बातचीत के दौरान वह पांच बार कहती है, ''मैं कोई ड्रग्स-व्रग्स नहीं लेती.'' और वह दिल्ली में ड्रग्स (मादक पदार्थों) के अपने पहले अनुभव की कहानी इतनी बार बदलती है कि आपको उसके इस दावे पर शक होने लगता है. कभी वह कहती है कि कॉल सेंटर के एक सहकर्मी ने उसे दफ्तर की कार में एक ज्वाइंट (गांजे वाली सिगरेट) दी थी, तो कभी यह कि एक अजनबी ने होटल सम्राट में उसे फुसलाया था कि वह गुसलखाने में जाकर कोकीन या हेरोइन सूंघ ले.
आप उसकी जिस बात को भी मानें पर वह यह बताने से जरा भी नहीं झिझकती कि उसके कॉल सेंटर में आधी रात की शिफ्ट में ''कॉकटेल'' का दौर चलता है. ''कॉकटेल'' यानी ''स्पाज्मो प्रॉक्सीवॉन की गोलियों को पीस कर थोड़े आयोडेक्स के साथ कफ सीरप और रम, पेप्सी या कोक के साथ मिला दिया जाता है.'' लेकिन इस 21 वर्षीया लड़की का कहना है कि उसने ''कॉकटेल'' को कभी नहीं चखा. उसे अनिद्रा, अभद्र ग्राहकों, बनावटी अंदाज में बोलने और कठिन लक्ष्यों को पूरा करने जैसी दैनिक परेशानियों से निबटने के लिए इस तरह के ''फार्मा किक्स'' की जरूरत नहीं है. लेकिन उससे यह पूछिए कि क्या उसे उन लोगों के साथ काम करने में परेशानी होती है तो वह साफ कहती है, ''अरे नहीं. वे वाकई शानदार लोग हैं.''
नए शहरी नशेड़ियों की दुनिया में ड्रग्स को शानदार माना जाता है. कॉर्पोरेट जगत की सीढ़ियां चढ़ रहे युवकों, लाउंज बार में सामने बैठी खूबसूरत युवतियों से लेकर, एक घंटे के भीतर 10 कॉल अटेंड करने वाले कॉल सेंटर कर्मचारियों, अधिक दबाव वाले प्रोफेशनल कोर्सों के विद्यार्थियों, इंटरनेट खंगालने व मुंहासे वाले किशोर-किशोरियों की मस्त टोली और आपके पड़ोस के खूबसूरत-से लड़के तक-सब आपके इर्दगिर्द हैं. वे कोई कमजोर निशाचर नहीं हैं, किसी गुमनाम स्थान पर नहीं रहते और उनमें तथा अपराधियों में बड़ा फर्क दिखता है.
न ही वे कोई पेज 3 के नशेड़ी हैं जो चर्चा में रहने के लिए कोकीन सूंघते हैं बल्कि वे सामान्य लोग हैं जो जिंदगी की छोटी-छोटी समस्याओं को आसान बनाना चाहते हैं-बढ़िया काम करना, खुशमिजाज दिखना, देर तक जगे रहना, ज्यादा सुकून महसूस करना. भारत के शहरी इलाकों में नए ड्रग्स आनेके साथ ही वे कृत्रिम तरीके से सुकून हासिल करने का प्रयास करते हैं. ये पदार्थ सस्ते हैं. और सामाजिक तथा कानूनी पकड़ से भी दूर हैं. {mospagebreak}
महानगरों से लेकर दूसरे दर्जे के शहरों तक दवाओं का दुरुपयोग रोजमर्रा की सामाजिक जिंदगी का हिस्सा बन गया है, और यह समझ बदलती जा रही है कि किस दवा के साथ कहां, कब, कितना, क्या मिलाना है.
यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्स ऐंड क्राइम (यूएनओडीसी) की वर्ल्ड ड्रग रिपोर्ट (डब्ल्यूडीआर) 2010 से इसी रुझन की तस्वीर उभरती है. इस रिपोर्ट में संकेत किया गया है कि नए ड्रग्स और नए बाजारों की ओर झुकाव बढ़ रहा है, विकासशील देशों में ड्रग्स का इस्तेमाल बढ़ रहा है और नुस्खे वाली दवाओं के साथ ही एंफीटेमाइन-टाइप स्टीमुलैंट (एटीएस) का दुरुपयोग बढ़ रहा है.
