हॉलीवुड के महान दार्शनिक, दिवंगत बॉब होप ने कभी कूटनीति को परिभाषित करते हुए कहा था यह अपने हाथ हिलाए बिना जेन रसेल का वर्णन करने की कला है. बुद्धिमत्ता की ऐसी बात को कोई तब तक ठीक से नहीं समझ सकता, जब तक उसे जेन रसेल के अंगों के परिमाप की गहरी समझ न हो.
बॉब होप को उसकी बहुत समझ थी. जेन ऐसी अभिनेत्री थीं जो, अगर शालीन शब्दों में कहा जाए तो, किसी ब्लाउज में जान डालकर फर्श पर पड़े अनावश्यक सामान बटोरने को भी एक शानदार करतब में बदल सकती थीं; कैमरे और दोनों स्तनों के बीच के स्थल में एक अद्भुत कामकाजी संबंध था. बॉब होप जेन रसेल का परिचय 'टू ऐंड ओनली' कहकर करवाया करते थे.
भारत-पाकिस्तान कूटनीति की कला इससे ऐन विपरीत अंदाज में है, जहां हाथ ही हाथ हैं, कोई जेन रसेल नहीं.
भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से बात नहीं करते; वे एक-दूसरे के बारे में बात करते हैं. विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पाकिस्तानी समकक्ष सलमान बशीर जब अगले कुछ दिनों में फिर मिलेंगे, तो वे इसकी पुष्टि कर देंगे. भारत-पाकिस्तान वार्ता के बारे में अति गोपनीय बात यह है कि बात करने के लिए कोई बात ही नहीं बची है.{mospagebreak}
दोनों देश बुनियादी हकीकतों के प्रति पूरी तरह सचेत हैं: यह कि परमाणु शक्तियों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए युद्ध कोई विकल्प नहीं है. उन्हें यह भी पता है कि जमा हुआ गतिरोध विवाद के गहरे बिंदुओं को पैदा करता है, जो तेजी से बेकाबू हो सकते हैं, और बढ़ता तनाव छलांग मार कर तनी हुई मिसाइलों की ओर बढ़ सकता है.
उन्हें एहसास है, भले ही वे इसे खुलेआम स्वीकार न करें, कि कश्मीर के नक्शे का भूगोल बदला नहीं जा सकता और सारी लच्छेदार बातें घरेलू भावनाओं के लिए गढ़ी गई हैं, अंतरराष्ट्रीय सपाटबयानी के लिए नहीं.
यह बात भारत से ज्यादा पाकिस्तान पर लागू होती है, क्योंकि भारत यथास्थिति से संतुष्ट है और इसे किसी समझौते का आधार बनाना मान लेगा. पाकिस्तान, अधिकृत तौर पर, ऐसा नहीं कर सकता, पर बहुप्रचारित 'मुशर्रफ फार्मूले' में, वास्तव में, इस बात को मान लिया गया था कि एकमात्र समाधान संभवतः किसी समझौते में एक या दो जुमले जोड़कर दावों को खत्म करना और जमीनी हकीकत को संस्थागत स्वरूप देना है.
घोषित और अघोषित युद्धों के छह दशक सीमा को छह इंच भी इधर-उधर नहीं कर सके हैं, और ऐसा अगले छह दशक में भी नहीं हो सकेगा. भारत, पाकिस्तान के बीच कोई समझौता आज तक इस प्रत्यक्ष कारण से नहीं हुआ कि किसी को समझाने का यह अपर्याप्त तरीका है कि शांति बहुवांछित समृद्धि का सबसे आसान तरीका है.{mospagebreak}
लिहाजा नेक विचार यह होगा कि राव और बशीर द्विपक्षीय मसलों पर समय खराब करना बंद करें. वे इस मौके का प्रयोग सामाजिक मेलजोल के लिए कर सकते हैं, और रोचक मेनू के लिए अच्छा-खासा सरकारी बजट भी होता है.
