोर अभयारण्य में इन परिंदों को भूख-प्यास एवं भीषण गर्मी से जूझना पड़ रहा है. शिकारियों एवं परभक्षियों के निशाने पर रहे मोर फिलहाल कहीं ज्यादा कुदरत की मार झेल रहे हैं. मुंबई से करीब 400 मराठवाड़ा क्षेत्र के इस इलाके में भीषण गर्मी के कारण मोरों के लिए पानी एवं आहार का जानलेवा संकट पैदा हो गया है.
स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ताओं के मुताबिक इस गर्मी में अभी तक भूख एवं जल संकट के कारण करीब 13 वयस्क मोरों की मौत हो चुकी है. उनके मुताबिक नैगांव पीकॉक सैंक्चुअरी (एनपीएस) में मोरों को इन हालात से बचाने की वैकल्पिक व्यवस्था काफी लचर है.
मयूर मित्र मंडल (एमएमएम) नामक मोर संरक्षणवादी संगठन के अध्यक्ष शाहिद सईद ने कहा, 'कुछ साल पहले तक यहां करीब 10,000 मोर हुआ करते थे और उनके लिए यहां पानी एवं आहार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे. अब उनकी संख्या में चिंताजनक गिरावट हुई है.' यह संगठन यहां मोर संरक्षण कार्य में लगा हुआ है. इसके स्वयंसेवक गर्मी और अंदर की दुर्गमता की परवाह किए बगैर मयूरों को पानी पिलाने के लिए रोज़ ही निकल पड़ते हैं.
वैसे, सईद के इस दावे का पूर्व रेंज फॉरेस्ट अधिकारी एस़ ए़ बाडे खंडन करते हैं कि यहां कभी 10,000 मोर हुआ करते थे और बड़ी संख्या में मोरों की मौत हो रही है. वे कहते हैं, 'सिर्फ एक मोर मृत पाया गया है. यहां 10,000 मोर होने का दावा सही नहीं है. अभी करीब 3,500 मोर यहां हैं और मुझे लगता है कि कई मोर यहां पानी एवं आहार की कमी से परेशान होकर दूसरे हरे-भरे इलाकों की ओर पलायन कर गए हैं.'
सईद की शिकायत है कि 1994 में नेशनल पार्क का दर्जा प्राप्त करने के बाद भी नैगांव पीकॉक सैंक्चुअरी अपेक्षा की मार झेलता रहा है. वह कहते हैं, 'यहां अपेक्षा का आलम है.' यूं तो वन विभाग ने यहां पानी जमा करने के लिए जगह-जगह 110 छोटे-छोटे पथरीले जलरोधी घेरे बनवाये थे, पर वे सभी दिसंबर में ही सूख गए. सईद ने बताया बैंक ऑफ इंडिया एवं रोटरी क्लब ने मोरों की दयनीय स्थिति से द्रवित होकर 10 ओपन वाटर टैंक मुहैया कराए हैं, जिन्हें यहां मुख्य स्थानों पर लगाया गया है.
पार्क के अंदर पक्की सड़कें नहीं होने के कारण आपात स्थिति में कोई कदम उठाना मुश्किल हो जाता है. अधिकारियों को स्थानीय ग्रामीणों की मदद पर निर्भर रहना पड़ता है. किसी भी बीमार मोर को अस्पताल पहुंचाना कठिन है, क्योंकि सबसे नजदीकी वेटेरिनरी क्लीनिक यहां से 20 किलोमीटर दूर पटोदा शहर में है. सईद का कहना है कि यहां मोरों के लिए पानी एवं पर्याप्त आहार की व्यवस्था बमुश्किल 10,000 रुपये प्रति माह के खर्च पर की जा सकती है, पर यह राशि जुटाना भी कठिन है.
संगठन के एक और अधिकारी प्रताप भोंसले का दावा है कि बीड के जिलाधिकारी से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक का दरवाजा खटखटाया जा चुका है, पर मोरों की पीड़ा से हर कोई बेपरवाह है. एक किसान तुकाराम मधुकर कहते हैं, 'हमने अपने खेत मोरों के खुले छोड़ रखे हैं. इससे ज्यादा एक गरीब किसान क्या कर सकता है? हमें उन्हें तड़पता देख पीड़ा होती है, पर हम क्या कर सकते हैं?' जाहिर है, हमारी लोकोक्तियों, किंवदंतियों, कहानियों और कल्पना लोक में विचरने वाले इन भव्य और मनोहारी पक्षियों को उस दिन का इंतजार है जब गर्मी उनके लिए मौत का मौसम बनना बंद कर देगी.