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अतातुर्क के आदर्श, सियासत की मजबूरी

नेहरू की जीवनी के अलावा समकालीन भारतीय राजनीति पर कई किताबें लिख चुके एम.जे. अकबर ने इस बार पाकिस्तान के इतिहास और वर्तमान पर अपनी लेखनी चलाई है. उनकी इस नई पुस्तक से एक अंश, जिसमें जिन्ना की शख्सियत और सियासत की झांकी मिलती है.

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टिंडरबॉक्स: द पास्ट ऐंड द फ्युचर ऑफ पाकिस्तान
एम.जे. अकबर
हार्पर कॉलिन्स

कीमतः 499 रु.
पृष्ठः 360

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स्वभाव से कुलीन, रुचि से उदार, तौर-तरीके से अंग्रेज, तबीयत से एकांतप्रिय मोहम्मद अली जिन्ना संभवतः ऐसे व्यक्ति कतई नहीं थे कि दुनिया के पहले इस्लामी गणराज्‍य के जनक बनते.

जिन्ना अपनी पूरी जवानी के दौरान यूरोपीय धर्मनिरपेक्षता, जो मोहनदास करमचंद गांधी की भारतीय धर्मनिरपेक्षता से एकदम अलग थी, की जीती-जागती मूर्ति थे. 20वीं सदी के पहले दशक में जिन्ना जिस क्रांतिकारी विकल्प का प्रतिनिधित्व करते थे, उसे समझने के लिए हमें उनकी तुलना 19वीं सदी के भारतीय मुसलमानों के नेतृत्व के प्रतीक पुरुषों से करनी होगी. उन्होंने सारे रस्मो-रिवाज और रवायतें तोड़ दी थीं.

उन्होंने दाढ़ी के साथ पाजामे के पहनावे को नजरअंदाज करके कॉस्मोपोलिटन पहनावा चुना था और उनकी अलमारी में बेहतरीन सिले सूटों की संख्या 200 तक थी. वे अपने इलाके की भाषा गुजराती या उर्दू की जगह अंग्रेजी में बातचीत करते थे. मुस्लिम श्रोताओं को रिझाने के लिए उन्होंने .कुरान की आयतों को उद्धृत नहीं किया, या शायद कर नहीं सकते थे. वे सियासत में समुदाय विशेष की मांगों के खिलाफ थे.

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उन्हें 1905 में बंगाल के बंटवारे और मुस्लिम बहुल प्रांत के गठन को लेकर संदेह था. 1906 में ढाका में जन्मी मुस्लिम लीग से वे अलग-थलग थे और लीग की प्रमुख मांग-अलग निर्वाचक मंडल-का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया. उन्हें अंदेशा था कि इससे भारत की एकता खत्म हो जाएगी.{mospagebreak}

यहां तक कि जब 1930 के दशक में भारतीय उपमहाद्वीप में अलग मुस्लिम देश की मांग जोर पकड़ने लगी तब तक जिन्ना के आदर्श कमाल अतातुर्क थे. अतातुर्क ने ओस्मानिया खिलाफत को खत्म करके मजहब से हुकूमत को अलग कर दिया था.

जिन्ना जब लंदन में अपनी मर्जी से निर्वासित जिंदगी बिता रहे थे तब नवंबर 1932 में अतातुर्क की जीवनी-एच.सी. आर्मस्ट्रांग की ग्रे वुल्फ- उन्हें इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने उसे दो दिन में ही पढ़ डाला और अपनी 13 वर्षीया बेटी दीना से इसे पढ़ने के लिए कहा. और दीना उन्हें 'ग्रे वुल्फ' उपनाम से पुकारने लगीं.

जिन्ना ने 27 अक्तूबर, 1937 को मुस्लिम लीग के एक सम्मेलन में कहा, ''काश मैं मुस्तफा कमाल होता. तब मैं हिंदुस्तान के मसले को आसानी से हल कर देता. लेकिन मैं मुस्तफा कमाल नहीं हूं.'' तुर्की के नायक मुस्तफा की 1938 में मौत के बाद मुस्लिम लीग की सभी इकाइयों को 'कमाल दिवस' मनाने का आदेश दिया गया.

