जन्नत के दरवाजों को ताजा रंग-रोगन की दरकार है. बंगाल का मैदानी इलाका जिस शहर पर आकर खत्म होता है, उस सिलिगुड़ी में आज के रंग के एक-दो गंदलाए-से अक्स हैं. उसके बाद शुरू होता है हिमालय का अलौकिक वायवीय सौंदर्य. बेतरतीब और ऊबड़खाबड़ कस्बे-सा सिलिगुड़ी किसी शहरी फैलाव का मुकाबला करने के काबिल भी नहीं है.
बेशक नेशनल हाइवे पर एक-दो मॉल खड़े हो गए हैं, लेकिन उसके आगे हाइवे भी तीस्ता नदी की तेज हलचलों के सिम्त मुड़ जाता है. वहां से यह सड़क गंतोक या दार्जिलिंग की मंजिल पूरी होने तक कलिझेरा और कलिम्पोंग के मनोहारी दृश्यों के साथ-साथ बल खाती चलती है.
सिलिगुड़ी के स्पेंसर मॉल से महज कुछ गज की दूरी पर एक इश्तहार चस्पां है, जिसकी जड़ें इतिहास में हैं. यह इश्तहार है माकपा के अखबार गणशक्ति का. किसी जमाने में नुकीले रहे इसके हर्फ आज अदृश्यता के कगार पर पहुंच गए हैं.
धुंधलाया हुआ-सा मास्टहेड अतीत का गौरव बयां करता है. इस इश्तहार को तिरछी निगाहों से तकता अभी हाल ही में बना एक बंगाली अखबार का दफ्तर है. यह अखबार गुजरे कई वर्षों से वाम मोर्चे से उतनी ही ताकत से लड़ता रहा है, जितनी कि ममता बनर्जी.
एक बड़ी-सी संकरी सड़क पर बेतरतीब-सी इसकी इमारत खड़ी है. अभी बंगाल में जो भूकंपीय बदलाव हुआ है, यह इमारत उसकी सबसे मुफीद उपमा पेश करती है. वाम तो मुरझा ही गया है, लेकिन वैकल्पिक जमीन भी शून्य में खड़ी है. वह भी कमजोरियों से मुक्त नहीं है.
यह बात समझ में भी आती है. आखिर, ममता की सरकार ने अभी ही तो काम शुरू किया है. उनका शुरुआती जोर कड़ी से कड़ी मेहनत पर रहा है. यह भी समझ में आता है क्योंकि मजदूर संघों से गहरे प्रभावित वाम सत्ता की मेहनत करने में तो कम-से-कम कोई रुचि नहीं थी. निश्चित तौर पर ममता उस गीत से वाकिफ होंगी, जिसे कोलकातावासियों ने बड़े सहज हास्यबोध के साथ ईजाद किया था और जो वाम शासन के सबसे निष्क्रिय दिनों में उनका प्रमुख हथियार हुआ करता था.
यह गीत बंगाल सरकार के गढ़ 'राइटर्स बिल्डिंग' की कार्यसंस्कृति को बयां करता हैः आशी जाई, मनी पाई, काज कोरले बेशी चाई (मैं आता हूं, जाता हूं, तनख्वाह पाता हूं. अगर आप चाहते हो कि मैं काम करूं तो मुझे और पैसे दो). इन सुस्त, आलसी बाबुओं को हिलाना नई मुख्यमंत्री के लिए आसान न होगा, लेकिन उन्होंने अपने मंत्रियों के लिए अभूतपूर्व गति तय कर दी है. आलम यह है कि थोड़े ही समय के लिए सही, लेकिन एक व्यक्ति को अस्पताल जाना पड़ा है.
लेकिन ममता शायद असली मुद्दे को भूल रही हैं. बेशक आरामतलब काम से कहीं बेहतर है कठिन परिश्रम, लेकिन यहां कार्य-कुशलता प्राथमिकता नहीं है. उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और है. आश्चर्य की बात है कि भ्रष्टाचार को लेकर पूरे देश में जितना हो-हल्ला है, बंगाल में वह ऐसी नाटकीय समस्या नहीं है.
