महत्वपूर्ण फैसले लेने के पहले जमीनी हकीकतों की कोई परवाह न करने वाली सोनिया गांधी के तौर-तरीके भी अजीब ही हैं. यह बात एक बार फिर उस समय साबित हुई, जब उन्होंने 2012 में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए रीता बहुगुणा-जोशी को दोबारा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर मनोनीत कर दिया.
ऐसा उन्होंने इस तथ्य के बावजूद किया कि संगठन में प्रदेश और केंद्र स्तर पर बहुगुणा-जोशी का तगड़ा विरोध है. और फिर, खुद बहुगुणा-जोशी ने अयोध्या में विवादास्पद स्थल पर मालिकाना दावे को लेकर हाइकोर्ट के फैसले का स्वागत करके कांग्रेस के निकट आ रहे मुसलमानों के एक बड़े तबके को असमंजस में डाल दिया था.
दरअसल, हाइकोर्ट के फैसले पर बहुगुणा-जोशी की सतर्क प्रतिक्रिया को इस तरह समझ लिया गया था कि बाबरी मस्जिद के मामले में कोई ठोस रवैया अपनाने के बजाए कांग्रेस एक बार फिर संदेहास्पद राजनीति कर रही है. अपनी उकत टिप्पणी में उन्होंने कहा था, ''राजनेताओं को इससे (विवाद से) दूर रहना चाहिए. दोनों पक्षों को ही कोई रास्ता निकालने दीजिए. हम अपना ध्यान आम आदमी पर बनाए रखेंगे.''
लेकिन न तो प्रदेश पार्टी प्रमुख के तौर पर उनके दोबारा मनोनयन का विरोध और न ही लखनऊ तथा दिल्ली में पार्टी के रुख को लेकर मुसलमानों में नाराजगी सोनिया गांधी को उत्तर प्रदेश को दोबारा फतह करने में मददगार होने वाली बहुगुणा-जोशी की क्षमता पर विश्वास जताने से रोक सकी. सर्वविदित है कि पार्टी में उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह भी शुरुआत में वहां नेतृत्व परिवर्तन चाहते थे. चुनाव के लिए तैयार हो रहा यह विशाल प्रदेश नेहरू-गांधी परिवार का गृह राज्य भी है.
सोनिया गांधी को 62 वर्ष की इस दुबली-पतली महिला पर भले ही भरोसा हो और वे उनसे अपेक्षा कर रही हों कि राज्य की महारथी मुख्यमंत्री मायावती से दो-दो हाथ करने के लिए उनकी रीढ़ इस्पात जैसी मजबूत होगी, लेकिन स्थिति सही दिशा में विकसित नहीं हो रही है.{mospagebreak}
बहुगुणा-जोशी को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद की बागडोर फिर से सौंपने के एक सप्ताह के भीतर ही राहुल गांधी ने अचानक अपना मिशन 2012 यह कहकर त्याग दिया कि यह उनका विचार था ही नहीं बल्कि मीडिया के दिमाग की उपज है. 12 नवंबर को लखनऊ में युवक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की बंद कमरे में हुई बैठक को संबोधित करते हुए राहुल ने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा कि उनका कोई मिशन 2012 नहीं है. ''यह मिशन 2012, 2017 या 2020 भी हो सकता है. हमारा लक्ष्य पार्टी को अपने बूते बहुमत में पहुंचाना है.'
इस तथ्य के बावजूद कि बहुगुणा-जोशी राहुल के भी समर्थन का दावा करती हैं, लखनऊ में पार्टी के नेता मिशन 2012 को एक अनिश्चितकालीन मिशन में बदलने के अपने नेता के फैसले की अलग तरह से व्याख्या करते हैं. उनके मुताबिक, राहुल को बमुश्किल 18 महीने बाद होने वाले चुनावों में मायावती के हाथ से सत्ता छीन सकने में राज्य इकाई की क्षमता पर भरोसा नहीं रहा है. ऐसा मानने की वजहें भी हैं. मायावती की भारी-भरकम जीत के मात्र चार महीने बाद सितंबर 2007 में, जबसे बहुगुणा-जोशी को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष मनोनीत किया गया है, कांग्रेस प्रत्येक उप-चुनाव में हारती रही है और जमानत भी जब्त कराती आई है. हां, उन्हें इस बात का श्रेय जरूर दिया जा सकता है कि पार्टी ने लखनऊ (पश्चिम) सीट भाजपा से छीन ली थी. इसे 'ऐतिहासिक जीत' इसलिए माना गया, क्योंकि कांग्रेस ने 1984 के बाद पहली बार यह प्रतिष्ठित सीट जीती थी.