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इसके विपरीत महात्मा गांधी का मानना था कि धर्म के बिना राजनीति अनैतिक हो जाती है. उन्होंने धार्मिक पहचान की भारतीय जरूरत को समर्थन दिया. उन्होंने अपने नाम के साथ 'महात्मा' जोड़े जाने पर कभी भी सार्वजनिक तौर पर एतराज नहीं जताया, भले ही निजी तौर पर उन्हें यह पसंद नहीं था. उनके उत्तराधिकारी जवाहरलाल नेहरू ने ब्राह्मणवादी उपसर्ग 'पंडित' को अपना लिया, हालांकि वे कोई खास धार्मिक नहीं थे.

जिन्ना अनीश्वरवादी से ज्‍यादा, धर्म के प्रति उदासीन थे. वे इस्माइली खोजा परिवार में जन्मे थे. कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेता बदरुद्दीन तैयबजी ने, जो शिया थे, उन्हें खोजा समुदाय से अलग होने के लिए राजी किया. तैयबजी विश्वव्यापी इमाम आगा खान के प्रति निष्ठा खत्म करके मुख्यधारा के असना अशरिया (शियाओं के सबसे बड़े समुदाय) में शामिल हो गए थे, जो किसी दुनियावी इमाम को नहीं मानते. {mospagebreak}जिन्ना के नाममात्र के अकीदे में न तो नमाज और न ही खान-पान से जुड़ी इस्लामी हिदायतें शामिल थीं. वे खुद को 'मौलाना जिन्ना' करार दिए जाने की किसी भी कोशिश को बेतुका करार देकर खारिज कर देते.

उन्होंने 'कायद-ए-आज़म' का खिताब पसंद किया. अपने विजय दिवस, 14 अगस्त, 1947 को जब पाकिस्तान का जन्म हुआ था, पर उन्होंने अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के सम्मान में दिन में औपचारिक भोज का आयोजन किया. उन्हें कतई एहसास नहीं था कि रमजान का महीना चल रहा है और कुछ हफ्तों से मुसलमान रोजे रख रहे हैं.

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जिन्ना चाहते थे कि नया देश पाकिस्तान उनके मूल्यों को साझा करे और बहुसंख्यक मुसलमानों का धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बने, न कि मुस्लिम दबंगई वाला देश. यह एक दिलचस्प इत्तेफाक है कि जिन्ना का परिवार राजकोट का था, जो गांधी के पैतृक निवास से महज 45 किमी दक्षिण में स्थित है.

जिन्ना का जन्म कराची में हुआ था, जहां उनके वालिद जिन्नाभाई पूंजा अपनी बेगम मीठीबाई के साथ इंग्लैंड के लिए मछली के निर्यात का कारोबार जमाने के लिए जा बसे थे. जिन्ना का नाम महमदल्ली जिन्नाभाई रखा गया. सिंध के मदरसतुल इस्लाम में, जहां 1887 में जिन्ना का दाखिला कराया गया था, उनका जन्म दिन 20 अक्तूबर, 1875 दर्ज है, लेकिन पाकिस्तान अपने संस्थापक का जन्मदिन 25 दिसंबर को मनाता है.

उनका जन्मदिन क्रिसमस के दिन मनाने के पीछे चर्च मिशन सोसाइटी हाइ स्कूल का प्रभाव है, जहां 8 मार्च, 1892 को उनका दाखिला कराया गया था. जब वे लिंकन्स इन के जेंटलमैन-स्टुडेंट बने तो उन्होंने अपने नाम से अतिरिक्त 'ल' और 'भाई' को निकाल दिया और नाम को सहज कर दिया.{mospagebreak}

घर में उन्हें प्यार से महमद बुलाया जाता था. जिन्ना बचपन में अंकगणित से कतराते थे, घोड़ों से लगाव था और वे उड़ने वाले कालीन और जिन्न वाली परीकथाओं में खो जाते थे. उन पर सब कुछ न्यौछावर करने वाले उनके वालिद ने अपनी कंपनी का नाम बदलकर अपने बेटे के नाम पर रख लियाः मेसर्स मोहम्मद अली जिन्नाभाई. परिवार की कंपनी में कुछ महीने बिताने के बाद जिन्ना ने स्वतंत्र रूप से अपना पहला फैसला किया.

