बांसुरी के साथ भगवान कृष्ण, वृंदावन, गोपियां और रासलीला की अनुभूति खुद ब खुद होने लगती है, लेकिन अब इक्कीसवीं सदी में दुनिया का यह सबसे प्राचीन और प्राकृतिक वाद्य यंत्र भी ‘हाईटेक’ होता जा रहा है.
बांसुरी या बंशी को विश्व में सबसे प्राचीनतम और प्राकृतिक वाद्य यंत्र माना जाता है और इसके तार पौराणिक कथाओं से जुड़े हुए हैं. इसी विरासत को संभालते हुए अब तकनीकी का इस्तेमाल कर ऐसी व्यवस्था की गयी है कि बांसुरी के सुरीले सुरों का लुत्फ अब अत्याधुनिक प्रेक्षागृहों में बैठे श्रोता भी उसी तरह उठा सकते जैसे कभी वादियों में गोपियां इसे सुनकर विभोर हो जाया करती थीं.
प्रसिद्ध बांसुरी वादक पंडित रोनू मजूमदार ने खास बातचीत में कहा, ‘मैं जर्मनी से एक मिक्सर लेकर आया हूं, जिसके प्रयोग से बांसुरी में प्रतिध्वनि (इको), अनुगूंज और लोकशैली के रस का लुत्फ उठाया जा सकता है और इसके प्रयोग से आवाज को नियंत्रित किया जा सकता है.’ इससे बांसुरी की ध्वनि में तब्दीली के बारे पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘तकनीक के प्रयोग से किसी वाद्य यंत्र का मूल स्वर प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि इसे श्रोताओं को मूल ध्वनि का अहसास कराने में मददगार होना चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘इस मिक्सर को सीधे बांसुरी से नहीं जोड़ा जाता बल्कि इसे माइक्रोफोन से जोड़ा जाता है. इसके प्रयोग से बांसुरी की ध्वनि में सिंथेटिकपन (बनावटीपन) नहीं आयेगा और इसकी असली खुशबू खत्म नहीं होगी बल्कि श्रोता को आडिटोरियम में इसके विविध स्वरूपों का अनुभव होगा.’
{mospagebreak}बांसुरी के बारे में प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने कहा, ‘बांसुरी न केवल दुनिया का सबसे प्राचीनतम वाद्ययंत्र है बल्कि यह एकमात्र ऐसा वाद्य यंत्र है, जो विश्व के हर कोने में बजाया जाता है.’ गौरतलब है कि पंडित पन्नालाल घोष ने बांसुरी को शास्त्रीय वाद्य के रूप में पहचान दिलाई और पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने आलाप, जोड़, झाला, और ध्रुपद का प्रयोग कर इसे समृद्ध किया.
बकौल मजूमदार, ‘पंडित पन्नालाल घोष ने देवकी की तरह बांसुरी को जन्म दिया और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने यशोदा की तरह उसे पाला पोसा.’ इसके अलावा बांसुरी को समृद्ध करने वालों में पंडित रघुनाथ सेठ, पंडित विजय राघव राव और पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर प्रमुख है. इसमें पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का योगदान अतुलनीय है.
गौरतलब है कि रोनू मजूमदार ने ही शंख बांसुरी का इजाद किया है और इसके लिए वह असम से साढ़े तीन फुट लंबा बांस का टुकड़ा लेकर आये थे. उनका कहना है कि बांस की बांसुरी की अपनी शास्त्रीय पहचान है और इसके सुरों की मिठास को कोई नहीं चुरा सकता.
मजूमदार ने कहा कि किसी भी वाद्य यंत्र में बदलाव काफी गंभीरता से किये जाने चाहिए ताकि मूल स्वरूप में परिवर्तन ना आने पाये. उन्होंने उदाहरण दिए कि जैसे शहनाई में मेटल हार्न लगाने से उसके मूल स्वरूप में फर्क आ जाता है.
विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि बांसुरी कृष्ण से बहुत पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थी. जंगलों में बांस के झुरमुटों में कीडे-मकोड़े सुराग बना देते थे और जब हवा उसमें से गुजरती थी तो मीठी स्वर लहरी पूरे माहौल में तैरने लगती थी. माना जाता है कि यहीं से इंसान ने सनातन और प्राकृतिक वाद्य यंत्र बांसुरी की प्रेरणा ली होगी.