दक्षिण एशिया में यूएनओडीसी की प्रतिनिधि क्रिस्टीना अलबर्टिन का कहना है, ''यह ड्रग्स के दुरुपयोग की एकदम अलग संस्कृति की ओर इशारा करती है.'' इस रिपोर्ट की वजह से राजधानी में शास्त्री भवन की छठी मंजिल पर गतिविधियां तेज हो गई हैं.
केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण (एमएसजेई) मंत्री मुकुल वासनिक का कहना है, ''हम भारत में दवाओं के दुरुपयोग की रोकथाम के लिए पहली राष्ट्रीय नीति पर काम कर रहे हैं.'' जागरूकता समय की जरूरत है. संयुक्त सचिव पूर्णिमा सिंह योजना के बारे में बताती हैं- मेडिकल कॉलेजों से लेकर स्कूलों तक पाठ्यक्रमों के जरिए जागरूकता फैलाई जाएगी, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सख्त नजर रखी जाएगी, पर दवाओं के दुरुपयोग पर समय-समय पर सर्वेक्षण किया जाएगा, दवा विक्रेताओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के तहत दवा की मांग में कमी की निगरानी की जाएगी, उपचार के दौरान नशामुक्ति और पुनर्वास की जगह वैकल्पिक उपचार पद्धति का प्रयोग होगा, व्यसन छुड़ाने वाले केंद्रों में मरीजों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाएगा. और यह सब संबंधित मंत्रालयों के सहयोग से किया जाएगा. वे बताती हैं, ''देश में दवाओं के दुरुपयोग की स्थिति का जायजा लेने के लिए राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन हमारी ओर से पहले बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण कर रहा है.''
प्रौद्योगिकी ने ऐसे व्यक्ति की अलग पहचान बना दी है. अनिल की उम्र मात्र 15 साल है और वह अपने स्कूल से ज्यादा वक्त इंटरनेट पर बिताता है. उसकी जिंदगी का फलसफा साइबरस्पेस से तय होता हैः आपको जो पसंद है उसे ले लो, जो नहीं पसंद है उसे छोड़ दो. और फिलहाल वह एक मामूली फूल मॉर्निंग ग्लोरी के बारे में जानकारी ''लेना'' चाहता है. लेकिन उसे फूल में कोई दिलचस्पी नहीं है; वह उसका बीज चाहता है. वह पहले से ही जड़ी-बूटी से संबंधित कोई आधा दर्जन वेब समूहों का हिस्सा है और उसने उनमें एक का पता लगा लिया है जो उसे बीज कूरियर के जरिए भेज सकता है. {mospagebreak}
उसके बाद वह उन वेबसाइट्स पर जाएगा जहां पेट्रोलियम ईथर भेजने की व्यवस्था है. इसके बाद वह आसान नुस्खे तलाशने के लिए ईरोविड.ओआरजी-नेट पर ड्रग डाटाबेस जिसमें ट्रिप रिपोर्टें और मात्रा बताई गई है-खंगालेगा. उसका सीधा-सा मकसद हैः वह मादक पदार्थों का नुस्खा तैयार करने में महारत हासिल करना चाहता है और देसी एलएसडी का जादुई काढ़ा तैयार करके गुप्त कॅरिअर बनाना चाहता है.
इस 15 वर्षीय लड़के को मालूम नहीं है कि वह मादक पदार्थों के तस्करों के लिए आसान शिकार है, वे युवाओं को फुटकर विक्रेता के रूप में नियुक्त करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स को देखते रहते हैं. उसके चिंतित माता-पिता को मालूम नहीं है कि डब्ल्यूडीआर 2010 के मुताबिक, भारत अवैध इंटरनेट फार्मेसी के जरिए बेचे जाने वाले ड्रग्स का केंद्र बन चुका है. लेकिन उन्होंने दिल्ली स्थित नेशनल डिटेक्टिव्स ऐंड कॉर्पोरेट कंसल्टेंट्स की प्रमुख तरलिका लाहिड़ी से संपर्क कर अपने बेटे और उसके दोस्तों पर ''नजर रखने'' के लिए कहा है. लाहिड़ी का मानना है कि यह उभर रहा नया रुझान है.