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उन्होंने अपनी मां के आंसुओं को नजरअंदाज करके लंदन के वित्तीय इलाके में किरानी के पद पर काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. वैसे, जिन्ना अपनी मां की एक बात मान गए कि वे परिवार की रजामंदी से शादी करेंगे. उनकी मां को अंदेशा था कि कोई अंग्रेज लड़की उनके खूबसूरत बेटे को चुरा लेगी. खोजा गुजराती व्यापारी गोकल लेरा खेमजी की बेटी एमी बाई के संग पारंपरिक शादी कराई गई. वे जनवरी 1893 में जहाज से ब्रिटेन के लिए रवाना हो गए. उनकी बेगम भारत में ही रहीं और हैजे की महामारी में चल बसीं; जब वे इंग्लैंड में ही थे तभी उनकी मां का भी देहांत हो गया. जब वे भारत लौटे तो आर्थिक मंदी के कारण उनके वालिद का कारोबार भी काफी प्रभावित हो चुका था.

लंदन में किरानी की नौकरी उनकी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप नहीं थी. बैरिस्टर बनने के लिए वे लिंकन्स इन में दाखिल हुए, 29 अप्रैल, 1896 को डिग्री ली, और हाउस ऑफ कॉमन्स की दर्शक दीर्घा में जाकर सियासत के प्रति लगाव को बढ़ाया. तभी 1892 के लिबरल लहर में पहले भारतीय दादाभाई नौरोजी (1825-1917) सांसद चुने गए. नौरोजी को 'मिस्टर नैरो-मेजरिटी' उपनाम दिया गया था क्योंकि वे मात्र तीन वोट से जीते थे; चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री सैलिसबरी ने जब उन्हें ''अश्वेत'' कहा तब वे ज्‍यादा मशहूर हुए.{mospagebreak}

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जब 'मोहम्मद अली जिन्ना एस्क्वायर, इस सोसाइटी के बैरिस्टर' 16 जुलाई, 1896 को भारत के लिए रवाना हुए तब वे काफी हद तक विक्टोरियाई युग के बाद के जेंटलमैन बन चुके थे. उनका एक आंख वाला चश्मा जोसफ चैंबरलेन के चश्मे जैसा था. और ऑक्सफोर्ड की एक यात्रा के दौरान उन्हें एक बार गिरफ्तार किया गया था.

जिन्ना ने ऑक्सब्रिज बोट रेस के दौरान अपने जीवनी लेखक हेक्टर बोलिथो को 'पुलिस के साथ संघर्ष' की इस पहली घटना के बारे में बताया था कि वे अपने दो साथियों के संग, ''छात्रों की एक भीड़ में फंस गए थे'' और एक ठेले के पास पहुंचे तो ''एक-दूसरे को सड़क पर धक्का दे रहे थे'' तब उन्हें गिरफ्तार करके थाने ले जाया गया और चेतावनी देकर छोड़ दिया गया.

वही एक मौका है जब जिन्ना को पुलिस ने हिरासत में लिया था. वे इतने पक्के वकील थे कि कानून नहीं तोड़ सकते थे. वे छात्र जीवन से ही ओल्ड विक में रोमियो का किरदार निभाने का सपना देखते थे, और उनके नाराज वालिद के खत (''अपने खानदान के साथ गद्दारी मत करना'') ने उन्हें रंगमंच पर उतरने से रोक दिया था. अपने जीवन के आखिरी दिनों में कामकाज के बाद थक कर जब वे अपने कमरे में जाते तो शेक्सपियर को अपनी ऊंची और खनकती आवाज में पढ़कर आराम करते थे.