उनके दोबारा मनोनयन के पीछे कई और भी कारण रहे होंगे, लेकिन एक वरिष्ठ पार्टी नेता के अनुसार, बहुगुणा-जोशी के पक्ष में नेहरू-गांधी परिवार का यह स्वभाव भी गया कि यह परिवार दबाव में आकर कभी कोई फैसला नहीं लेता. इस बात को समझे बिना एक तरफ तो एक गुट ने सोनिया पर बहुगुणा-जोशी को हटाने का दबाव डालने की कोशिश की, और दूसरी तरफ वरिष्ठ केंद्रीय नेताओं की सरपरस्ती वाले एक अन्य गुट ने कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी को इस पद पर नियुक्त करने का दबाव डाला.{mospagebreak}
बहुगुणा-जोशी की तरह तिवारी भी इलाहाबाद क्षेत्र के ही हैं. मगर दबाव के हथकंडे सोनिया को पसंद नहीं आए और उन्होंने पूरी तरह सक्रिय बहुगुणा-जोशी को फिर से नियुक्त कर दिया, जो उम्र में कांग्रेस के अनेक प्रदेश अध्यक्षों की तुलना में बड़ी हैं. आखिर, ऐसे नेता गिनती में कम ही हैं, जो 16 घंटे काम कर सकें और जनता से जुड़ने के लिए मीलों पैदल चल सकें.
नेताओं ने सोनिया गांधी से यह शिकायत भी की थी कि बहुगुणा-जोशी अपने दिवंगत पिता हेमवती नंदन बहुगुणा पर लिखी एक पुस्तक में दिवंगत इंदिरा गांधी को 'अहंकारी' करार दे चुकी हैं. लेकिन बहुगुणा-जोशी का कहना है कि यह बात वे खुद सोनिया की जानकारी में ला चुकी हैं और उनके समक्ष यह भी स्पष्ट कर चुकी हैं कि उन्होंने यह बात क्यों और किस संदर्भ में लिखी थी.
आंतरिक सूत्रों के अनुसार, बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि सोनिया ने नेहरू-गांधी घराने की जन्मस्थली इलाहाबाद से खुद कोई नेता खोजकर लाने और उसे तैयार करने का काम बिल्कुल गुपचुप तरीके से किया. पार्टी सूत्रों का कहना है कि सोनिया लगातार बोलने वाली और युवाओं और बुजुर्गों से आसानी से संवाद स्थापित कर लेने वाली भारतीय इतिहास की इस पूर्व प्रोफव्सर पर आनंद भवन और स्वराज भवन से जुड़े अपने स्वयं के गैर राजनैतिक तंत्र के जरिए नजर रखती आ रही थीं.
इसके अलावा, राज्य में कोई ऐसा नेता भी तो नहीं था, जो बहुगुणा-जोशी का स्थान ले सकता. प्रमोद तिवारी भले ही इस बार खुद की ओर ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे थे, लेकिन अपनी जैकेट का रंग भी सत्तारूढ़ पार्टी के रंग जैसा ही करवा लेने की उनकी आदत उनके खिलाफ गई. जहां तक अन्य नेताओं की बात है, वे या तो अतीत में परखे जा चुके थे, या फिर केंद्र में मंत्री पदों से ही खुश हैं.{mospagebreak}
इसके अलावा, केंद्र में मंत्री पद पर आसीन राज्य के दो नेता आर.पी.एन. सिंह और प्रदीप जैन तो पिछले साल क्रमशः पडरौना और बुदेलखंड के झंसी में हुए उप-चुनावों के दौरान अपने-अपने परिवारीजनों को भी चुनाव जितवाने में सफल नहीं हुए थे. पडरौना में आर.पी.एन. सिंह की मां इस तथ्य के बावजूद अपनी जमानत तक नहीं बचा सकी थीं कि वे खुद इस सीट से चुनाव जीत चुके थे, जबकि झंसी में जैन का भाई चौथे स्थान पर रहा था. अमेठी के राजा डॉ. संजय सिंह का नाम एक क्षण के लिए चला और उतनी ही तेजी से लुप्त भी हो गया.
जाहिर है, सोनिया ने बहुगुणा-जोशी को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद पर फिर से मनोनीत करके उत्तर प्रदेश में एक दांव खेला है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या बहुगुणा-जोशी भीतर से विभाजित पार्टी को तैयार करने और उत्तर प्रदेश को दोबारा जीतने में सोनिया के लिए मददगार हो सकेंगी?