नए शहरी नशेड़ियों की अलग पहचान के पीछे यह डराने वाली हकीकत भी है कि वे नए किस्म के पदार्थों का प्रयोग करने लगे हैं. फिलहाल सबसे ज्यादा सिंथेटिक ड्रग्स (प्रयोगशाला में तैयार साइकोएक्टिव पदार्थ) पसंद की जा रही हैं. और इसमें कई तरह की दवाएं शामिल हैं-सोच को बदलने वाली एंफीटामाइन, एक्स्टैसी, एलएसडी, और दूसरी महंगी, मुश्किल से मिलने वाली डिजाइनर ड्रग से लेकर नुस्खे और बिना नुस्खे के आसानी से उपलब्ध सस्ती दवाएं.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर (एनडीडीटीसी) को देखिए, जहां हर साल 32,000 नशेड़ी पहुंचते हैं और 21,000 से ज्यादा की सामुदायिक देखभाल की जाती है. उनके आंकड़ों से जाहिर होता है कि अफीम के उत्पादों (प्राकृतिक और अर्द्ध सिंथेटिक अफीम से हेरोइन तक) के प्रयोग करने वालों की संख्या 2000 से 2009 के दौरान 22 से 42 फीसदी हो गई. लेकिन सिंथेटिक मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इससे भी कम समय में तेजी से बढ़ी है और इलाज कराने वालों में इसके व्यसनियों की संख्या 15 फीसदी है. {mospagebreak}
एनडीडीटीसी के प्रमुख डॉ. रजत राय कहते हैं, ''यह भारत में ड्रग के बढ़ते दुरुपयोग के पीछे बड़ा कारक है. दुनिया भर में मुख्य 'प्रॉब्लम ड्रग्स' -कोकीन, हेरोइन-का प्रयोग घट रहा है जबकि दूसरी सिंथेटिक दवाओं का दुरुपयोग बढ़ रहा है.''
एमएसजेई के अंतर्गत नेशनल सेंटर फॉर ड्रग यूज प्रिवेंशन के उपनिदेशक सुरेश कुमार का कहना है, ''पेनकिलर, सिडेटिव, एंक्जियोलाइटिक्स, हाइप्नोटिक जैसी दवाओं और बुह्ढीनॉर्फीन के साथ ही अफीम से बनी सिंथेटिक और कई तरह की दवाओं का दुरुपयोग तेजी से बढ़ रहा है.'' यूएनओडीसी ने बदलाव जानने के लिए 2008 में रैपिड सिचुएशन ऐंड रेस्पांस असेसमेंट (आरएसआरए) के तहत दक्षिण एशिया के पांच देशों में 21 से 30 साल के 9,465 लोगों का सर्वेक्षण किया था.
भारत में 5,800 उत्तरदाताओं में से 43 फीसदी 'ड्रग कॉकटेल' का इस्तेमाल करते हैं-उनमें से 64 फीसदी से ज्यादा पेनकिलर प्रोपॉक्सीफीन की सुई लगवाते हैं और 76 फीसदी बुप्रीनॉरफीन लेते हैं. इस सैंपल में शामिल 359 महिलाओं में से 16 फीसदी नींद की गोली लेती हैं और 18 फीसदी पेनकिलर लेती हैं. इसमें एंफीटेमाइन को जोड़ दीजिए तो कॉकटेल को जितना चाहें उतना मादक बना सकते हैं: डब्ल्यूडीआर 2010 में कहा गया है कि भारत दक्षिण एशिया में हेरोइन का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. लेकिन यह धीरे-धीरे एफेड्राइन और स्यूडोएफेड्राइन-एंफीटेमाइन के निर्माण में इन दोनों रसायनों का प्रयोग होता है-के सबसे बड़े निर्माण केंद्र के रूप में उभर रहा है. दुनिया में एटीएस का इस्तेमाल करने वाले आधे लोग एशिया में हैं (डब्ल्यूडीआर 2008) तो भारत का उसमें योगदान 29 फीसदी है (डब्ल्यूडीआर 2009).