वह संकट, जिसने परवेज मुशर्रफ और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच हुए आगरा शिखर सम्मेलन को बेहद क्षतिग्रस्त कर दिया था, उस नाश्ते से शुरू हुआ था, जिसमें उस फ्रांसीसी नाम के अंडे परोसे गए थे जिसका उच्चारण मैं नहीं कर सकता. लेकिन चूंकि विदेश सचिवों की बैठक खाने के शौकीनों के नाश्ते से ज्यादा महत्वपूर्ण है, यहां बिन मांगे एक सलाह प्रस्तुत है.
अगर वे एक जुड़े हुए लक्ष्य के एजेंडा पर सहमत हों,तो वे लोग अपने राजनीतिक आकाओं के लिए कुछ उपयोगी, वास्तविक और व्यावहारिक काम कर सकते हैं: वह यह कि दक्षेस को गरीबी विरोधी प्रणाली में और विचारों की एक ऐसी धुरी में कैसे बदला जाए जो विचार वस्तुओं, सेवाओं और वित्त के अगर उन्मुक्त नहीं, तो लोचपूर्ण व्यापार के जरिए गतिशील आर्थिक संबंधों को स्थापित करते हों.{mospagebreak}
भारत और पाकिस्तान ने दक्षेस देशों को उस दुष्चक्र में फंसा लिया है, जिसे उन्होंने अपने एकपक्षीय संघर्षों के जरिए पैदा किया है. जैसी कि एक सूफी कहावत है, जब आप किसी दुष्चक्र में कैद हो जाएं, तो एक बड़ा चक्र बना लें. दक्षेस वह बड़ा चक्र है, जिसके जरिए अगले दशक के इस विचार को प्राथमिकता बनाया जा सकता है कि गरीबी रेखा से नीचे रह रहे आधे अरब से ज्यादा लोगों का आर्थिक उत्थान किया जाए.
एक अन्य विचार भी है, जो अंडे और टोस्ट के साथ विचार करने लायक है. परमाणु अर्द्धचंद्र पूरे एशिया पर पसरा हुआ है. इज्राएल, ईरान, पाकिस्तान, भारत, चीन, जापान और रूस परमाणु ताकतें हैं. जापान के पास परमाणु हथियार नहीं हैं, लेकिन जैसा कि अब तक नजर आ जाना चाहिए, अकेले बम ही खतरा नहीं होते हैं. रेडिएशन किसी सीमा का पालन नहीं करती है.
निश्चित तौर पर परमाणु सुरक्षा पर शिखर वार्ता का समय आ गया है, और ऐसा प्रस्ताव भारत-पाकिस्तान सहयोग के माध्यम से क्यों न सामने आए? यदि ये दो प्रतिद्वंद्वी साझा लक्ष्य बना लें तो इससे वे अपने दायरे से कहीं बड़े क्षेत्र में एक नया वातावरण बनाने की परिस्थितियों के निर्माण में मददगार होंगे.
{mospagebreak}मौजूदा विवाद, चाहे कितने भी बेतुके हों, कितने भी पुराने या नए हों, उस सहयोग में बाधा बनने जरूरी नहीं हैं जहां वह संभव है. गरीबी उन्मूलन या पर्यावरण संरक्षण के लिए भारत और पाकिस्तान को कश्मीर जैसे पुराने घाव पर, या अफगानिस्तान जैसे ताजा विवाद पर सहमत होना जरूरी नहीं है. पर अफसोस! ये सारी बातें दिवास्वप्न हैं. दिल्ली और इस्लामाबाद के प्रतिष्ठान किसी नए विचार का संकेत मिलते ही अपने सहज खोल में सिमट जाते हैं. खुला दिमाग जोखिम से भरपूर होता है, पर सोच-विचार और तैयारी से जोखिम को न्यूनतम बनाया जा सकता है.
बॉब होप अगर इस उपमहाद्वीप का परिचय विश्व से कराते, तो संभवतः वे कहते कि भारत और पाकिस्तान 'टू ऐंड द ओनली' (दोनों खास किस्म के) हैं.