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इंग्लैंड उनके लिए स्वाभाविक दूसरा घर था. जब उन्होंने 1930 और 1933 के दौरान बहन फातिमा और बेटी दीना के साथ हैंपस्टीड में घर बनाया तो अपनी बेंटली को चलाने के लिए एक ब्रिटिश शोफर (ब्रैडले) को नियुक्त किया, दो कुत्ते (एक काला डोबरमैन और दूसरा सफेद वेस्ट हाइलैंड टेरियर) पाले, रंगमंच का शौक पाला, और प्रिवी काउंसिल के सामने अपनी खास सजधज में पेश हुए जिसके वे अभ्यस्त थे- सेविल रो सूट, खूब मांड लगी कमीज और दोरंगे लेदर या सुएड जूतों में.{mospagebreak}

15 अक्तूबर, 1937 को लखनऊ के मुस्लिम लीग अधिवेशन में सियासी मजबूरियों के चलते 'इस्लामी' वेशभूषा में शामिल होने तक वे 61 साल के हो चुके थे. चमड़े की टोपी और शेरवानी में उनकी यह छवि ही पाकिस्तान में उनकी अधिकृत तस्वीर है. लेकिन 1937 के बाद भी वे इस पहनावे को कम ही पहनते थे. वे थोड़ी शराब पीते थे और नमाज के तौर-तरीके से शर्मिंदगी की हद तक नावाकिफ थे.

उन्होंने 1940 में लाहौर की एक जनसभा में अंग्रेजी में दिए भाषण में मुस्लिम मुल्क की मांग की. श्रोता चाहते थे कि वे उर्दू में बोलें पर उन्होंने उनकी मांग को नजरअंदाज कर दिया. काबिल वकील के पास हमेशा एक दलील रहती थी. उन्होंने कहा कि चूंकि दुनिया भर के प्रेसवाले यहां मौजूद हैं इसलिए दुनिया भर को समझ आने वाली जबान में ही बोलना बेहतर होगा.

लिंकन्स इन से कानून की डिग्री हासिल करने के बावजूद जब वे 1896 में बंबई लौटे तो पेशेवराना जिंदगी आसान नहीं थी. उन्हें पहला मौका तब मिला जब दिग्गज पारसी सर फिरोजशाह मेहता (1845-1915, 1890 में कांग्रेस अध्यक्ष) ने उन्हें बंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन का कानूनी सलाहकार नियुक्त किया. दादाभाई नौरोजी ने सियासत में उतरने में उनकी मदद की.

दिसंबर 1904 में कांग्रेस के बंबई अधिवेशन के  दौरान पहली बार वे उसके प्रतिनिधि बने. वहीं उनकी मुलाकात गोपाल कृष्ण गोखले (1866-1915; 1905 के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष) से हुई. कवयित्री-राजनेता सरोजिनी नायडु के मुताबिक, जिन्ना गोखले से इतने प्रेरित थे कि वे 'मुस्लिम गोखले' बनना चाहते थे. वे उनसे 1906 में कलकत्ता कांग्रेस में मिलीं और उनका अंदाज, व्यक्तित्व और 'जबरदस्त देशप्रेम' देखकर मुग्ध हो गईं.{mospagebreak}

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जिन्ना चालीस साल की उम्र में अपने निजी, पेशेवराना और सार्वजनिक जीवन के चरम पर थे. 1915 में बंबई में जिन्ना के बारे में वोलपर्ट ने लिखा हैः ''किचनर की तरह बड़ी मूंछें, स्याह बाल और कटार की तरह पतले जिन्ना रोनाल्ड कोलमैन की तरह बोलते थे, एंथनी इडेन की तरह कपड़े पहनते थे. पहली ही नजर में ज्‍यादातर महिलाएं उनकी प्रशंसक बन जाती थीं और ज्‍यादातर पुरुष उनसे ईर्ष्या करते थे.''