दिल्ली के वसंतकुंज स्थित एक नशामुक्ति केंद्र में एक गरमी की दोपहर में कई युवक एक अलग-थलग पड़े आवास में लेटे हुए हैं. सारे सूख कर कांटा हुए जा रहे हैं, सभी मायूस हो चले हैं और अपनी थोड़ी-बहुत पहचान को बचाए रखने के लिए जद्दोजेहद कर रहे हैं. लेकिन वे कोई अकेले नहीं हैं. 46 वर्षीय फ्रैंकलिन लेजारस उन्हें 26 साल तक नशे में व्यतीत किए गए अपने जीवन के बारे में बता रहे हैं-पहली बार सूंघ कर नशा करने से लेकर व्यसन से आजाद व्यक्ति के रूप में 'पुनर्जन्म' की कहानी तक. वे मदद के लिए सोसायटी फॉर प्रमोशन ऑफ यूथ ऐंड मासेज (एसपीवाइएम) के पास पहुंचे.{mospagebreak}
आज वे यहां अपने जैसे दूसरे लोगों की मदद करने के लिए सलाहकार की भूमिका निभाते हैं. एसपीवाइएम के संस्थापक राजेश कुमार का मानना है कि फ्रैंकलिन की पीढ़ी के बीच पहुंच बनाना आसान था. वे कहते हैं, ''तब युवा लोग जल्दी सीखते थे.'' नशामुक्ति से जुड़े दूसरे विशेषज्ञों की भी यही राय है.
पुणे स्थित मुक्तांगन रिहैबिलिटेशन सेंटर की उपनिदेशक मुक्ता पुणतांबेकर कहती हैं, ''आज के व्यसनी युवा, समृद्ध हैं और नए तरह की ड्रग्स का इस्तेमाल करने के लिए उत्सुक रहते हैं, जबकि आर्थिक रूप से पिछड़े नशेड़ियों की श्रेणी अभी तक बनी हुई है.'' चेन्नै स्थित टीटीआरसी रिसर्च सेंटर की प्रमुख अनीता राव कहती हैं, ''पहले मरीजों के साथ उनकी पत्नियां आती थीं. आज उन्हें उनकी मां लाती हैं.''
मुंबई स्थित कृपा फाउंडेशन के प्रमुख फादर जोए परेरा कहते हैं, ''आसानी से उपलब्ध ड्रग्स की सामाजिक स्वीकार्यता की वजह से मादक पदार्थों के दुरुपयोग का ढर्रा बदला है.''
भारत के कंपनी जगत में अधिकारियों के बीच मादक द्रव्यों का सेवन घातक तरीके से उभर रहा है. मिसाल के तौर पर चेन्नै की 27 वर्षीया आरती रंगराजन को देखिए. अगर आप तेजतर्रार नहीं हैं तो चोटी की सॉफ्टवेयर कंपनी में स्टार परफॉर्मर नहीं हो सकते. एक साल पहले तक रंगराजन में किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह भरपूर आत्मविश्वास था और उन्हें मालूम था कि वे अपने कॅरिअर में कहां जा रही हैं. तंजावुर की धार्मिक पृष्ठभूमि वाली इस लड़की ने अपने माता-पिता को बुलाया, एक फ्लैट खरीदा और उन्हें अच्छे जीवन का ऐसा स्वाद चखाया जिसे उन्होंने पहले कभी महसूस नहीं किया था. लेकिन ऊपर पहुंचने का मादक तरीका फिसलन भरा साबित हुआ क्योंकि उसकी एक के बाद एक पार्टी वाली जीवनशैली की वजह से मादक पदार्थों का सेवन और लापरवाही के साथ यौन संबंध बनाने का सिलसिला शुरू हो गया.
आज वह एक नशामुक्ति केंद्र में पड़ी हुई है और उसके रक्त में एचआइवी पॉजिटिव होने के भी संकेत हैं. वह किसी से भी नहीं मिलती, अपने माता-पिता से भी नहीं. बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरो साइंसेज (निमहांस) में डि-एडिक्शन सेंटर की प्रमुख डॉ. प्रतिमा मूर्ति का कहना है, ''शहरों में ड्रग्स के साथ खतरनाक प्रयोग आम बात हो गई है. हम काफी युवा पेशेवरों को देख रहे हैं, जो साथियों के दबाव, उबाऊ जिंदगी, तनाव और आवश्यकता से अधिक आय की वजह से मादक पदार्थों का सेवन शुरू कर देते हैं.'' आरएसआरए सैंपल सर्वे में पाया गया कि 62 फीसदी नशेड़ी नौकरीपेशा हैं.{mospagebreak}
समय के अनुरूप एक नई तरह की कॉर्पोरेट सेवा शुरू हो गई हैः पृष्ठभूमि की जांच और मादक द्रव्य सेवन की जांच. फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) ने 1997 में यूएनओडीसी और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) के साथ उपक्रमों के प्रबंधन में मादक द्रव्यों के इस्तेमाल को रोकने की रणनीति शामिल करने की परियोजना पर काम शुरू किया था.
