पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में एक दशक में 556 तेंदुओं के मारे जाने के साथ यह कहा जा सकता है कि यहां तेंदुओं का खतरनाक ढंग से विनाश हो रहा है और यह चित्तीदार बेजोड़ जीव अब धीमे, लेकिन सधे कदमों से विलुप्त होने की दिशा में बढ़ रहा है. पिछले छह महीने में 45 तेंदुए मारे जा चुके हैं. और यह सरकारी आंकड़ा है. गैरसरकारी आंकड़ों के अनुसार इस अवधि में 67 तेंदुए मारे जा चुके हैं, यानी हर माह कम से कम 11 तेंदुओं की मौत हुई है.
सिमटते जंगलों और शिकार की बढ़ती कमी की वजह ने हैरान-परेशान तेंदुओं को जंगल छोड़कर बाहर निकलने के लिए मजबूर कर दिया है और इसने मानवीय बस्तियों पर कहर बरपा दिया. तेंदुए पिछले एक दशक में 200 लोगों की जान ले चुके हैं और 356 लोगों को झिंझोड़ चुके हैं. जाहिर है, इंसान और जानवर दोनों अपनी जान और नस्ल बचाने के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं. यह आम बात है कि जिन ग्रामीणों के अपने भाई-बंधु या मवेशी तेंदुओं के शिकार बनते हैं, वे बदला लेने के लिए तेंदुओं को मार डालते हैं.
देश के किसी अन्य राज्य की तुलना में रिकॉर्डतोड़ बात यह है कि पिछले नौ वर्षों में वन विभाग ने तेंदुओं को आदमखोर करार देते हुए उन्हें मार गिराने के 75 परमिट जारी किए हैं. यह तय करने का कोई तरीका नहीं है कि वास्तविक आदमखोर तेंदुआ मारा जा रहा है या कोई निर्दोष तेंदुआ, लेकिन उन्हें मारने के परमिट राजनैतिक दबाव में जारी किए जा रहे हैं.
झिझोड़े जाने और घायल किए जाने के मामलों के अलावा, औसत 25 लोग तेंदुओं के हाथों मारे जा रहे हैं और अब तो अपनी रातों की नींद हराम कर चुके तेंदुओं से बदला लेने पर उतारू गांव वाले उनसे पिंड छुड़ाने के लिए उनको जाल में भी फंसाने लगे हैं.
तेंदुओं और इंसानों में बढ़ती दुश्मनी पर लगातार नजर रखे एक वरिष्ठ आइएफएस अधिकारी का कहना है, ‘विलुप्तता के कगार पर खड़े बाघों से भी पहले अगर तेंदुए पूरी तरह खत्म हो जाएं, तो कोई हैरानी नहीं होगी.’ अपनी पहचान जाहिर न करने के अनुरोध के साथ उन्होंने कहा कि तेंदुओं का शिकार और उनकी खालों की अवैध बिक्री इस पर्वतीय राज्य में एक कुटीर उद्योग का रूप ले चुकी है, जहां स्थानीय जनजातियां, बाहरी लोग और शिकारियों के अंतरराष्ट्रीय गिरोह भी मनमाना शिकार कर रहे हैं.
{mospagebreak}ऐसी घटनाओं को मुख्यतः स्थानीय नागरिकों की संलिप्तता और नेपाल, तिब्बत और चीन में स्थित उनके सीमापार संपर्कों से जोड़कर देखा जा रहा है. वन्यजीवन के अपराधियों को सजा मिलने के नाम मात्र के मामलों ने शिकारियों की हिम्मत और बढ़ा दी है. पिछले पांच साल में मात्र पांच शिकारियों को सजा मिली है और अधिकांश को ज्यादा गंभीर सजा मिले बिना ही रफा-दफा कर दिया गया है.
मसलन, 25 अगस्त, 2002 को संरक्षित छिपकलियों के साथ गिरफ्तार किए गए अनिल नाथ को ही लें. उसे एक साल के सश्रम कारावास और 5,000 रु. जुर्माने की सजा हुई थी. उसे 10 जून, 2008 को फिर बिजनौर जिले के बदरपुर फॉरेस्ट रेंज से शिकार के सामान के साथ पकड़ा गया. इसके पहले उसी साल 23 मार्च को हरिद्वार में उसे छिपकलियों, सांभर और चकत्ते वाले हिरणों के कंकालों के साथ पकड़ा गया था.
इसी तरह एक और शिकारी हरीश को 14 मार्च, 2006 को तेंदुए की दो खालों के साथ रामनगर वन प्रखंड में पकड़ा गया था. 25 मार्च 2006 को हल्द्वानी के न्यायिक दंडाधिकारी ने उसे डेढ़ महीने की कैद और 2,500 रु. जुर्माने की सजा सुनाई थी. उसे 30 जनवरी, 2009 को फिर आठ लोगों के साथ बाघ की एक खाल और कंकाल की बरामदगी के सिलसिले में रामनगर वन प्रखंड में पकड़ा गया. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया के मुताबिक, उत्तराखंड में शिकार और बरामदगी के 536 मामलों में से सिर्फ 12 मामलों में आज तक सजा हो सकी है.
वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया के देश भर में शिकार विरोधी कार्यक्रमों के प्रमुख टीटो जोसेफ कहते हैं, ‘वन विभाग के अधिकारियों में वन्य जीव संरक्षा की इच्छा शक्ति का जबरदस्त अभाव है और उन्हें संरक्षण भी मिलता है, क्योंकि अगर उनके इलाके में कोई तेंदुआ मारा जाता है, तो इस पर उनसे कोई सवाल नहीं किया जाता है. मैंने राज्य में तेंदुओं के मारे जाने की बढ़ती दर को लेकर विधानसभा में कोई सवाल उठाए जाते हुए नहीं देखा है. उनकी तरफ से जवाबदेही का नितांत अभाव है.’
टीटो कहते हैं कि इसके अलावा वन विभाग के अधिकारियों और खास तौर पर निचले स्तरों के अधिकारियों को मिला प्रशिक्षण गैर-पेशेवर है और उनके पास खुफिया सूचनाओं का कोई तंत्र नहीं है.
उधर, उत्तराखंड के वन विभाग के अतिरिक्त मुख्य वन संरक्षण अधिकारी श्रीकांत चंदौला का कहना है कि पृथक उत्तराखंड राज्य बनने से यहां विकास गतिविधियां तेज हुई हैं, राज्य भर में मानव जनसंख्या में वृद्धि हुई है, जिससे तेंदुओं और इंसानों का आमना-सामना होने की घटनाएं बढ़ी हैं और इसी से टकराव भी बढ़ा है.
{mospagebreak}चंदौला का निष्कर्ष है, ‘इंसान-जानवरों के सह-अस्तित्व का सिलसिला बिल्कुल नहीं चल पा रहा है. हमें दोनों के लिए अलग-अलग स्थान तैयार करना पड़ेगा. हम सड़क, पानी और बिजली की सारी नागरिक सुविधाएं गांवों को देने का जोखिम नहीं उठा सकते, जिससे जंगल और जंगली जीवन में खलल पड़ता है, इंसान और जानवरों का संघर्ष शुरू हो जाता है और फिर दोनों तरफ से मौतें होती हैं.’
सारी समस्या उन करीब 14,000 गांवों के आसपास बनी हुई है, जो जंगलों से सटकर बसे हुए हैं और वहां के लोग बार-बार जानवरों के रहने की जगह में जाते रहते हैं. विकास गतिविधियों मुख्य रूप से आवासीय बस्तियों, बांधों, नहरों और नई सड़कों का विस्तार होने से जाहिर है कि कई जिलों में तेंदुओं का आवास सिमट गया है, जिनमें राज्य की राजधानी देहरादून, टिहरी और पौड़ी जिले शामिल हैं. यही नहीं, जनसंख्या के दबाव में भी तेंदुओं का न केवल सुरक्षित आवास छोटा हो गया है, बल्कि उनका मुख्य आहार-शाकाहारी जंतु भी खत्म हो रहे हैं.
तेंदुओं के संकट पर लंबे समय से काम करते आ रहे मुख्य वन संरक्षण अधिकारी पी. सिंह कहते हैं, ‘तेंदुओं द्वारा शिकार किए जाने वाले जानवरों की कमी ने उनको सीधे मानव बस्तियों में घुसने और बच्चों, औरतों, मवेशियों और यहां तक मुर्गियों तक पर हमलों के लिए मजबूर कर दिया है.’
इस पर प्रभावित ग्रामीणों की तरफ से जवाबी हमले होते हैं जिससे तेंदुओं के मरने की दर बढ़ जाती है. तेंदुओं से अपने बचाव के लिए ग्रामीण जाल वगैरह लगाते हैं, जिनसे कई बार उनकी मौत हो जाती है. दूसरे, किसी जंगली जानवर द्वारा मारे जाने या घायल किए जाने वाले लोगों या उनके परिवारों को सरकार की तरफ से मामूली वित्तीय मुआवजा मिलता है और वह भी काफी तफ्तीश के बाद.
तेंदुओं से सबसे ज्यादा प्रभावित जिले पौड़ी के गिरिजेश कुमार तिवारी कहते हैं, ‘हमारी जाती तो है गाय, और सरकारी पैसे से हम सिर्फ बकरी खरीद सकते हैं.’ देहरादून की जिला वन अधिकारी मीनाक्षी जोशी के मुताबिक, जंगली जानवरों से पीड़ित लोगों को बहुत मामूली मुआवजा मिलता है. बहरहाल, उत्तराखंड में तेंदुए के अस्तित्व को लेकर संकट पैदा हो गया है, और वक्त आ गया है कि इंसान उसे समझें.