पवित्र नगरी अयोध्या में 60 गुना 40 वर्ग फुट जमीन के एक बहुत छोटे-से टुकड़े की मिल्कियत के दावे को लेकर चली लंबी लड़ाई पर बहुव्रतीक्षित फैसला तो अगले माह अदालत के एक कमरे में सुना दिया जाएगा, लेकिन उससे उठने वाली तरंगों से समूचे देश के राजनैतिक माहौल में जबदस्त गर्मी पैदा हो जाने का अंदेशा है.
और यह स्थिति ऐसे समय बनने जा रही है जब देश पहले से ही कोई दर्जन भर राज्यों में नक्सलवाद और कश्मीर में आतंकवाद से झुलस रहा है. यह लड़ाई लड़ रहे दोनों पक्षों हिंदुओं और मुसलमानों के लिए उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित जमीन के इस छोटे-से टुकड़े का महत्व यह है कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं.
अदालत में और आंदोलनों में हिंदुओं का प्रतिनिधित्व कर रहे विभिन्न संगठनों का दावा है कि यह भगवान राम की जन्मस्थली है जबकि मुसलमानों का कहना है कि यह 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद है, जिसका निर्माण प्रथम मुगल सम्राट बाबर ने करवाया था. 26 जुलाई को इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ पीठ में तीन न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति डी.यू. शर्मा-की पीठ ने यह संकेत दिया कि दोनों पक्षों की सुनवाई पूरी हो चुकी है और इस मामले में फैसला सितंबर माह में सुना दिया जाएगा. {mospagebreak}
अयोध्या विवाद की विस्फोटक प्रकृति के मद्देनजर न सिर्फ प्रतिद्वंद्वी संगठन-मुसलमानों की तरफ से बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और हिंदुओं की तरफ से निर्मोही अखाड़ा और समूचा संघ परिवार खासकर विश्व हिंदू परिषद (विहिप)-इस फैसले पर प्रतिक्रिया करने के लिए कमर कस रहे हैं बल्कि मुख्यमंत्री मायावती ने भी सरकारी तंत्र को पूरी तरह चौकस कर दिया है. इसके तहत पुलिस कर्मियों की सरकारी छुट्टियां अगले आदेश तक रद्द कर ही दी गई हैं.
यही नहीं, विभिन्न जिलों में कानून-व्यवस्था की निगरानी के लिए सरकार ने वरिष्ठ अधिकारियों को विशेष पुलिस अधिकारी बनाकर तैनात किया है. राज्य सरकार ने स्थिति से निबटने के लिए केंद्र से अर्द्धसैनिक बलों की कोई 500 कंपनियां भेजने के लिए भी कहा है. उत्तर प्रदेश का गुप्तचर तंत्र सांप्रदायिक तत्वों की गतिविधियों की निगरानी करने के लिए दिन-रात एक कर रहा है.
अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक स्तर के एक अधिकारी ने स्वीकार किया, 'हाइकोर्ट के फैसले के पहले और उसके दौरान हमें बहुत ही चौकन्ना रहना होगा और अगर कोई सांप्रदायिक समस्या पैदा करने का प्रयास करे तो तुरंत हरकत में आना होगा.' इस अधिकारी के अनुसार, वाराणसी और बरेली समेत राज्य के करीब आधा दर्जन जिलों में सांप्रदायिक स्थिति बहुत तनावपूर्ण हो गई है. {mospagebreak}
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि क्या हारने वाला पक्ष अदालत के फैसले का पालन करेगा. इस पर फैजाबाद में एक छोटे-से प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक नीरज मिश्र प्रतिक्रिया जताते हैं, 'सुप्रीम कोर्ट ने जब शाहबानो मामले में फैसला दिया था तो क्या हुआ था? तब क्या मुसलमानों ने तत्कालीन केंद्र सरकार पर इस फैसले को संसद के जरिए बदलने का दबाव नहीं डाला था?