आइएलओ के अध्ययनों में पाया गया था कि मादक पदार्थों का सेवन करने वाले कर्मचारी प्रायः दफ्तर से गायब रहते हैं, कम स्वस्थ होते हैं, और दफ्तर में खुद को तथा दूसरों को क्षति पहुंचा सकते हैं. तब भारतीय कंपनी जगत ने उसमें बमुश्किल कोई दिलचस्पी दिखाई थी. लेकिन बढ़ती संपन्नता, दफ्तर में तनाव और नशेड़ियों को ज्यादा सामाजिक स्वीकार्यता मिलने के साथ ही आइटी, आइटीई और बहुराष्ट्रीय कंपनियां दफ्तर में मादक पदार्थ का इस्तेमाल करने वालों की जांच करने की व्यवस्था कर रही हैं.
गुड़गांव स्थित ऑथब्रिज रिसर्च सर्विस के प्रमुखों में से एक, अनिल धर का कहना है, ''पिछले दो साल में इस बात की जागरूकता बढ़ी है कि मादक पदार्थों के इस्तेमाल से दफ्तर का कामकाज प्रभावित हो सकता है.'' उनका कहना है, ''हम देख रहे हैं कि अफीम के उत्पादों और गांजा का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर लोग 20-40 साल की उम्र के हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं. यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है और प्रायः कर्मचारियों को पहले से बताए बगैर उनके पेशाब के नमूने लिए जाते हैं.''
क्या व्यसनी बनाए जाते हैं या जन्मजात होते हैं? मनोचिकित्सकों से पूछने पर वे बताते हैं कि छात्र के रूप में किसी व्यसनी का ''जन्म'' होता है. यूएनओडीसी का कहना है कि जहां 2001 में मादक पदार्थों का सेवन शुरू करने की उम्र 20 साल थी, वहीं आज यह घटकर 17 साल हो गई है. क्या यह रुझन और बढ़ रहा है? पायल जब मात्र 14 साल की थी तभी से उसने व्हाइटनर-जिससे टाइप या लिखावट की गलती को ढका जाता है-का इस्तेमाल शुरू कर दिया.{mospagebreak}
जिस तरह से उत्सुकता की वजह से बंदर की पूंछ लकड़ी के दो पाटों के बीच फंस गई थी, उसी तरह कोलकाता की इस लड़की ने अपने सहपाठियों की देखादेखी सूंघ कर नशा करने वाली घातक दुनिया में कदम रख दिया. एक रोज में 8-10 बोतल खर्च करने के बाद उसने एंटी-एंग्जाइटी दवाओं, शराब और गांजा का सेवन शुरू कर दिया. उसके पिता का कम उम्र में ही देहांत हो गया था और मां रोजी-रोटी कमाने में मसरूफ रहती थीं. घर में निगरानी की कमी की वजह से उसने मादक पदार्थों का आसानी से सेवन शुरू किया. आज यह 20 वर्षीया लड़की नशे की लत से मुक्त हो गई है लेकिन उसके साथ जो हुआ वह हमारे जमाने का प्रमुख संकेत है. एनडीडीटीसी-एम्स में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अंजु धवन का कहना है, ''व्हाइटनर में टॉलीन होता है. यह व्यसनकारी घोल रंग, रसायन, दवा और रबड़ उद्योग में इस्तेमाल किया जाता है. उसमें ऐसी विशेषता होती है कि उसे बार-बार इस्तेमाल करने का मन करता है और फिर खुशनुमा एहसास होता है. लेकिन लंबे समय तक टॉलीन सूंघने से मस्तिष्क स्थायी तौर पर मृत हो सकता है और व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है.''
दिल्ली स्थित विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसेज (विमहांस) को सप्ताह में करीब 10-14 ऐसे मामले मिलते हैं. मनोचिकित्सक डॉ. जीतेंद्र नागपाल का कहना है, ''यह बोतल करीब 26 रु. में किसी भी स्टेशनरी की दुकान में उपलब्ध है और बच्चे उसे आसानी से हासिल कर सकते हैं. उसे प्रतिबंधित कर देना चाहिए.'' किसी जमाने में प्रमुख गायक रहे रबीबुल इस्लाम, जो असम में यूएनओडीसी के स्त्रोत हैं, हाल के एक सर्वेक्षण में बताते हैं कि किशोरवय के बच्चे डेंड्राइट जैसे चिपकाने वाले पदार्थों का जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं.