अप्रैल 1916 में इलाहाबाद की सभा के बाद दो महीने की छुट्टी पर जिन्ना सर दिनशॉ मानकजी पेटिट के मेहमान बनकर पूर्वी हिमालयी हिल स्टेशन दार्जिलिंग चले गए. कपड़ा मिल के मालिक पेटिट दिग्गज बंबइया पारसी उद्योगपति थे. जब तक छुट्टी खत्म हुई तब तक जिन्ना और पेटिट की 16 वर्षीया खूबसूरत बेटी रतनबाई, जिन्हें सब रत्ती कहते थे, एक-दूसरे को प्यार करने लगे थे.

जिन्ना के चैंबर में जूनियर के रूप में काम कर चुके और इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री रहे एम.सी. छागला के मुताबिक, जिन्ना सीधे सर दिनशॉ के पास गए और उनसे पूछा कि अंतरधार्मिक विवाह के बारे में उनका क्या ख्याल है. सर दिनशॉ ने कहा कि यह शानदार विचार है और इससे राष्ट्रीय एकता को काफी मदद मिलेगी. जिन्ना ने धीरे से रत्ती का हाथ मांग लिया. यह सुनते ही सर दिनशॉ को मानो लकवा मार गया, उन्होंने इस विचार को बेतुका बताते हुए खारिज कर दिया, और हाइकोर्ट से इस विवाह के खिलाफ रोक का आदेश ले लिया क्योंकि रत्ती उस वक्त नाबालिग थीं.{mospagebreak}

कानून की कद्र करने वाले जिन्ना ने रत्ती से तब तक मुलाकात नहीं की जब तक 20 फरवरी 1918 को वे 18 साल की नहीं हो गईं. रत्ती 19 अप्रैल को जिन्ना के साथ बंबई की जामिया मस्जिद में गईं, मौलाना नजीर अहमद खोजांदी की मौजूदगी में उन्होंने इस्लाम कबूल किया और शिया रस्मो-रिवाज के मुताबिक शादी की. शादी के गवाहों में महमूदाबाद के राजा शामिल थे, जो दुलहन की शादी की अंगूठी लेकर आए थे.

मेहर की रकम 1,001 रु. तय की गई, लेकिन जिन्ना ने फौरन 1,25,000 रु. का तोहफा दिया. जिन्ना सिविल मैरिज करके ज्‍यादा खुश हो सकते थे लेकिन उस जमाने के कानून के मुताबिक, कोर्ट मैरिज का विकल्प चुनने वाले लोगों को यह ऐलान करना होता था कि वे किसी मजहब को नहीं मानते. जिन्ना मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे और इस तरह की घोषणा से उनका चुनाव निरस्त हो जाता.

सर दिनशॉ ने अपनी बेटी से दोबारा मिलने से इनकार कर दिया, और जिन्ना से 11 साल बाद सिर्फ यह बताने के लिए बात की कि उनकी अलग हुई पत्नी का असमय देहांत हो गया है. लेकिन रत्ती की मां ने अपनी बेटी को नहीं छोड़ा था, और अलग होने तथा आखिरी बीमारी के दौरान बहुत मदद की.

ख्वाजा रजी हैदर लिखते हैं कि बंबई के पारसी इस धर्मांतरण से काफी नाराज थे. पारसी अखबारों ने शादी के दिन को 'काला शुक्रवार' घोषित कर दिया. अपहरण का मामला दर्ज किया गया, और जब यह मामला अदालत पहुंचा तो न्यायाधीश ने पूछा कि क्या जिन्ना ने पैसे के लिए शादी की है. इससे नाराज जिन्ना ने कहा कि इस सवाल का जवाब केवल उनकी पत्नी ही दे सकती हैं, वे आगे आईं और उन्होंने अदालत को बताया कि वे प्यार की खातिर मुसलमान बनीं, और न तो वे और न ही उनके पति उनके पिता की दौलत में हिस्सा चाहते हैं.{mospagebreak}