अदालत ने मंदिर के विरुद्ध फैसला दिया तो हमें भी यही करना चाहिए.' निस्संदेह, अयोध्या मामला राजनैतिक रूप से डायनामाइट साबित हो सकता है. अंग्रेज भी इस मुद्दे को अदालत के जरिए सुलझने में नाकाम रहे थे और उन्होंने यथास्थिति बनाए रखने में ही भलाई समझी थी. यही हाल केंद्र और राज्य सरकार का हुआ. यहां तक कि शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या सैयद शहाबुद्दीन के हस्तक्षेप करने पर इस मामले का कोई शांतिपूर्ण समाधान नहीं निकल पाया. स्थिति गंभीर है क्योंकि जाहिरा तौर पर यह भले ही धार्मिक भावनाओं का मामला लगे, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों पक्ष अपना राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इस मामले से लाभ उठाना चाहते हैं.
दोनों पक्षों के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए यह सोचना भी मूर्खता होगी कि वे अदालत के आदेशों का अक्षरशः पालन करेंगे. पिछले 20 साल के दौरान कोई आधा दर्जन प्रधानमंत्रियों, धार्मिक प्रमुखों और अफसरशाहों ने इस मामले को सुलझने के प्रयास किए होंगे, लेकिन इसमें उंगलियां जलाने के बाद उन्हें मामला अंततः अदालत पर छोड़ना पड़ा. मुख्य रूप से आरएसएस-विहिप-बजरंग दल की अगुआई में हिंदू संगठनों ने इस सिलसिले में जन अभियान शुरू भी कर दिया है. {mospagebreak}
विहिप प्रवक्ता शरद शर्मा बताते हैं, 'देश के कोई सात लाख मंदिरों में हनुमान चालीसा का पाठ शुरू हो गया है.' इसका पहला प्रदर्शन 16 अगस्त को हुआ, जिसमें न तो भीड़ जुटी और न ही वह कोई प्रभाव छोड़ पाया. इससे अयोध्या मामले में भाजपा समेत संघ परिवार की घटती साख की ही झलक मिलती है. भाजपा और उसके आनुषंगिक संगठन सड़कों पर ही नहीं, कानूनी स्तर पर भी अदालत में मामले को पूरे जोश-खरोश से लड़ने में असफल रहे हैं.
उन्होंने ऐसे महत्वपूर्ण मामले को, जो पार्टी को 1991 में पहली बार सत्ता में पहुंचाने के लिए संजीवनी साबित हुआ था, महज स्थानीय वकीलों के एक समूह के भरोसे छोड़ दिया. उधर, उनके विरोधी पक्ष ने एक समय सिद्धार्थ शंकर राय समेत देश के चोटी के वकीलों को इस काम में झोंक दिया. इस मामले में मुख्य वादी निर्मोही अखाड़ा के कुछ पदाधिकारी संघ परिवार पर राम मंदिर निर्माण के नाम पर जनता से उगाहे गए करोड़ों रु. डकार जाने का आरोप लगाते हैं. अखाड़ा 1885 से इस मामले में लड़ रहा है.
भाजपा 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद से इस मामले से दूर रहने का प्रयास करती आई है. यहां तक कि चुनावों के दौरान उसने अयोध्या मामले को ठंडे बस्ते में ही डाले रखा जिससे उसके कट्टर हिंदू समर्थक निराश हो गए. भाजपा और संघ परिवार के मूड की झलक श्रीराम जन्मभूमि न्यास की वीरान पड़ी कार्यशाला से मिलती है, जहां इस समय 'पैसे के अभाव' की वजह से काम रुका पड़ा है. {mospagebreak}
तीन साल से अधिक हुए जब यहां भगवान राम के प्रस्तावित मंदिर के लिए स्तंभों के निर्माण का काम शुरू हुआ था. इस संबंध में अभी मुश्किल से 65 प्रतिशत ही काम पूरा हो पाया है. देश भर से उमड़े चले आने वाले रामभक्तों ने भी अब यहां आना-जाना छोड़ दिया है. जो इक्का-दुक्का लोग यहां आते भी हैं, वे उन हिंदू संगठनों के हाथों 'ठगे' महसूस करते हैं, जिन्होंने अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण करने के तो बड़े-बड़े वादे किए थे, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद उन्हें निभा नहीं पाए थे.