लगता है कि स्कूली बच्चे कई तरह के ड्रग्स का एक साथ प्रयोग कर रहे हैं. स्वयंसेवी संगठन यूथ एनलाइटनिंग द सोसायटी ने इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज के साथ 2010 में शिमला के 2,000 स्कूली बच्चों का सर्वेक्षण किया. उनके अध्ययन के नतीजे इसी ओर इशारा करते हैं- 55 फीसदी से ज्यादा लड़के और 24 फीसदी लड़कियां नियमित रूप से मादक पदार्थों का इस्तेमाल करती हैं, उनमें से 29 फीसदी गांजा, कफ सीरप और अफीम का सेवन करते हैं.{mospagebreak}
मात्र 15 साल की उम्र में ''सूंघ कर'' नशा शुरू करने वाले 21 वर्षीय अभिषेक वर्मा को इसकी वजह निश्चित रूप से मालूम हैः ''यह शानदार, जोशीला और मादक था. मैं यह नशा क्लास में कर सकता था और टीचर को भनक तक नहीं लगती थी. जल्दी ही मैं स्कूल में सबसे लोकप्रिय व्यक्ति बन गया.'' डॉक्टर दंपती का यह बेटा अभी तक अपने नशे की लत से पार नहीं पा सका है.
ओडिसा में बेहरामपुर के पांच व्यावसायिक कॉलेजों में 2008 में किए गए अध्ययन से भी पता चला कि नशे की दुनिया में पैर रखने के लिए 15 साल की उम्र सबसे संवेदनशील है. उन कॉलेजों के 59 फीसदी छात्रों ने अपने साथियों के दबाव में मादक पदार्थों का सेवन शुरू कर दिया था. कोलकाता के दो प्रमुख मेडिकल कॉलेजों में 2004 के अध्ययन से खुलासा हुआ कि समस्यामूलक मादक पदार्थों के इस्तेमाल के 47 फीसदी मामलों में पहल ''दोस्त'' ही करते हैं. असम में गुवाहाटी के 36 वर्षीय चंदन सैकिया ने तनाव और दोस्तों के दबाव के चलते अपनी जिंदगी के सबसे प्रिय शगल क्रिकेट और उभरते क्रिकेटर के रूप में अपने कॅरिअर को गंवा दिया. कॉटन कॉलेज के इस पूर्व छात्र ने विभिन्न स्थानों पर अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए दुकान में बिकने वाली दवाइयों के साथ प्रयोग शुरू किया. उनका कहना है, ''हम सिर्फ मजे के लिए टीम की पार्टियों में ड्रग्स लेते थे.''
मदमस्त करने वाली लाइट, धुआं, ड्राइ आइस फॉग और कान फोड़ने वाले टेक्नो संगीत की धुन पर नाचते सैकड़ों युवक. क्या यह भी एक पूरी रात चलने वाली एक डांस पार्टी है? कतई नहीं. ''आराम करने वाले'' ह्नेत्र में पड़े माल पर नजर डालिए. अगर आपको वहां विक्स वैपोरब, आइ ड्रॉप, सर्जिकल मास्क, लॉलीपॉप, ढेर सारा पानी, जूस, सॉफ्ट ड्रिंक-लेकिन शराब नहीं-मिले तो यह रेव पार्टी है. हर शहर का अपना पसंदीदा जहर हैः दिल्ली एक्स्टैसी के साथ मस्त रहती है, मुंबई आइस के साथ मचलती है और केटामाइन चेन्नै का जहर है, लखनऊ याबा पर झूमता है और कोलकाता मेथ पर मचलता है. लब्बोलुआब यह है कि वे सब एंफीटेमाइन-टाइप स्टीमुलेंट हैं-जो दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाली दूसरे नंबर की सबसे सामान्य दवा है. डब्ल्यूडीआर 2010 के मुताबिक, यह कोकीन और अफीम के उत्पादों से भी ज्यादा इस्तेमाल होती है.{mospagebreak}
एमएसजेई ने 2004 में जब मादक पदार्थों के इस्तेमाल पर पहला राष्ट्रीय सर्वेक्षण 'द एक्स्टेंट, पैटर्न ऐंड ट्रेंड्स ऑफ ड्रग एब्यूज इन इंडिया' प्रकाशित किया था तब इलाज करा रहे 81,802 लोगों में से करीब 0.2 फीसदी एटीएस का गलत इस्तेमाल करने वाले लोग थे. कोलकाता स्थित अपोलो ग्लेनईगल्स हॉस्पिटल्स के मनोचिकित्सक और नशामुक्ति के विशेषज्ञ डॉ. अरिंदम मंडल का कहना है, ''सिंथेटिक ड्रग्स युवाओं को विशेष रूप से पसंद हैं. उनसे सामाजिक हिचक कम हो जाती है, अधिक ऊर्जा, होशियारी और क्षमता का एहसास होता है.''
