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यहां नवजात को नदी में तैराने की है परंपरा

भगवान में आस्था और विश्वास को लेकर भारतीयों में दृढ़ भावनाएं होती हैं. भारतीय पहले भगवान के सामने मन्नत मांगते हैं और फिर इसके पूरी होने पर पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद और चढ़ावा भी चढ़ाते हैं. कोई मत्था टेकने की मन्नत मांगता है तो कोई दर्शन के. लेकिन मध्य प्रदेश के बैतूल में मन्नत पूरी होने पर नवजात शिशुओं को नदी में तैराने की परंपरा है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

भगवान में आस्था और विश्वास को लेकर भारतीयों में दृढ़ भावनाएं होती हैं. भारतीय पहले भगवान के सामने मन्नत मांगते हैं और फिर इसके पूरी होने पर पूजा-अर्चना करते हैं, प्रसाद और चढ़ावा भी चढ़ाते हैं. कोई मत्था टेकने की मन्नत मांगता है तो कोई दर्शन के. लेकिन मध्य प्रदेश के बैतूल में मन्नत पूरी होने पर नवजात शिशुओं को नदी में तैराने की परंपरा है.

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यहां पूर्णा नदी को गोद भरने वाली देवी कहा जाता है. मान्यता है कि पूर्णा देवी की आराधना से दंपति की मनोकामना पूरी होती है और उनकी गोद भर जाती है. जिन दंपति की मनोकामना पूरी होती है, वे कार्तिक मास की पूर्णिमा के बाद यहां आकर विशेष अनुष्ठान करते हैं. यहां काफी लोग जुटते हैं, इसलिए यहां एक पखवाड़े तक मेला लगता है.

मनोकामना पूरी होने पर दंपति विशेष तरह से पूर्णा देवी के प्रति अपना आभार जताते हैं. मंदिर के करीब से बहने वाली चंद्रपुत्री नदी को पूर्णा नदी के नाम से जाना जाता है. इस नदी में कार्तिक मास की पूर्णिमा से पालना डाले जाते हैं. इन पालनों में दंपति अपने बच्चों को लिटाकर छोड़ देते हैं.

यहां पहुंची एक महिला लीना ने बताया कि उसकी शादी को आठ साल हो गए थे, मगर गोद नहीं भरी थी. वह दो साल पहले यहां आई थी और पूर्णा माता को नमन कर गोद भरने की अर्जी लाई थी. उसकी मनोकामना पूरी हुई. इस बार वह यहां अपने बच्चे को लेकर आई है और परंपरा निभाते हुए अपने बच्चे को पालना में डालकर नदी में तैराया है.

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उससे जब पूछा गया कि क्या उसे आशंका नहीं थी कि उसका बच्चा पालना के साथ कहीं पानी में डूब न जाए? उसका जवाब था कि पूर्णा देवी के आर्शीवाद से उसकी गोद भरी है, इसलिए उसे पूरा विश्वास है कि पूर्णा की गोद में पड़े बच्चे का नुकसान नहीं हो सकता. लीना ने कहा, ‘मैंने तो अपने बच्चे को मां पूर्णा के आंचल में अर्पित किया है, डर काहे का!’

इसे अंधविश्वास कहें या आस्था, मगर कार्तिक मास में लगने वाले मेले में सैकड़ों दंपति आकर अपनी मन्नत पूरी होने पर बच्चों के जीवन को खतरे में डालकर नदी में तैराते हैं.

मेला समिति के सदस्य सुरेश तिवारी का कहना है कि यह मेला और नवजातों को तैराने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है, जिसे लोग निभाते आ रहे हैं. बच्चों को नदी में तैराना आस्था का मामला है. यहां कोई तर्क नहीं चलता.

बच्चों को पालना में तैराने के काम में कुछ चुनिंदा लोग लगे हुए हैं. वे पहले बच्चे को हवा में उछालते हैं, जयकारे लगाते हैं और उसे माला पहनाने के बाद पालने में डालकर नदी में तैरने के लिए छोड़ देते हैं.

प्रशासन की ओर से मेले में आने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए पुलिस जवानों की तैनाती की गई है, मगर परंपरा के नाम पर बच्चों की जिंदगी को खतरे में डालने के इस खेल पर न तो किसी का ध्यान है और न ही विरोध का स्वर कहीं सुनाई देता है.

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