लेकिन अमीरजादी रत्ती को अपना अंदाज बदलने की जरूरत नहीं पड़ी. उनके पति के शौक के कई किस्से हैं. एक बार श्रीनगर में छुट्टी के दौरान रत्ती ने 50,000 रु. खर्च किए, जो उस जमाने के हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी. जिन्ना ने अपनी पत्नी के साथ शाम का वक्त बिताने के लिए ओरिएंट क्लब से इस्तीफा दे दिया, जहां वे शतरंज और बिलियर्ड्स खेलते थे.

डॉ. सैयद महमूद को लिखे पत्र में सरोजिनी नायडु ने इस विवाह का बहुत अच्छी तस्वीर पेश की हैः ''सो, जिन्ना ने आखिरकार अपने मन का नीला फूल तोड़ लिया. यह सब बहुत अचानक हुआ और इसका जबरदस्त विरोध हुआ और पारसियों में काफी नाराजगी थी; लेकिन मुझे लगता है कि उस लड़की ने बड़ी कुर्बानी दी है और अभी तक उसे इसका एहसास नहीं है. जिन्ना इस सबके लायक हैं-वे प्यार करते हैं: ऐसा प्यार जो वास्तव में इंसानी है और उनके अंतर्मुखी एवं आत्मकेंद्रित प्रकृति का वास्तविक भाव है.''

बंबई की सबसे मशहूर और खूबसूरत दुलहन के तौर पर रत्ती अपने बालों में ताजे फूल, हीरे जड़ित गहने पहनती थीं; हाथी के दांत के होल्डर में रखी अंग्रेजी सिगरेट पीती थीं; माणिक, पन्ने और गले के काफी नीचे तक के रेशमी परिधान पहनती थीं जिससे बुजुर्ग महिलाएं दंग रहती थीं.

हेक्टर बोलिथो ने बंबई के गवर्नमेंट हाउस दावत के दौरान मेजबान लेडी विलिंगडन की प्रतिक्रिया का इस तरह जिक्र किया हैः ''कहानी यह है कि मिसेज जिन्ना ने लो-कट ड्रेस पहन रखी थी, जिससे उनकी मेजबान खुश नहीं थीं. जब वे सब डाइनिंग टेबल पर बैठे थे तब लेडी विलिंगडन ने एक एडीसी से कहा कि मिसेज जिन्ना को ठंड लग रही होगी लिहाजा उनके लिए एक कपड़ा ले आए. बताया जाता है कि जिन्ना खड़े हो गए, और बोले, जब मिसेज जिन्ना को ठंड लगेगी तो वे खुद बताएंगी और खुद ढकनेके लिए कपड़ा मांगेंगी.'' और फिर, लॉर्ड विलिंगडन जब तक गवर्नर रहे तब तक जिन्ना गवर्नमेंट हाउस दोबारा नहीं गए.{mospagebreak}रत्ती स्वभाव से आजादख्याल की थीं. एक बार कश्मीर में वे एक फॉर्म से परेशान हो गईं, जिसमें उनकी यात्रा का उद्देश्य दर्ज करने को कहा गया था. उन्होंने लिखाः 'राजद्रोह फैलाने के लिए.' उनकी इकलौती बेटी दीना अपने वालिद को प्यार करती थीं लेकिन अपने वालिद की मर्जी के बगैर शादी करने के मामले में पूरी तरह अपनी मां पर गई थीं. उन्होंने बंबई के लिट्ल गिब्स रोड के चर्च में 1938 में नेविल वाडिया से, जो पारसी से ईसाई बन गए थे, विवाह किया.

जिन्ना ने उन्हें गुलदस्ता भेजा, और उनसे फिर कभी नहीं मिले-लेकिन उन्होंने अपनी बेटी को विरासत से वंचित नहीं किया. दीना भारत में रह गईं. वैसे, 14 अगस्त 1947 को अपनी बालकनी में पाकिस्तानी झंडा लहराने वाली शायद वे इकलौती महिला रही होंगी.