नई ड्रग्स से नई सप्लाई चेन तैयार हो जाती है. इस साल फरवरी की एक सर्द सुबह में नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के उपमहानिदेशक योगेश देशमुख और उनकी टीम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक रेलगाड़ी के हर डिब्बे की जांच कर रहे थे. उन्हें सूचना मिली थी कि एक नाइजीरियाई नागरिक के पास हेरोइन है. उनकी टीम ने उस व्यक्ति को ढूंढ लिया. लेकिन तलाशी से सिर्फ कुछ डोर-स्टॉपर मिले. उसने कहा कि वह उन डोर-स्टॉपर का निर्माण करने वाली कंपनी में काम करता है. लेकिन जब देशमुख ने उन्हें तोड़ा तो हर डोर-स्टॉपर में हेरोइन पाई गई. उनका कहना है, ''मादक द्रव्यों की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल होने के साथ ही उन्हें छिपाने के नए-नए तरीके निकाल लिये गए हैं. हमने सिंथेटिक ड्रग्स बनाने वाली कई गुप्त प्रयोगशालाओं, कुछ इंटरनेट फार्मेसी और कुछ कुरियर कंपनियों का भंडाफोड़ किया है, जो आज इस कारोबार की प्रमुख कार्यविधि हैं.'' उनका कहना है कि जब तक दवाओं को सिर्फ नुस्खे के आधार पर बेचने के लिए सख्त कानून नहीं लागू किया जाएगा तब तक देश भर में मादक रसायनों के बढ़ते रुझन को रोकना मुश्किल है.
सरकार का मानना है कि ''देश में करीब 7 करोड़ लोग मादक द्रव्यों का इस्तेमाल करते हैं.'' लेकिन यह आंकड़ा 2000-01 में किए आखिरी राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित है, जिसे 2004 में प्रकाशित किया गया था. उस समय सबसे ज्यादा गांजा, हशीश, अफीम और हेरोइन का प्रयोग किया जा रहा था. एटीएस और नुस्खे वाली दवाओं का बेजा प्रयोग इतना नहीं था कि उन पर विशेष ध्यान दिया जाए. उसमें महिलाओं और बच्चों को भी शामिल नहीं किया गया था. ''मादक द्रव्यों के व्यसनी'' का मतलब सड़क पर पड़ा ऐसा व्यक्ति था, जिसके पास घर, संपत्ति नहीं है और वह अपराध की दुनिया के मुहाने पर खड़ा है. देश के मध्य और संपन्न वर्ग के नशेड़ियों पर इतनी चिंता नहीं जताई गई थी.{mospagebreak}
राष्ट्रीय अध्ययनों के अभाव में ''7 करोड़'' को अब भी जादुई आंकड़ा करार दिया जा रहा है. इस बीच अफीम और हेरोइन का प्रयोग कम हो गया है. उनकी जगह सिंथेटिक ड्रग्स ले रहे हैं. इससे भी बढ़कर यह कि गुपचुप तरीके से उन्हें देश भर में बनाया जा रहा है. ''नए शहरी नशेड़ियों'' की पहचान अलग हो गई है-युवा, शिक्षित, कामकाजी, उच्च एवं मध्य वर्ग. आसानी से उपलब्ध नई ड्रग्स उन्हें मनबहलाने और पेशे की परेशानियों को दूर करने के मामले में भाती है. भारत के सामने यह ह्नेत्र चुनौती खड़ी कर रहा है. दुर्भाग्यवश, पुराने अध्ययन के पन्नों को पलटने में व्यस्त राष्ट्र को फौरन कार्रवाई करने के लिए नई हकीकत को समझने में वक्त लगेगा.
-साथ में अरविंद छाबड़ा, कौशिक डेका, किरण तारे, मिताली पटेल, गुणजीत सरा, लक्ष्मी सुब्रह्मण्यम, सरबनी सेन, और स्टीफन डेविड