यह कोई इतना बड़ा मसला नहीं कि अण्णा हजारे और बाबा रामदेव की दुपहरियों का चैन तबाह हो जाए. बंगाली मतदाताओं ने वाम मोर्चे का सफाया इसलिए नहीं किया क्योंकि वह आलसी और भ्रष्ट था. उसका अपराध इससे कहीं ज्यादा गहरा थाः वह बंजर हो चुका था.
ममता को तत्काल बड़े पैमाने पर जिस चीज की जरूरत है, वह है बिल्कुल नए, ताजातरीन विचार. वे बखूबी जानती हैं कि इतने बड़े पैमाने पर पुनर्निर्माण का काम कितनी जबरदस्त चुनौतियों से लबरेज है, लेकिन उनकी चिंता यह भी होनी चाहिए कि कहीं उनके मंत्री इन चुनौतियों का हल शून्य में ढूंढ़कर उनकी सरकार को भीतर से और कमजोर न कर दें.
वाम मोर्चे की सरकार को पहले से ही भनक थी कि उसका जहाज आइसबर्ग की दिशा में अग्रसर है, इस विचार की पुष्टि के लिए सबसे पुख्ता प्रमाण यह है कि मार्क्सवादियों ने टाइटैनिक के चूर-चूर हो जाने से पहले ही जहाज पर शानदार पार्टी मना ली. वे खजाने को खाली कर गए हैं.
नए वित्त मंत्री अमित मित्रा के मुताबिक, बंगाल पर तमाम दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति कर्ज (21,697 रु.) है. वित्त मंत्री का कहना है कि इस कर्ज से सम्मानजनक तरीके से निबटने के लिए उन्हें बाजार से 3,000 करोड़ रु. उधार लेने होंगे.
दिल्ली में बैठे अंकल प्रणब मुखर्जी अच्छे सलाहकार हो सकते हैं, लेकिन भाई-भतीजावाद के लिए उनके पास भी कोई उपाय नहीं है. बंगाल को निजी क्षेत्र की जरूरत है. ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि निजी पूंजी रोजगार के मामले में निवेश किए गए एक-एक पैसे का ज्यादा बेहतर प्रतिदान दे, जिसका अर्थ है सेवा उद्योग में बहुत बड़े पैमाने पर इजाफा.
लेकिन अफसोस कि निजी उद्योगों को बंगाल की उतनी जरूरत नहीं है. वाम मोर्चे के रुख ने दो दशक पहले ही उसकी उपयोगिता खत्म कर दी. उसने सोचा कि वह अपना वजूद बनाए रखेगा. लेकिन ममता को नए पथप्रदर्शक की जरूरत पड़ेगी. शायद उन्हें प्रेरणा के लिए हिमालय की ओर देखने की जरूरत है. ऊपर उत्तर में उनका पड़ोसी है सिक्किम, जहां आयकर नहीं लिया जाता.
छह लाख की आबादी वाले इस राज्य में सात विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से सिर्फ एक ही सरकारी है. कई मेडिकल कंपनियां वहां निर्माण इकाइयां लगा रही हैं. निर्माण के क्षेत्र में सिक्किम में बहुत तेजी से काम हो रहा है. बिखरा और अस्त-व्यस्त ही सही, लेकिन हो तो रहा है. छोटे-से सिक्किम के मुकाबले बंगाल की ताकत कहीं ज्यादा है, जो पूरे पूर्वी भारत में बदलाव की लहर की लहर ला सकता है. आवश्यकता ने सिक्किम को आविष्कार की दिशा में धकेला.
बेशक बंगाल उसकी नकल तो नहीं कर सकता, लेकिन यदि ममता स्थानीय उद्यमियों को प्रोत्साहन नहीं देंगी और राष्ट्रीय व्यापार को बंगाल की ओर आकर्षित नहीं करेंगी, जिससे प्रत्यक्ष रूप से और तेजी के साथ बंगाल के आम जनजीवन में बेहतरी आए, तो निश्चित ही वे सार्वजनिक की सबसे खतरनाक बीमारियों और कुंठाओं से ग्रस्त हो जाएंगी.
बंगाल की सबसे बड़ी बाधा वहां की 'राइटर्स बिल्डिंग' है. ममता को उससे बाहर निकलकर सोचने की जरूरत है.