जिन्ना की प्रतिबद्धता, धैर्य और संकल्प में वे लक्षण दिख सकते हैं जिनकी बदौलत उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी शगल-पाकिस्तान के विचार-के लिए संघर्ष में कामयाबी हासिल की. लेकिन एक साल के भीतर ही करीने से तैयार किया गया जिन्ना का आधार निरर्थक होने लगा. जोरदार राजनैतिक आंधी ने, जिसे चार साल तक खामोश रहने वाले एक शख्स ने बढ़ाया था, पहले दो दशकों को महत्वहीन बना दिया.{mospagebreak}*************

जिन्ना सड़क की राजनीति से तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे. गांधी और जिन्ना के बीच पहला बड़ा मतभेद 1920 में कलकत्ता और नागपुर के कांग्रेस अधिवेशनों में उभरा. जिन्ना को लगा कि मुसलमानों से स्नेह पाने के मामले में गांधी ने उनकी जगह ले ली है. नागपुर अधिवेशन में वे इकलौते मुस्लिम प्रतिनिधि थे जिसने गांधी के असहयोग के प्रस्ताव पर असंतोष प्रकट किया.

उन्होंने कहा कि यह प्रस्ताव वस्तुतः पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा है और भारत इसके लिए तैयार नहीं है. उन्होंने कहा कि वे अंग्रेजी हुकूमत पर लाला लाजपत राय के अभियोग से पूर्णतः सहमत हैं लेकिन उन्हें नहीं लगता कि कांग्रेस ने इसे खत्म करने का अभी कोई तरीका निकाला है. वे एक तरह से भविष्य की बात कर रहे थेः ''...फिलहाल यह सही कदम नहीं है. आप इंडियन नेशनल कांग्रेस के सामने ऐसा कार्यक्रम रख रहे हैं जिसे आप पूरा नहीं कर सकते.'' उनकी दूसरी आपत्ति थी कि अहिंसा कारगर नहीं होगी. यहां जिन्ना गलतफहमी में थे.

गांधी के आंदोलन के स्वरूप को जिन्ना पसंद नहीं करते थे. लेकिन गांधी की नई ताकत ने उन्हें उन खानों में शरण लेने को विवश नहीं किया जिन्हें उन्होंने खारिज किया था. गांधी ने इस मतभेद को दो दशक बाद याद करते हुए 8 जून 1940 को हरिजन में लिखाः ''कायद-ए-आजम खुद महान कांग्रेसी थे. असहयोग आंदोलन के बाद वे, विभिन्न समुदायों से संबंध रखने वाले कई दूसरे कांग्रेसियों की तरह, छोड़ गए.

{mospagebreak}उनका पाला बदलना पूरी तरह सियासी था.'' इस घटना का एक दिलचस्प पहलू भी है. जिन्ना ने दिसंबर 1920 के नागपुर अधिवेशन में गांधी को आदतन 'मिस्टर गांधी' कहकर अपना भाषण शुरू किया तो लोग फौरन चिल्लाने लगे कि वे 'महात्मा गांधी' कहकर संबोधित करें. इसके बाद जब उन्होंने मुहम्मद अली को 'मिस्टर' कहा तो फिर नाराजगी भरे स्वर में कहा जाने लगा कि उनके नाम से पहले 'मौलाना' लगाएं. 'महात्मा' और 'मौलाना' के धार्मिक निहितार्थों के मद्देनजर जिन्ना ने गांधी और मुहम्मद अली के पहले इन शब्दों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया.

दरअसल, मुल्लाओं की छोटी जमात-मुहम्मद अली, उनके भाई शौकत अली और अबुल कलाम आजाद-ने गांधी को मुस्लिम भावनाओं को छूने के लिए वैकल्पिक रास्ता दिया और गांधी ने इस्लाम के आखिरी खलीफा के अस्तित्व को भारतीय मकसद से जोड़ा दिया.

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