अयोध्या स्थल पर स्वामित्व के दावे के मुख्य फरियादी हाशिम अंसारी की ओर से मुकदमा लड़ रहे मुश्ताक सिद्दीकी का दावा है कि 1885 से लेकर 1941 तक निर्मोही अखाड़ा लिखित रूप में यह स्वीकार करता रहा है कि कथित स्थल पर बना ढांचा बाबरी मस्जिद का है और उसमें उसे कोई समस्या नहीं है. उनके अनुसार, 'सन् 1949 में आकर अयोध्या मामले को एक बार फिर हवा दी गई, जब भगवान राम की मूर्तियों को चोरी-छिपे ढंग से उस ढांचे के भीतर रख दिया गया.'
कोई 60 वर्ष से अधिक समय से यह मुकदमा लड़ रहे अंसारी की उम्र अब 90 साल की हो चुकी है और अपने घर में वे लगभग अकेले ही रहते हैं. थोड़ा रुक-रुककर वे कहते हैं, 'मेरी जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश अब उसी जगह पर मस्जिद बनी देखने की है, जहां उसे ढहाया गया था और इससे यह साबित हो जाएगा कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है.' बहुत समय से सुन्नी वक्फ बोर्ड अदालत में यह मुकदमा लड़ रहा है, जहां वह करीब 80 गवाहियां पेश कर चुका है. {mospagebreak}
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी अपने सदस्यों और समर्थकों को मुकदमे का फैसला आने पर चौकस रहने की चेतावनी दे चुका है. केवल संघ परिवार, मुस्लिम संगठन और मायावती सरकार ही अंतिम लड़ाई की तैयारी नहीं कर रहे बल्कि मंदिरों की नगरी अयोध्या के वासी भी आगामी सितंबर महीने के उन दिनों को लेकर आशंकित हैं जब अदालत अपना आखिरी फैसला सुनाएगी.
अयोध्या में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है, 'यह सही है कि जो पक्ष भी हार जाएगा, वह हाइकोर्ट के आदेश पर स्थगनादेश पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का द्वार खटखटाएगा, लेकिन इस फैसले से जीतने वाले पक्ष के मनोबल में जरूर वृद्धि हो जाएगी. बहरहाल, मैं विजयी पक्ष की ओर से भावनाएं भड़काने और सड़कों पर जश्न मनाने के साथ ही 90 वाले दशक की शुरुआत के भयास्पद दिनों की पुनरावृत्ति की आशंकाओं को खारिज नहीं करता.' इस मामले के चलते अयोध्या गत पूरे 60 साल से त्रस्त है.
90 वाले दशक में यहां दंगे हुए और फसादों में यहां के लोगों को अपने परिजनों को खोने के अलावा मूल्यवान संपत्ति से भी हाथ धोना पड़ा था. और उनके लिए यह यंत्रणा शायद अभी भी खत्म न हो. पर हाशमी इस बात से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है, 'अयोध्या धर्मनिरपेक्ष नगरी है, जहां सांप्रदायिक सद्भाव लोगों के मानस में गहरे पैठ चुका है. मैं राम जन्मभूमि के अनुयायियों के विरुद्ध पिछले कोई 60 साल से मुकदमा लड़ता आ रहा हूं, अब मेरी उम्र भी 90 साल की हो गई है और अपने घर में मैं अकेला ही रहता हूं, लेकिन किसी हिंदू ने मुझे एक पत्थर तक नहीं मारा है. राजनैतिक नेताओं और सांप्रदायिक तत्वों को अगर हम पास न फटकने दें तो अयोध्या को कुछ नहीं होगा.' कोई भी शख्स यह प्रार्थना करने के सिवा कर ही क्या सकता है कि फैसले के बाद भी अंसारी की बात सच निकले!