भारत और भारतीयता के ताने-बाने को पूरी तत्परता और तार्किकता से समझने में सक्षम राजनीति के शब्दकोष, सत्ता के गलियारों में मान्य संकटमोचक, प्रशासक और दलों की सीमा के पार अपनी स्वीकार्यता के संवाहक प्रणब कुमार मुखर्जी के देश का राष्ट्रपति चुने जाने को सुखद संकेत ही माना जाएगा.
दलीय सीमाओं से परे उनकी स्वीकार्यता से ही विपक्षी गठबंधन राजग में राग द्वेष खडे हो गये और जद-यू शिवसेना जैसे धुर विरोधी उनके समर्थन में उनके सिरहाने खड़े हैं. और तो और अरुण जेटली जैसे प्रखर विरोधी भी जब उनकी तुलना क्रिकेट के सर्वकालीन श्रेष्ठ सर डॉन ब्रेडमैन से करने लगे तो यह संतोष हो जाता है कि देश में शीर्ष संवैधानिक पद प्रथम नागरिक और अपना सर्वोच्च सेनापति वाकई सक्षम और सुधि हाथों में है.
चुनाव में पूर्णो अगितोक संगमा का समर्थन करने के बावजूद भाजपा नेता जेटली ने हाल ही में एक इंटरव्यू में वित्त मंत्री के रूप में प्रणव की तुलना ब्रेडमैन से करते हुए कहा था, ‘डॉन ब्रेडमैन की तरह उनकी (प्रणब की) पारी शून्य पर समाप्त हुई (ब्रैडमैन अपनी आखिरी टेस्ट क्रिकेट पारी में शून्य पर आउट हुए थे) लेकिन ब्रैडमैन का आकलन उनकी आखिरी पारी से नहीं किया जाना चाहिए.’
भले ही प्रणब दा को महज विरोध के लिए विरोध के नाम पर संगमा से मुकाबला करना पडा हो पर उनका अनुभव उनको जीत के लिए बहुत पहले आश्वस्त कर चुका था. तभी तो उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें राष्ट्रपति भवन का लॉन काफी पसंद है. ‘मुझे सुबह टहलने की आदत है. मैं अपने लॉन में 30.40 चक्कर लगाता हूं. राष्ट्रपति भवन का लॉन काफी बड़ा है. किसी को इतने चक्कर लगाने की जरूरत नहीं होगी.’
अपनी उम्र को अपनी सक्रियता में कभी बाधा नहीं बनने देने वाले 77 वर्षीय मुखर्जी शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन होने वाले 13 वें व्यक्ति और 14 वें राष्ट्रपति होंगे. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद दो बार राष्ट्रपति रह चुके हैं. वह पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए. एक बार राज्यसभा की ओर गए तो कई वषो’ तक जनता के बीच जाकर चुनाव नहीं लड़ा. सियासी जिंदगी में करीब 35 साल बाद उन्होंने लोकसभा का रुख किया. 2004 में वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए. 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे.
बीते 26 जून को वित्त मंत्री पद से प्रणव के इस्तीफा देने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर सरकार में उनके योगदान के लिए आभार जताया और कहा कि उनकी कमी सरकार में हमेशा महसूस की जाएगी. सरकार के मंत्रियों ने भी उनकी कमी खलने की बात कही.
हाल ही में कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा था, ‘प्रणव जी पार्टी और सरकार में एक स्तंभ रहे हैं. सरकार में उनकी कमी हमेशा महसूस की जाएगी.’ प्रणव प्रधानमंत्री बनने से कई बार चूके, लेकिन इस महत्वपूर्ण पद पर न होते हुए भी संकट के समय सभी लोग उनकी ओर ही देखते थे.
अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी थी. बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए.
देश में आपातकाल के समय इंदिरा गांधी सरकार में वह राजस्व राज्य मंत्री थे और बाद में इंदिरा की सरकार में ही वित्त मंत्री बनाए गए.
अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड रखने वाले प्रणव बाबू ने सरकार में रहते हुए कमरतोड मेहनत की और आज भी वह देर रात तक अपने काम में व्यस्त रहते हैं. सुबह टहलने के बाद फिर वापस चुस्त दुरूत होकर अपने काम में तन्मयता से लग जाते हैं. राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणव अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन होने जा रहे हैं. जाहिर है सरकार और राजनीति में उनके 45 साल के अनुभव का कोई सानी नहीं है. भले ही वह एक स्थापित वकील न रहे हों लेकिन कई मौकों पर संविधान, अर्थव्यवस्था और विदेशी संबंधों की अपनी समझ और पकड का लोहा उन्होंने मनवाया.
प्रणव देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन होने वाले तीसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने संसद सदस्य रहते राष्ट्रपति चुनाव लड़ा.
राष्ट्रपति पद के लिए 19 जुलाई को हुए चुनाव में जीत के प्रति भरोसा जताते हुए प्रणव ने कहा था, ‘अभी तक केवल दो व्यक्ति ऐसे रहे हैं जो संसद के सदस्य रहते हुए राष्ट्रपति बने.’ डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैल सिंह के बाद वह तीसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने राष्ट्रपति के प्रत्याशी रहते हुए वोट डाला. प्रणव सियासत की हर करवट को बखूबी समझते हैं. यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा संप्रग सरकार पर मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए. कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा प्रणव बाबू ही हैं.
प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 1991 में उन्हें विदेश मंत्री बनाने के साथ ही योजना आयोग का उपाध्यक्ष का पद दिया. मनमोहन की सरकार में वह रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री के पदों पर रहे. प्रणव के पिता किंकर मुखर्जी भी कांग्रेस के नेता हुआ करते थे. कुछ वक्त के लिए प्रणव ने वकालत भी की और इसके साथ ही पत्रकारिता एवं शिक्षा क्षेत्र में भी कुछ वक्त बिताया. इसके बाद उनका सियासी सफर शुरू हुआ.
राष्ट्रपति भवन देश का सबसे अहम पता है जो भारत के प्रथम नागरिक के नाम के साथ जुड़ा होता है. देश के जिस आलीशान भवन में रहने का गौरव प्रथम नागरिक को मिलता है उसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चार मंजिला इस भवन में 340 कमरे हैं और सभी कमरों का उपयोग किसी न किसी रूप में किया जा रहा है.
लगभग दो लाख वर्ग फुट में बना राष्ट्रपति भवन आजादी से पहले ब्रिटिश वायसराय का सरकारी आवास हुआ करता था. करीब 70 करोड़ ईटों और 30 लाख घन फुट पत्थर से बने इस भवन के निर्माण में तब एक करोड़ चालीस लाख रुपये खर्च हुए थे.
करीब 30 वषरे से प्रणव दा के साथ रहने वाले और उनकी छोटी छोटी सहूलियतों का ध्यान रखने वाले हीरा लाल ने कहा कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद भी मुखर्जी की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया है और वह अब भी रात को 12 से एक बजे के बीच ही सोते हैं. इस बीच लोगों से मिलने और पुस्तक पढ़ने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है.